- केंद्र ने डाली ऐसी गुगली राज्य सरकार और गोरखा विरोधी होंगे बेनकाब
केंद्र की मोदी सरकार ने हिल्स, तराई और डुआर्स की समस्या का स्थाई समाधान करने के लिए वार्ताकार नियुक्ति किया है। राज्य सरकार ने अपना रंग दिखाना शुरू किया है। अब देखना है कि सत्ता सुख भोग रहे गोरखा का हितैषी बताने वाले नेता क्या निर्णय लेते है। यह कहना है दार्जिलिंग के सांसद राजू विष्ट का। उन्होंने कहा कि कल तक हर मौके पर मुझे गाली देने वाले अब चुप है। उन्हें डर है कि समाधान निकल आया तो उनके हाथ से विकास के नाम पर भ्रष्टाचार की कुंजी खो जाएगी। इसलिए सीएम ममता के बयान की शांत पहाड़ अशांत हो जाएगा का विरोध भी नहीं कर रहे है।
केंद्र की भाजपा नेतृत्व वाली सरकार ने गोरखा समुदाय के प्रतिनिधियों से संवाद शुरू करने के लिए पूर्व उप राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (NSA) पंकज कुमार सिंह को वार्ताकार नियुक्त किया है। दशकों पुराने गोरखालैंड राज्य की मांग को लेकर यह केंद्र सरकार की एक नई कोशिश मानी जा रही है।
गृह मंत्रालय की घोषणा
गृह मंत्रालय द्वारा की गई इस नियुक्ति को उत्तर बंगाल की राजनीतिक स्थिति में बदलाव लाने की दिशा में एक ताज़ा पहल के रूप में देखा जा रहा है। यह नियुक्ति ऐसे समय हुई है, जब पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव 2026 की तैयारियां शुरू हो चुकी हैं। बता दें कि 3 अप्रैल को केंद्र और गोरखा प्रतिनिधियों के बीच तीन साल बाद औपचारिक वार्ता शुरू हुई थी, जिसमें गोरखालैंड की मांग और 11 उप-गोरखा जातियों को अनुसूचित जनजाति (ST) का दर्जा देने की मांग दोहराई गई थी।कौन हैं पंकज कुमार सिंह?: पंकज कुमार सिंह 1988 बैच के राजस्थान कैडर के आईपीएस अधिकारी रहे हैं। वह अगस्त 2021 से दिसंबर 2022 तक बीएसएफ (BSF) के महानिदेशक रहे और इसके बाद जनवरी 2023 में डिप्टी एनएसए नियुक्त किए गए थे। जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर जैसे संवेदनशील क्षेत्रों में काम कर चुके सिंह को संवेदनशील वार्ताओं और जटिल मुद्दों को संभालने का अनुभव है। एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी ने इस नियुक्ति को "मास्टरस्ट्रोक" बताते हुए कहा कि सिंह की "बेदाग छवि और कुशल बातचीत क्षमता" उन्हें इस जिम्मेदारी के लिए उपयुक्त बनाती है।
गोरखालैंड मुद्दा: एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
1980 के दशक से गोरखालैंड आंदोलन ने दार्जिलिंग, तराई और डुआर्स की राजनीति को प्रभावित किया है। भाजपा, जिसने 2019 लोकसभा चुनाव में "स्थायी राजनीतिक समाधान" का वादा किया था, ने 2024 के घोषणा पत्र में इस वादे का जिक्र नहीं किया, जिससे उसकी मंशा पर सवाल उठे थे। गौरतलब है कि पिछली बार यूपीए सरकार ने 2009 में लेफ्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त) विजय मदान को वार्ताकार नियुक्त किया था, जिन्होंने 2011 में इस्तीफा दे दिया था।
राजनीतिक प्रतिक्रियाएं
