बंगाल पूर्वोत्तर का प्रवेशद्वार कहा जाता है। यहां की परंपरा कुछ अनोखी है। यहां के लोगों को भूत चतुर्दशी से लेकर कालीपूजा तक का बेसब्री से इंतजार होता है। मां काली के भक्तों को उम्मीद रहता है कि उनकी भक्ति और तंत्र की शक्ति से उन्हें बाबा ख़ेपा की तरह मां काली से साक्षात्कार हो जाए। यही कारण है कि भूत चतुर्दशी से लेकर कालीपूजा तक पूर्वोत्तर सहित बंगाल में भूतों से लोग संवाद करते है। इस दिन मध्यरात्रि के समय श्मशान जाकर अंधकार की देवी और वीर वेताल की पूजा करने का विधान है। पश्चिम बंगाल में इसे 'इंडियन हैलोवीन' के रूप में भी मनाया जाता है। चलिए जानते हैं भूत चतुर्दशी पूजा का मुहूर्त और विधि।जैसे पश्चिम बंगाल को ही लीजिए, भारत के इस पूर्वी राज्य में अगर आप नरक चतुर्दशी के दिन सड़को पर घूम रहे हैं तो आपकी चीख भी निकल सकती है।पश्चिम बंगाल में बेहद अलग होता है नरक चतुर्दशी का दिन: पश्चिम बंगाल में नरक चतुर्दशी का दिन बेहद अलग तरीके से मनाया जाता है। घरों के आगे, चौराहों पर, गलियों के मोड़ पर संभल कर चलना जरूरी हो जाता है क्योंकि कब कहां, कैसे और किस अवस्था में भूत से आपकी टक्कर हो जाए और फिर सिट्टी-पिट्टी गुम। दिन में तो फिर भी गनीमत है, शाम ढलते ही नजारा और भयानक हो सकता है. दीपकों की रौशनी में थोड़ी-थोड़ी दूर पर मौजूद डरावने चेहरे, कहीं शांत तो कहीं रहस्यमय कोलाहल का माहौल... पूरे माहौल को डर से भर देता है, लेकिन असल में यह खतरनाक नहीं है, बल्कि एक परंपरा का हिस्सा है।
कार्तिक चौदस को मनाते हैं भूत चतुर्दशी: पश्चिम बंगाल में कार्तिक के कृ्ष्ण पक्ष की चतुर्दशी को भूत चौदस कहते हैं. इस दिन लोग घरों के आगे डरावने चेहरों वाले पुतले और स्वरूप लगाते हैं, उनके आगे चौदह दीपक रखते हैं और शोर मचाकर दरिद्रता (दलिद्दर) हांकते हैं. पश्चिम बंगाल में इस दिन को भूत चतुर्दशी के रूप में मनाया जाता है. इसे काली चौदस भी कहा जाता है, जो देवी काली की पूजा और दुष्टात्माओं तथा नकारात्मक ऊर्जों को भगाने के लिए समर्पित है. ये जो डरावने चेहरे हैं, असल में यह देवी काली का ही एक स्वरूप है. भूत चतुर्दशी पर लोग अपने पूर्वजों को एक अनोखी परंपरा में श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं, यही कारण है कि इसे बंगाल का 'हैलोवीन' कहा जाता है। क्या आत्माएं धरती पर आती हैं?: 'भूत चतुर्दशी' नाम 'भूत' शब्द से आता है, जिसका अर्थ भूत या आत्मा होता है, तथा 'चतुर्दशी' चंद्र कैलेंडर के चौदहवें दिन को दर्शाता है. इस त्योहार को पूर्वजों के सम्मान के रूप में देखा जाता है. विशेष रूप से पिछले चौदह पीढ़ियों के तौर पर और मान्यता है कि इस रात में ये आत्माएं लौटकर अपने वंशजों को आशीर्वाद और सुरक्षा प्रदान करती हैं। यह त्योहार भटकती आत्माओं को मुक्ति दिलाने की आस्थाओं से भी जुड़ा है, क्योंकि इस समय ऐसी शक्तियां अधिक सक्रिय मानी जाती हैं. पश्चिम बंगाल में भूत चतुर्दशी दीपावली से भी प्राचीन है और इसे सुरक्षा, स्मृति तथा आध्यात्मिक शुद्धिकरण की रात्रि के रूप में मनाया जाता रहा है. जहां दीपावली प्रकाश और समृद्धि पर केंद्रित है, वहीं भूत चतुर्दशी पूर्वजों के सम्मान और जीवितों को नकारात्मक शक्तियों से बचाने के संतुलन को रेखांकित करती है
क्यों जलाते हैं चौदह दीपक: भूत चतुर्दशी पर परिवार चौदह दीपक (मिट्टी के प्रदीप) जलाते हैं और इन्हें घर के चारों ओर विशेषकर अंधेरी कोनों और द्वारों पर सजाते हैं. प्रत्येक दीपक एक पीढ़ी के पूर्वजों का प्रतीक होता है, जो उन्हें घर में आमंत्रित करता है तथा अनचाहे भूतों से रक्षा करता है. ये दीपक एक गर्मजोशी भरी सुरक्षित परिधि रचते हैं, जो प्रकाश के अंधकार पर विजय और शांति के अराजकता पर प्रभुत्व का प्रतीक हैं.
