भारत ने शनिवार को नेपाल में पूर्व मुख्य न्यायाधीश सुशीला कार्की के नेतृत्व में बने नई अंतरिम सरकार के गठन का स्वागत किया। सुशीला कार्की को शुक्रवार देर रात नेपाल की पहली महिला प्रधानमंत्री के रूप में शपथ दिलाई गई।नेपाल की राजनीति एक बार फिर करवट ले चुकी है. लंबे समय से विरोध प्रदर्शनों का सामना कर रही ओली सरकार को आखिरकार सत्ता छोड़नी पड़ी और अब नेपाल की पहली महिला सुप्रीम कोर्ट चीफ जस्टिस रह चुकीं सुशीला कार्की ने देश की कमान अपने हाथ में ले ली है।73 वर्षीय सुशीला कार्की का अंतरिम प्रधानमंत्री बनना सिर्फ नेपाल के लिए ही नहीं, बल्कि भारत के लिए भी एक सकारात्मक संकेत माना जा रहा है. वजह उनका भारत से गहरा जुड़ाव और पड़ोसी देश के साथ रिश्तों को लेकर उनका क्लियर विजन है।
सुशीला कार्की कौन हैं?: सुशीला कार्की नेपाल की सीनियर नेता और पूर्व चीफ जस्टिस रह चुकी हैं. 2016 में उन्होंने भ्रष्टाचार विरोधी कड़े फैसलों से नेपाल की राजनीति और प्रशासन दोनों को हिला कर रख दिया था. न्यायिक स्वतंत्रता की मिसाल पेश करते हुए वे युवाओं के बीच 'ईमानदार चेहरा' बनकर उभरीं. दिलचस्प बात यह है कि उनका भारत से भी सीधा संबंध रहा है. बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी (BHU) से उन्होंने पॉलिटिकल साइंस में पोस्ट-ग्रेजुएशन किया और भारत के संस्कारों व जीवनशैली को करीब से जिया।भारत से है खास नाता: हाल ही में दिए गए एक बयान में सुशीला कार्की ने BHU के दिनों को याद करते हुए कहा कि उन्हें गंगा किनारे के हॉस्टल और वहां बिताई गर्मी की रातें आज भी याद हैं. उन्होंने साफ कहा कि भारत और नेपाल के लोगों के बीच बहुत गहरा भावनात्मक रिश्ता है. यही वजह है कि उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद दोनों देशों के बीच रिश्ते और भी मजबूत होने की उम्मीद जताई जा रही है।
भारत-नेपाल संबंधों के लिए शुभ संकेत: विशेषज्ञ मानते हैं कि सुशीला कार्की का भारत के प्रति सकारात्मक नजरिया आने वाले समय में नेपाल-भारत रिश्तों को नई दिशा देगा. जिस तरह बांग्लादेश में शेख हसीना के जाने के बाद भारत के लिए हालात बिगड़े, वैसे नेपाल में होने की संभावना बहुत कम है. कार्की खुद को भारत के नजदीक मानती हैं और उनका मानना है कि नेपाल और भारत के बीच भाई-बहन जैसा रिश्ता है, जिसे और मजबूत करने की जरूरत है।
ओली की भारत विरोधी राजनीति का अंत: पूर्व प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने अपने कार्यकाल में भारत विरोधी रुख अपनाया और चीन की तरफ झुकाव दिखाया. लिपुलेख और कालापानी जैसे मुद्दों को उछालकर उन्होंने रिश्तों में खटास पैदा की. लेकिन अब हालात बदलने की उम्मीद है. सुशीला कार्की के नेतृत्व में भारत और नेपाल के बीच संवाद की नई शुरुआत हो सकती है. भारत और नेपाल न सिर्फ 1750 किलोमीटर लंबी खुली सीमा साझा करते हैं बल्कि धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक रिश्तों से भी गहराई से जुड़े हुए हैं। Gen Z का गुस्सा क्यों फूटा इस बार?: 2025 में नेपाल की सड़कों पर जो नौजवान दिख रहे हैं, वे इंटरनेट और सोशल मीडिया की पीढ़ी हैं. बेरोजगारी 20% के पार, लाखों युवा विदेशों में नौकरी की तलाश में, और देश में भ्रष्टाचार चरम पर. ऐसे में सरकार ने जब सोशल मीडिया बैन किया, तो युवाओं ने VPN और Discord के ज़रिए अपना विरोध तेज कर दिया। प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली के इस्तीफे के बाद भी प्रदर्शन नहीं रुके. क्योंकि नेपाल के पुराने नेताओं ने हर आंदोलन के बाद नई व्यवस्था का वादा किया, लेकिन सत्ता में आते ही वही परिवारवाद, भ्रष्टाचार, और जनता से दूरी रही.
माओवादी नेता पुष्प कमल दहल प्रचंड ने 2006 में कहा था, आम जनता ही असली ताकत है, हम उनका विश्वास नहीं तोड़ेंगे. लेकिन आज उन्हीं की पार्टी पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं। पूर्व प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा का बयान है- युवा हमारी रीढ़ हैं, लेकिन व्यवस्था में बदलाव समय लेता है। Gen Z का जवाब- ‘हम इंतजार नहीं कर सकते: हर क्रांति के बाद सत्ता पुराने चेहरों के पास लौट जाती है। संविधान बदलता है, लेकिन सिस्टम नहीं. राजनीतिक विश्लेषक रोमन गौतम लिखते हैं- नेपाल में हर बदलाव की शुरुआत सड़कों से होती है, लेकिन खत्म बंद कमरों में सौदेबाजी पर होती है. 2015 के संविधान के बाद भी मधेसी और जनजातीय समुदाय खुद को अलग-थलग महसूस करते रहे. 2025 के आंदोलन में भी युवाओं की मुख्य मांग- जवाबदेही, पारदर्शिता, और रोजगार- अभी भी अधूरी है।आर्थिक और सामाजिक वजहें:
नेपाल की अर्थव्यवस्था का 25% हिस्सा रेमिटेंस से आता है यानि विदेशों में काम कर रहे युवाओं से. देश में निवेश की कमी, शिक्षा व्यवस्था कमजोर, और सरकारी नौकरियों में पारदर्शिता नहीं है। युवाओं का कहना है- हमें विदेश नहीं जाना है, हमें अपने देश में भविष्य चाहिए। क्या इस बार कुछ बदलेगा?प्रदर्शनकारी युवाओं की नई रणनीति- सोशल मीडिया, डिजिटल कैम्पेन, और इंटरनेशनल मीडिया तक अपनी आवाज पहुंचाना है. लेकिन पुरानी पार्टियां फिर से डायलॉग, समझौते और वादों की राह पर हैं। राजनीतिक विशेषज्ञों की चेतावनी है- अगर युवाओं की मांगें नहीं मानी गईं, तो नेपाल एक और खोया हुआ दशक देख सकता है। ( नेपाल बोर्डर से अशोक झा )
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