वार्ताकार की नियुक्ति पर मिश्रित राजनीतिक प्रतिक्रियाएं आई हैं। तृणमूल कांग्रेस (TMC), जो बंगाल के विभाजन का विरोध करती है, ने इस कदम को चुनावी स्टंट बताया। TMC के दार्जिलिंग जिला अध्यक्ष एलबी राय ने इसे "राजनीतिक दिखावा" करार दिया। वहीं दूसरी ओर गोरखा नेताओं और दलों ने इस पहल का स्वागत किया है। बीजेपी सांसद राजू बिस्ता ने इसे "ऐतिहासिक उपलब्धि" बताते हुए कहा कि यह संवाद बिना किसी रक्तपात, अशांति या जान-माल की हानि के इस स्तर तक पहुंचा है। उन्होंने कहा कि यह दार्जिलिंग, तराई और डुआर्स के लोगों की जीत है।गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (GJM) के अध्यक्ष बिमल गुरंग और महासचिव रोशन गिरी ने प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह का धन्यवाद किया और इसे एक "सकारात्मक कदम" बताया। उन्होंने कहा कि संविधान के तहत स्थायी समाधान गोरखा समुदाय के अधिकारों और पूरे क्षेत्र के विकास के लिए जरूरी है। वहीं, गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (GNLF) ने इसे “ऐतिहासिक कदम” करार देते हुए कहा कि इससे समावेशी और संवादात्मक प्रक्रिया की शुरुआत होगी। यह स्पष्ट नहीं है कि पश्चिम बंगाल सरकार को इस नियुक्ति से पहले सूचित किया गया था या नहीं। राज्य सरकार के किसी अधिकारी ने इसकी पुष्टि नहीं की है। अब तक केंद्र सरकार ने इस मुद्दे पर सचिव या संयुक्त सचिव स्तर के अधिकारियों के माध्यम से वार्ता की थी, लेकिन पहली बार किसी पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को नियुक्त किया गया है — जो इस मसले को राजनीतिक, रणनीतिक और सुरक्षा दृष्टि से गंभीरता से लेने का संकेत देता है।अजय एडवर्ड्स,मुख्य समन्वयक
भारतीय गोरखा जनशक्ति मोर्चा ने कहा कि राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने पहाड़ी, तराई, दोवार और गोरखाओं की दीर्घकालिक समस्याओं के समाधान के लिए नियुक्त किए गए वार्ताकार की नियुक्ति का विरोध किया है। इस तरह के विरोध के कारण ही राज्य सरकार ने यह निर्णय लिया है। यह स्पष्ट हो गया है कि डुआर्स और गोरखाओं के प्रति सरकार का रवैया क्या है। राज्य सरकार ने 2011 में गठित गोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासन के दस्तावेज़ में हुए समझौते का पालन नहीं किया है। जब भी पहाड़ी, तराई, डुआर्स और गोरखाओं की समस्याओं के समाधान का संकेत मिलता है, राज्य सरकार ऐसे काम करती है जो पहाड़ी, तराई, डुआर्स और गोरखाओं के प्रति उसकी संवेदना दर्शाते हैं। अगर राज्य सरकार गोरखाओं के प्रति सचमुच ईमानदार है, तो उसे दीर्घकालिक समस्या के समाधान के लिए राजनीतिक समाधान की प्रक्रिया का समर्थन करना चाहिए।आईजीजेएफ सभी राजनीतिक दलों, संघों और संगठनों से अलग राज्य के गठन के लिए एकजुट होने का आह्वान करता है। बंगाल : क्या है गोरखालैंड, जिसके लिए 1200 से भी ज्यादा लोगों ने दी कुर्बानी
गोरखालैंड आंदोलन का मुख्य एजेंडा पश्चिम बंगाल में नेपाली लोगों की भाषा, संस्कृति औरगोरखालैंड का प्रस्तावित क्षेत्र
