यमन में भारतीय नर्स निमिषा प्रिया को फांसी दिए जाने की चर्चा लगातार हेडलाइन बनी हुई थी। भारतीय नर्स निमिषा प्रिया की मौत की सज़ा फिलहाल टल गई है। उन्हें यमन में आज ही यानी 16 जुलाई को सज़ा सुनाई जानी थी, लेकिन उनके गृह राज्य केरल के ग्रैंड मुफ़्ती शेख अबू बकर मुसलियार के हस्तक्षेप के कारण इसे टाल दिया गया है।
जिसके बाद शेख उमर ने अपने लोगों को तत्काल परिवार से बात करने के लिए भेजा. कई दौर की जब बातचीत हुई, तब जाकर तलाल का परिवार फिलहाल मौत की सजा टालने के लिए राजी हो गया है। ऐसे में चलिए यह जानें कि इस्लाम में गुनहगार को माफ करना कितना नेक काम है।
क्या निमिषा प्रिया को माफ करेगा तलाल महदी का परिवार?: निमिषा प्रिया की माफी को लेकर जब तलाल महदी के भाई अब्देल फतेह महदी ने बताया है कि उनके भाई तलाल पर निमिषा के शोषण की बात सिर्फ एक अफवाह मात्र थी। उन्होंने साफ तौर पर कहा है कि जो बात सच है, उसे झूठ बताने की कोशिश की जा रही है और जो हत्या का दोषी है उसको पीड़ित बताया जा रहा है। एक अपराधी को जस्टिफाई करने की कोशिश हो रही है। निमिषा प्रिया को माफी देने के बारे में उनका कहना है कि 'हम चाहते हैं कि इस मामले में खुदा का कानून किया जाए, इससे कम में हम नहीं मानने वाले हैं और उनको माफी देने के मसले पर हमारी राय साफ है
इस्लाम में माफी कितना नेक काम
वहीं किसी भी गुनहगार को माफी देने पर इस्लाम क्या कहता है, जब इस बारे में एबीपी न्यूज ने मौलाना एजाज कासमी से बात की तो उनका कहना था कि 'इस्लाम में गुनहगार को माफ कर देना बहुत बड़ी बात होती है। हां यह बात सही है कि अगर किसी ने कोई गुनाह किया है तो उसे सजा देना तो ठीक बात है, लेकिन अगर माफ कर दे रहे हैं, तो यह बहुत बड़ा और नेक काम है।इस्लाम को मानने वाले लोग 72 फिकरों में बंटे हैं। जिनमें एक बोहरा मुस्लिम भी हैं। दाऊदी बोहरा की मान्यताएं शियाओं के करीब होती हैं। बोहरा मुस्लिम खासतौर पर गुजरात और महाराष्ट्र में होते हैं जो कि 21 इमामों को मानते हैं। दुनिया में एक समाज ऐसा भी है, जो केवल स्वयं की नहीं, अपने समाज के हर बच्चे से लेकर बूढ़ों तक के भोजन की व्यवस्था करता है। इसलिए दुनिया में 12 लाख की आबादी वाले इस दाउदी बोहरा समाज हर रोज एक समय का भोजन सामूहिक करता है। इस सामूहिक भोजन की व्यवस्था समाज स्तर पर की जाती है। पहले साथ बैठकर खाना खाया जाता था, लेकिन अब टिफिन की व्यवस्था कर दी गई है। एक ही रसोई में पकने वाले भोजन को टिफिन के माध्यम से प्रत्येक परिवार तक पहुंचाया जाता है।डूंगरपुर में बोहरा समाज की आबादी 1650 लोगों की है और 460 परिवार निवास करते हैं। इन सभी का भोजन शास्त्री कॉलोनी में ही एक जगह पर बनता है और बाद में टिफिन से घरों तक भेजा जाता है। समाज के मुताबिक यह व्यवस्था समाज की ओर से धर्मगुरु सैयदना साहब के आह्वान पर सन् 2012 में शुरू की गई और तब से लेकर अब तक नियमित रूप से संचालित किया जा रहा है।उद्देश्य : समाज में सभी बराबर रहे, ऊंच-नीच का भेद न रहे: दरअसल, बोहरा समाज में यह परंपरा शुरू करने के पीछे कारण था। 2012 के दौर में समाज के अंदर इस बात की चर्चा रहती थी कि कोई बड़ा है तो कोई छोटा है, लेकिन धर्मगुरु के आह्वान की सीख थी कि समाज में सभी लोग बराबर हैं और कोई भी ऊंच-नीच का भेद नहीं रहेगा। समाज कर हर व्यक्ति एक दिन में एक समय एक जैसा ही भोजन ग्रहण करेगा। इसी संदेश को लेकर इस परंपरा की शुरुआत हुई।धर्मगुरु के आह्वान पर सन् 2012 से शुरू हुई यह सेवा: समाज के वरिष्ठ पदाधिकारी और नगर परिषद के उपसभापति फखरुद्दीन बोहरा ने बताया कि प्रत्येक दिन के भोजन का मीनू मुंबई में तय होता है। वहां पर कार्यरत कमेटी तय करती है और बाद में शहर की भोजन कमेटी को इसकी जानकारी भेजी जाती है। डूंगरपुर में इसकी व्यवस्था देख रहे मुल्ला मुफदल ने बताया कि सभी शहरों में इसके लिए एक कमेटी बनी होती है। डूंगरपुर में सात सदस्यीय कमेटी का मार्गदर्शन जनाब शेख शब्बीर भाई जमाली करते हैं। भोजन का मीनू भी मौसम की डिमांड के अनुरूप होता है, ऐसे में किसी के बीमार होने का सवाल ही नहीं, उल्टे न्यूट्रीशन एक्सपर्ट के डाइट प्लान के चलते सेहत में सुधार भी हो रहा है। साफ-सफाई के लिए नियमित रूप से रसोई में कीट और अन्य तरह के संक्रमण को रोकने के लिए पेस्ट कंट्रोल और फ्यूमीगेशन किया जाता है। साथ ही रसोई की मरम्मत और अन्य कार्यों के लिए रमजान से एक महीने पहले 10 दिन तक पूरी दुनिया में रसोई बंद रखी जाती है। इस दौरान रसोइयों को छुट्टी भी मिल जाती है।