एक अन्य अनूठी परंपरा है कि इस दिन चौदह प्रकार की पत्तेदार सब्जियां खाना भी आज की दिनचर्या में शामिल है. जिसे 'चौदह शाक' कहा जाता है. इस रिवाज में प्रतीकात्मक और औषधीय महत्व दोनों हैं. मान्यता है कि यह शरीर की अशुद्धियों को शुद्ध करता है।
14 प्रकार के शाक खाने की परंपरा: बंगालियों के घर-घर में भूत चतुर्दशी में मुख्य रूप से दो नियमों का पालन किया जाता है. मान्यता है कि भूत चतुर्दशी का दिन 14 पूर्वजों के लिए समर्पित होता है। इस विशेष दिन पूर्वज पृथ्वी पर आते हैं. प्रचलित धारणा के अनुसार, ये 14 पूर्वज जल, मिट्टी, हवा और अग्नि के साथ मिले हुए हैं और इसी कारण मुख्य रूप से मिट्टी में जन्मे 14 विशेष शाक खाकर भूत चतुर्दशी के दिन 14 पूर्वजों को समर्पित किया जाता है। इसे ऐसे भी देखा जाता है कि चौदह भुवनों की अधिष्ठात्री देवी को चौदह शाक समर्पित किए जाते हैं और दीपक जलाकर उनकी पूजा की जाती है. इन चौदह शाकों में शामिल है. ओल, केओ, बेटो, सरसों, कालकासुंदे, जयंती, नीम, हेलांचा या हिंचे, शांचे या शालिंचा, गुलांच, पलता या पटुक पत्र, भांतपाता, शुल्फा और शुष्णी.
ये सभी शाक या साग ऋतु परिवर्तन के लिए शरीर को आंतरिक तौर पर मजबूत बनाते हैं और शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाते हैं।बंगाल में कोलकाता में जलती चिता के बीच काली पूजा की जाती है. कोलकाता में 155 सालों से अनोखी परंपरा चली आ रही है। कोलकाता महाश्मशान में काली मां की ऐसी मूर्ति ऐसी है, जिसमें उनकी जीभ मुंह के अंदर है। अभी तक हमने मां काली की बाहर निकली जीभ वाली तस्वीरें ही दिखी हैं। यहां पंडाल में चिता रखी जाती है। दिवाली के दिन कोलकाता में बड़े श्मशान केवड़ा तला में इसका आयोजन होना है। यहां कालीघाट मंदिर के पास श्मशान में 24 घंटे चिताएं जला करती हैं।
डोम संप्रदाय के लोग महाश्मशान में इस आयोजन की पूरी जिम्मेदारी संभालते हैं। श्मशान में कोई चिता नहीं आने तक देवी काली को भोग नहीं चढ़ाते। काली मां की मूर्तियों में 8 से 12 हाथ होते हैं, लेकिन यहां काली पूजा की मूर्ति में सिर्फ दो हाथ ही रहते हैं। जलती चिताओं के बीच ही यहां सबसे बड़ी पूजा होती है और इसकी शुरुआत 1870 में कपाली ने की थी। यहां चीनी समुदाय के लोग भी काली मां की पूजा करते हैं। मंदिर में नारायण शिला के कारण चढ़ने वाला भोग पूरी तरह शाकाहारी होता है। वैसे कोलकाता समेत बंगाल की काली पूजा में मांस का भोग चढ़ाने की परंपरा है।सिक्किम - दार्जिलिंग में कौवे-कुत्ते और गाय-बैल की पूजा:
सिक्किम और दार्जिलिंग में दीपावली के अवसर पर कौवे, कुत्ते, गाय और बैल की पूजा होती है. पांच दिनों तक चलने वाले इस उत्सव को तिहार नाम से माना जाता है. नेपाल के गोरखा समुदाय के लोग खास तौर पर ये त्योहार मनाते हैं। यह मृत्यु के देवता यम और उनकी बहन यमुना से जुड़ा त्योहार है। तिहार में पूर्वजों, पशु और देवता को याद कर उन्हें सम्मान दिया जाता है. नेपाल में भी पूरे धूमधाम से कुत्ते की पूजा इस त्योहार पर होती है। ( बंगाल से अशोक झा की कलम से )
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