गोरखालैंड पश्चिम बंगाल की राजनीति की एक अनसुलझी पहेली है। इसका निवारण ना देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू कर पाए, ना सबसे लंबे समय तक राज्य के मुख्यमंत्री रहे ज्योति बसु, ना आज की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और ना ही युग पुरुष माने जाने वाले भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. गोरखालैंड बंगाल से अलग एक नए राज्य का प्रस्तावित नाम है, जिसके हिस्से में दार्जिलिंग, कलिम्पोंग और कुर्सियांग और कुछ अन्य ज़िले हैं. गोरखालैंड आंदोलन का मुख्य एजेंडा पश्चिम बंगाल में नेपाली लोगों की भाषा, संस्कृति और पहचान का संरक्षण करने के साथ ही इलाके के विकास है. इस आंदोलन का समर्थन करने वाले मानते हैं कि अलग राज्य गोरखालैंड बनने से गोरखा लोगों को “बाहरी” या “विदेशी” नहीं कहा जाएगा. उनकी अपनी अस्मिता और पहचान होगी. इसके अलावा ग़रीबी, विकास और राज्य सरकार का पक्षपाती रवैया भी अहम मुद्दे हैं. वैसे तो गोरखालैंड का मुद्दा आज़ादी से कई सालों पहले का है. तो आइए इसे विस्तार से समझते हैं. आज़ादी से पहले का बंगाल ब्रिटिश राज में बंगाल का पहला विभाजन 1905 में हुए था. उस दौर में ही गोरखा लोगों में अलग राज्य को लेकर चर्चाएं शुरू हो गईं थीं. लेकिन आधिकारिक तौर पर अगर बात करें तो साल 1907 में गोरखा लोगों के लिए अलग राज्य की मांग को लेकर मॉर्ले-मिंटो सुधार पैनल को ज्ञापन सौंपा गया था. ज्ञापन सौंपने वाले समूह का नाम था हिलमेन एसोसिएशन. इसके बाद भी कई मौकों पर गोरखा लोगों ने ब्रिटिश सरकार के सामने अपनी मांग रखी थी. साल 1943 में ऑल इंडिया गोरखा लीग (AIGL) का गठन हुआ. हालांकि तब सिर्फ़ अलग राज्य की मांग थी. गोरखालैंड शब्द का इस्तेमाल नहीं किया गया था. आज़ादी के बाद का आंदोलन इसके बाद साल 1947 के अगस्त महीने में दार्जिलिंग में एक आम सभा बुलाई गई. ये सभा मुख्य रूप से दार्जिलिंग में रहने वाले और अलग-अलग भाषा बोलने वाले नेताओं ने बुलाई थी. यहां से मांगों को लेकर चर्चा आगे बढ़ी और साल 1952 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को AIGL ने ज्ञापन सौंपा. जिसमें 1907 की मांगों का विस्तार करते हुए उन्होंने तीन वैकल्पिक प्रस्ताव दिए गए. जो इस प्रकार थे। केंद्र सरकार के तहत जिले के लिए केंद्र शासित प्रदेश जैसी विभिन्न प्रशासनिक इकाई. • एक नया राज्य जिसमें दार्जिलिंग और आसपास के क्षेत्र शामिल हों। दार्जिलिंग और जलपाईगुड़ी के एक हिस्सा यानी की डुआर्स को असम के साथ जोड़ दिया जाए।भारत के नेपाली प्रवासियों पर माइकल हट्ट की एक किताब के मुताबिक़, 1951 की जनगणना में तत्कालीन जिला जनगणना अधिकारी ए.मित्रा ने बताया था कि केवल 19.96% नेपाली भाषी जनसंख्या दार्जिलिंग जिले में थी. हालांकि, ये आंकड़ा नेपाली भाषी लोगों की वास्तविक आबादी से बहुत कम था. माइकल के मुताबिक़ नेपाली भाषी आबादी उस वक़्त 66% थी. इसलिए ऐसा माना जाता है कि साल 1951 की जनगणना में गलत आंकड़ों की वजह से आज़ादी के बाद भारत सरकार ने नेपाली भाषा को भारत की राष्ट्रीय भाषाओं शामिल नहीं किया। गोरखालैंड का प्रस्तावित क्षेत्र: साल 1955 में अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी यानी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया के नेता ज्योति बसु ने नेपाली को आधिकारिक भाषा का दर्ज़ा देने की मांग बंगाल में सदन के अंदर उठाई. उसके क़रीब 6 साल के बाद साल 1961 में, पश्चिम बंगाल सरकार ने नेपाली को एक आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता दी।