समोसा का संदर्भ सन् 1548 ई. में भी प्राप्त होता है। क्षेमकुतूहलम् नामक प्राचीन पुस्तक जो मूलरूप से संस्कृत में लिखी गई है और आहार-विहार की मानक पुस्तक है, उसमें पढ़ने को मिलता है।
समोसा का नाम आते ही मुँह में पानी आ जाता है। मेरे मुहल्ले भदैनी में तुलसीदास की एक दुकान हुआ करती थी जहाँ सुबह स्वादिष्ट जलेबी और कचौड़ी मिला करती थी और शाम तीन बजे से समोसा। करीब एक किमी. की दूरी पर इन्हीं की दुकान थी जहाँ समोसा छनते ही बिक जाया करती थी। साथ में कोई चटनी वगैरह कुछ भी नहीं। जानते हैं कितने का मिलता था? मात्र एक आना (छः पैसा)। वह स्वाद आज भी तरोताजा है। आगे कई दुकानें खुल गईं। बीएचयू पहुचा तो साइंस कालेज के साइकिल स्टैंड के एक सिरे पर स्थित गुपुतनाथ की कैंटीन का समोसा 15 पैसे में मिलता था। अब नये लोगों के लिए वीटी पर बिहारी का समोसा मिल रहा है। खैर! कई बार समोसा बनाने की विधि को ध्यान से देखा गया। आज भी वही पुरानी विधि चली आ रही है। देखिए निर्माण विधि का मूल श्लोक और उसका हिन्दी -
मण्डकस्य कृता पूरणेन प्रपूरिता।
वेष्ट्या शृङ्गाटकाकारं सन्धिं लिम्पेत्कनिष्ठया।।
घृते भृष्टा समोसेति नाम्ना चष्टे हि सूपकैः ।
सुरच्या वातजिब्दल्या वृष्या पित्तापहा गुरुः॥
(संदर्भ: क्षेमकुतूहलम्, अ.६, पेज ९५, श्लोक १३१-१३२)
हिन्दी में देखिए-
समोसा बनाने की विधि तथा गुण-
गेहूँ के मैदा को सानकर उसकी पट्टी बनाकर, उसमें पूरण भरकर सिंघाड़ा के आकार का बनाकर कनिष्ठिका अगुली से संधि को अच्छी तरह बन्द कर ले और घृत में पका ले। इसको सूपक (पाचक) समोसा कहते हैं। समोसा रुचिकर, वात को जीतने वाला, बलकारक, वीर्यवर्द्धक, पित्तनाशक तथा गरिष्ठ होता है।।
(बनारस से दयाशंकर त्रिपाठी की कलम से)
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