इस्लाम के नाम पर जब समाज में कट्टरता का जहर बोने का काम असम से बिहार बंगाल तक लगातार हो रहा है तो दूसरी तरफ भारत की धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता के विशाल संगम में, दाऊदी बोहरा समुदाय नागरिक कर्तव्य, व्यावसायिक उद्यमशीलता और अन्य धार्मिक समूहों के साथ शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का एक शांत लेकिन सशक्त उदाहरण प्रस्तुत करता है। इस्माइली शिया मुसलमानों के एक उप-संप्रदाय, बोहराओं की वैश्विक जनसंख्या लगभग 12 लाख है, जिनका गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और राजस्थान में महत्वपूर्ण संकेन्द्रण है। वे भारत की विकास गाथा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं—सुर्खियाँ बटोरने वाले विवादों के माध्यम से नहीं, बल्कि निरंतर, समुदाय-आधारित कार्यों के माध्यम से। भारत में उनकी यात्रा दर्शाती है कि अन्य संस्कृतियों के प्रति खुले रहते हुए भी गहन धार्मिक और आधुनिक, गहन पारंपरिक और प्रगतिशील, और गर्व से भारतीय होना संभव है।बोहराओं की धार्मिक जड़ें फ़ातिमी मिस्र में हैं और वे 11 वीं शताब्दी में भारत आ गए थे। इन वर्षों में, वे न केवल भारतीय समाज में घुल-मिल गए हैं, बल्कि अपने निवास क्षेत्रों के आर्थिक और नागरिक परिदृश्य को भी बदल दिया है। कई दाऊदी बोहरा अपनी मज़बूत व्यावसायिक नैतिकता के लिए जाने जाते हैं और उन्होंने व्यापार, विनिर्माण और उद्यमिता में उत्कृष्टता हासिल की है। सूरत, उदयपुर और मुंबई कुछ ऐसे शहर हैं जहाँ बोहरा व्यावसायिक नेटवर्क फल-फूल रहे हैं। ये नेटवर्क ईमानदारी, पारदर्शिता और स्थिरता पर ज़ोर देते हैं - ऐसे मूल्य जिनके कारण उन्हें धार्मिक और भाषाई सीमाओं से परे सम्मान मिला है। ऐसे युग में जहाँ धन सृजन को अक्सर सामाजिक ज़िम्मेदारी से अलग रखा जाता है, बोहरा दिखाते हैं कि सांप्रदायिक नैतिकता का पालन करते हुए भी समृद्ध होना संभव है।उनकी सामाजिक संस्थाएँ मुस्लिम जगत में सबसे प्रभावशाली संस्थाओं में से हैं। दाई अल-मुतलाक के नेतृत्व में और मुंबई स्थित समुदाय का केंद्रीय नेतृत्व संसाधन जुटाने, कल्याणकारी कार्यक्रमों को लागू करने और सामूहिक पहचान की एक मज़बूत भावना को बढ़ावा देने के लिए जाना जाता है। प्रत्येक बोहरा परिवार को फ़ैज़ अल-मवैद अल-बुरहानिया (FMB) नामक एक सामुदायिक संस्था के माध्यम से प्रतिदिन ताज़ा, स्वस्थ भोजन मिलता है।भीतर से बदलाव। यह मॉडल पहचान संबंधी चिंताओं और सांस्कृतिक ध्रुवीकरण के प्रति रचनात्मक प्रतिक्रिया प्रस्तुत करता है।व्यापक भारतीय संदर्भ में - जहाँ मुसलमानों को अक्सर एकरूप शब्दों में चित्रित किया जाता है, या तो पीड़ित के रूप में या खतरे के रूप में, बोहरा समुदाय ऐसे आख्यानों को चुनौती देता है। वे साबित करते हैं कि आस्था को प्रगति में बाधा नहीं बनना चाहिए, और धार्मिक भक्ति संवैधानिक सिद्धांतों के साथ सामंजस्य स्थापित कर सकती है। उनकी जीती-जागती हकीकत दर्शाती है कि बहुलवाद केवल एक संवैधानिक वादा नहीं है, बल्कि एक दैनिक अभ्यास है जिसे अक्सर बड़े-बड़े इशारों से नहीं, बल्कि नागरिक जिम्मेदारी, आपसी सम्मान और नैतिक जीवन के सामान्य कृत्यों के माध्यम से व्यक्त किया जाता है। ऐसे समय में जब भारत नागरिकता, धर्मनिरपेक्षता और अल्पसंख्यक अधिकारों पर जटिल बहस से जूझ रहा है, बोहरा अनुभव बहुमूल्य अंतर्दृष्टि प्रदान करता है। दूसरों पर थोपने के लिए एक कठोर मॉडल के रूप में नहीं, बल्कि एक अनुस्मारक के रूप में कि सांस्कृतिक विविधता राष्ट्रीय एकता को कमजोर करने के बजाय मजबूत कर सकती है। दाऊदी बोहरा कोई असामान्य बात नहीं हैं - वे इस बात के प्रमाण हैं कि वैकल्पिक आख्यान संभव हैं, जो विश्वास, कड़ी मेहनत और शांत गरिमा में निहित हैं। ( अशोक झा की रिपोर्ट )
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