1973 में बंगाल में कांग्रेस का शासन था. कम्युनिस्ट पार्टी का बंटवारा हो चुका था. कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (मार्क्सवादी) यानी CPM ने बंगाल में मज़बूत पकड़ बना ली थी. CPM और गोरखा लीग ने मिलकर एक “स्वायत्त जिला परिषद” की मांग की और 'कार्यक्रम और स्वायत्तता की मांग' नाम का एक दस्तावेज भी तैयार किया. तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे ने दार्जिलिंग के लिए एक ‘पहाड़ी विकास परिषद’ का गठन किया. पहली बार आंदोलन के क़रीब 70 साल बाद बंगाल में हिल्स के लिए आधिकारिक रूप से अलग प्रशासनिक ढांचे को मान्यता दी गई. लेकिन इसके बावजूद इससे लोगों की आकांक्षाओं को पूरा करने में ये परिषद विफल रही. सीपीएम के 34 साल और गोरखालैंड का आंदोलन साल 1977 में वाम मोर्चा के सत्ता में आने के बाद भी हिल काउंसिल की पुरानी व्यवस्था बरकरार रही. अब इस बात से लोग बेचैन होने लगे. तब कुछ लोगों ने एक नया संगठन 'प्रांत परिषद ' बनाया. इस संगठन ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से अलग राज्य की मांग की. इस पूरे दौर में इलाक़े में कई आंदोलन हुए. तब एक अन्य संगठन अखिल भारतीय नेपाली भाषा समिति ने एक और आंदोलन की शुरुआत की, जिसमें भारतीय संविधान में नेपाली को आधिकारिक भाषा के रूप में शामिल करने की मांग की गई, और इसी वक़्त सुभाष घीसिंग (Subhash Ghisingh) के नेतृत्व में 1980 में गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (GNLF) का गठन हुआ. सुभाष घीसिंग ने ही गोरखालैंड शब्द का पहली बार इस्तेमाल किया. 7 सितंबर 1981 को पुलिस ने दार्जिलिंग चौकबाजार में आंदोलनकारियों पर गोलियां चलाईं. इस दौर में प्रांत परिषद को बहुत ज़्यादा दमन का सामना करना पद रहा था. प्रांत परिषद द्वारा शुरू किए गए अलग राज्य की मांग और आंदोलन पर 1986 तक GNLF ने क़ब्ज़ा जमा लिया था. 1986 से 1988 तक सीपीएम और GNLF के कार्यकर्ताओं के बीच हिंसक झड़पें हुईं. 27 महीनों तक चली हिंसा में 1200 से भी ज़्यादा लोग मारे गाए और 60 करोड़ से भी ज़्यादा सम्पत्ति का नुक़सान हुआ। 2017 में हुए हालिया गोरखालैंड विरोध के कारण : 2017 में इस क्षेत्र में कई विरोध प्रदर्शन हुए, जिसके परिणामस्वरूप हिंसा हुई और कई लोगों की जान चली गई। विरोध प्रदर्शन 104 दिनों तक जारी रहा।राज्य सरकार द्वारा कक्षा 1 से 9 तक स्कूलों में बंगाली भाषा के प्रयोग को अनिवार्य करने के निर्णय से क्षेत्र में हिंसक विरोध प्रदर्शन भड़क उठे। राज्य सरकार की ओर से विरोध प्रदर्शनों पर कठोर प्रतिक्रिया के कारण प्रदर्शनकारियों की मौत हो गई, जिससे आंदोलन और भड़क गया। गोरखालैंड आंदोलन समन्वय समिति (जीएमसीसी) ने पश्चिम बंगाल सरकार की कार्रवाई को दार्जिलिंग पर राजनीतिक नियंत्रण स्थापित करने के प्रयास के रूप में देखा। आवश्यक आपूर्ति और चिकित्सा संसाधनों की कमी के लिए पश्चिम बंगाल राज्य सरकार को जिम्मेदार ठहराया गया।गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (जीजेएम) द्वारा जून में शुरू की गई। अनिश्चितकालीन हड़ताल अंततः सितंबर में 104 दिनों से अधिक समय के बाद समाप्त कर दी गई।पहाड़ के लोग लगातार भाजपा के साथ है और वह उनके साथ ही रहेंगे। ( अशोक झा की रिपोर्ट )
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