- जीवन का दर्शन “आपसी सम्मान, धार्मिक सहिष्णुता और साझी संस्कृति” पर आधारित
- 11वीं से 18वीं शताब्दी तक भारत में फैली सूफी परंपरा ने इस्लाम के आध्यात्मिक, प्रेमपूर्ण और समावेशी स्वरूप को जनमानस में प्रस्थापित किया
भारत की आत्मा विविधता में बसती है, और इस विविधता को अपने जीवन में सबसे गहराई से अपनाने वाले समुदायों में से एक हैं। भारतीय मुसलमान। इतिहास गवाह है कि भारत के मुसलमानों ने हमेशा कट्टरपंथ का विरोध किया है और धर्म के नाम पर हिंसा व नफरत फैलाने वालों से खुद को अलग रखा है। उनके जीवन का दर्शन “आपसी सम्मान, धार्मिक सहिष्णुता और साझी संस्कृति” पर आधारित रहा है। इतिहास की गवाही: सूफी परंपरा और गंगा-जमुनी तहज़ीब: 11वीं से 18वीं शताब्दी तक भारत में फैली सूफी परंपरा ने इस्लाम के आध्यात्मिक, प्रेमपूर्ण और समावेशी स्वरूप को जनमानस में प्रस्थापित किया। ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती (अजमेर) ने फरमाया
“मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना” और उनके दरबार में हिंदू-मुस्लिम दोनों श्रद्धा से झुकते हैं। हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया और उनके शिष्य अमीर खुसरो ने हिंदवी भाषा को बढ़ावा दिया, जिसने आज के हिंदी-उर्दू के मेल का रूप लिया। उनकी कविताओं और कव्वालियों में “इश्क-ए-हकीकी” (ईश्वर से प्रेम) और मानवता का संदेश मिलता है।
1857 की क्रांति: धर्म नहीं, देश पहले: 1857 की आज़ादी की पहली लड़ाई में हिंदू-मुस्लिम एकता एक ऐतिहासिक उदाहरण है। मौलवी अहमदुल्लाह शाह, बहादुर शाह ज़फ़र, तांत्या टोपे और नाना साहब जैसे नेताओं ने मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोला। किसी ने इस्लाम या हिंदुत्व के नाम पर नहीं, बल्कि भारत माता की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया।
गांधी युग और खिलाफत आंदोलन: 20 वीं शताब्दी की शुरुआत में जब महात्मा गांधी ने खिलाफत आंदोलन का समर्थन किया, तो अली बंधुओं (शौकत अली और मोहम्मद अली) ने भी हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए संघर्ष किया।
उनका यह विश्वास था कि धर्म निजी है, लेकिन देश साझा है।
भारतीय मुसलमान और आतंकवाद के विरुद्ध मोर्चा
2008 में जब 26/11 का मुंबई आतंकी हमला हुआ, तो देश के मुसलमानों ने एक स्वर में इसकी निंदा की।
देवबंद मदरसे, जो विश्व का प्रमुख इस्लामी शिक्षण संस्थान है, ने 2008 में आतंकवाद के खिलाफ एक ऐतिहासिक फतवा जारी किया और कहा। “आतंकवाद इस्लाम के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध है।”इसी तरह जमीयत उलेमा-ए-हिंद और दारुल उलूम नदवातुल उलमा जैसे संस्थानों ने भी युवाओं को उग्रवाद से दूर रहने का आह्वान किया।मुस्लिम युवाओं द्वारा आईएसआईएस और अन्य कट्टर संगठनों को सोशल मीडिया पर अस्वीकार करने के लिए कैंपेन चलाया गया।सांस्कृतिक समरसता: खाना, भाषा, त्योहार: भारतीय मुसलमानों की संस्कृति में हलाल कबाब के साथ छोले-भटूरे, ईद की सेवइयां और दीवाली के लड्डू, और उर्दू की शायरी में संस्कृतनिष्ठ शब्दों का प्रयोग — यह सब मिलकर उस गंगा-जमुनी तहज़ीब को दर्शाता है जो केवल भारत में पनपी है।आज का सच: शांति और संविधान के साथ खड़ा मुस्लिम समाज: आज भी भारतीय मुसलमानों की एक बड़ी आबादी शिक्षा, चिकित्सा, समाजसेवा और देशभक्ति में जुटी है। डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम जैसे वैज्ञानिक, अशफ़ाक उल्ला खान जैसे क्रांतिकारी, और मौलाना अबुल कलाम आज़ाद जैसे शिक्षाविद् — इन सबने यह साबित किया कि इस्लाम और भारतीयता में कोई टकराव नहीं, बल्कि गहरा समन्वय है। उम्मीद का संदेश: भारत के मुसलमान न केवल अपने धर्म के प्रति प्रतिबद्ध हैं, बल्कि अपने संविधान और राष्ट्र के प्रति भी पूरी तरह समर्पित हैं। वे आतंकवाद के शत्रु हैं और बहुलतावाद के रक्षक। वे चाहते हैं कि आने वाली पीढ़ियाँ ज्ञान, संस्कृति, सह-अस्तित्व और विकास के रास्ते पर आगे बढ़ें। कट्टरता की आग को बुझाने के लिए सबसे पहले जो दीया जलाते हैं, वे भारत के मुसलमान हैं।भारत में राजनीतिक विमर्श अक्सर ध्रुवीकरणकारी द्विआधारी विचारधाराओं से घिरा रहता है, एक शांत सांस्कृतिक क्रांति सामने आ रही है। मुस्लिम रचनाकारो,फिल्म निर्माता, लेखक, हास्य कलाकार, सोशल मीडिया प्रभावशाली व्यक्ति और डिजिटल उद्यमी की एक नई लहर मुसलमानों की धारणा और प्रतिनिधित्व को नया रूप दे रही है। उनका काम पहचान की राजनीति से परे है और भारतीय बहुलवाद के मर्म को छूता है। मुख्यधारा की मान्यता के लिए प्रदर्शन करने या चुप्पी साधने के बजाय, वे अपनी कहानियों को भारतीय आख्यान का अभिन्न अंग बता रहे हैं। ऐतिहासिक रूप से। भारतीय पॉप संस्कृति और मीडिया ने मुसलमानों को संकीर्ण नज़रिए से या तो विदेशी प्रतीकों के रूप में या हाशिए पर धकेले गए लोगों के रूप में चित्रित किया है। ( अशोक झा की कलम से )
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