- उन्हें कुल्हाड़ी धारण करने वाला राम कहा जाता है
- परशुराम ने क्यों काटा था कुल्हाड़ी से अपनी मां का सिर?
परशुराम जन्म से ब्राह्मण थे, परंतु उन्होंने क्षत्रिय धर्म का पालन करते हुए युद्ध-कौशल और अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा हासिल की थी। उनका जन्म वैशाख मास की तृतीया के दिन हुआ था, जिसे कि अक्षय तृतीया के रूप में पूजा जाता है। परशुराम का नाम "परशु" (कुल्हाड़ी) और "राम" (विष्णु के अवतार) से मिलकर बना है, जिसका अर्थ है "कुल्हाड़ी धारण करने वाला राम"। परशुराम को धर्म के रक्षक के रूप में पूजा जाता है।परशुराम ने क्यों काटा था कुल्हाड़ी से अपनी मां का सिर?: उनके बारे में कई तरह की कहानियां प्रचलित हैं लेकिन एक कथा सबसे ज्यादा लोकप्रिय है और वो ये कि उन्होंने अपनी मां का कुल्हाड़ी से सिर काटा था। दरअसल श्रीमद भागवत के अनुसार ऋषि जमदग्नि के यज्ञ के लिए रेणुका जल लेने गई थीं, लेकिन वहां गंधर्वराज चित्ररथ को देखकर मोहित हो गईं , जिससे जल लाने में देरी हो गई थी। जिस पर ऋषि जमदग्नि का पारा सातवें आसमान पर पहुंच गया था और उन्होंने गुस्से में आकर रेणुका को मृत्युदंड दे दिया। महर्षि ने बेटों को मां का वध करने को कहा : महर्षि ने अपने सभी पुत्रों को कहा कि वो माता का सिर काट दें, इस पर सभी पुत्र पीछे हट गए, तब ऋषि ने अपने बेटों को श्राप देकर सबकी स्मरण शक्ति को कम कर दिया। इसके बाद उन्होंने परशुराम को भी ऐसा करने के लिए कहा। भगवान परशुराम ने तुरंत अपने पिता की आज्ञा का पालन किया और अपनी मां का सिर कुल्हाड़ी से काट डाला। 'मेरी मां को पुनर्जीवित और मेरे भाईयों को पहले जैसा बना दें': इस पर ऋषि जमदग्नि उनसे काफी प्रसन्न हुए और उनसे वरदान मांगने को बोले तो इस पर भगवान परशुराम ने कहा कि 'आप अपने तेज से मेरी मां को पुनर्जीवित और मेरे भाईयों को पहले जैसा बना दें। महर्षि जमदग्नि उनसे काफी प्रसन्न हुए और उन्होंने ऐसा ही किया और यही नहीं उन्होंने अपने बेटे परशुराम को कभी पराजय का सामना न करने वाला आशीष भी दिया था। परशुराम सप्त चिरंजीवियों में से एक हैं। वे अभी भी जीवित हैं और भविष्य में भगवान कल्कि के गुरु बनेंगे। परशुराम ने अपने परशु (कुल्हाड़ी) से 21 बार पृथ्वी से अधर्मी क्षत्रियों का नाश किया था। वे भगवान शिव के परम भक्त थे और शिव ने ही उन्हें अपना परशु नामक अस्त्र प्रदान दिया था।उन्होंने अधर्म और अन्याय के विरुद्ध युद्ध किया और धर्म रक्षक के रूप में पूजे जाते हैं।
कठिन तप से प्रसन्न हो भगवान विष्णु ने उन्हें कल्प के अंत तक तपस्यारत भूलोक पर रहने का वर दिया। भगवान परशुराम किसी समाज विशेष के आदर्श नहीं है। वे संपूर्ण हिन्दू समाज के हैं और वे चिरंजीवी हैं। उन्हें राम के काल में भी देखा गया और कृष्ण के काल में भी। उन्होंने ही भगवान श्रीकृष्ण को सुदर्शन चक्र उपलब्ध कराया था। कहते हैं कि वे कलिकाल के अंत में उपस्थित होंगे। ऐसा माना जाता है कि वे कल्प के अंत तक धरती पर ही तपस्यारत रहेंगे। पौराणिक कथा में वर्णित है कि महेंद्रगिरि पर्वत भगवान परशुराम की तप की जगह थी और अंतत: वह उसी पर्वत पर कल्पांत तक के लिए तपस्यारत होने के लिए चले गए थे। इनका नाम तो राम था, किन्तु शंकर द्वारा प्रदत्त अमोघ परशु को सदैव धारण किये रहने के कारण ये परशुराम कहलाते थे। परशुराम भगवान विष्णु के दस अवतारों में से छठे अवतार थे, जो वामन एवं रामचन्द्र के मध्य में गिना जाता है।परशुराम ऋषि एक बार उनकी माँ जल का कलश लेकर भरने के लिए नदी पर गयीं। वहाँ गंधर्व चित्ररथ अप्सराओं के साथ जलक्रीड़ा कर रहा था। उसे देखने में रेणुका इतनी तन्मय हो गयी कि जल लाने में विलम्ब हो गया तथा यज्ञ का समय व्यतीत हो गया। उसकी मानसिक स्थिति समझकर जमदग्नि ने अपने पुत्रों को उसका वध करने के लिए कहा। परशुराम के अतिरिक्त कोई भी ऐसा करने के लिए तैयार नहीं हुआ। पिता के कहने से परशुराम ने माँ का वध कर दिया। पिता के प्रसन्न होने पर उन्होंने वरदान स्वरूप उनका जीवित होना माँगा। परशुराम के पिता ने क्रोध के आवेश में बारी-बारी से अपने चारों बेटों को माँ की हत्या करने का आदेश दिया। परशुराम के अतिरिक्त कोई भी तैयार न हुआ। अत: जमदग्नि ने सबको संज्ञाहीन कर दिया। परशुराम ने पिता की आज्ञा मानकर माता का शीश काट डाला। पिता ने प्रसन्न होकर वर माँगने को कहा तो उन्होंने चार वरदान माँगे-
माँ पुनर्जीवित हो जायँ,उन्हें मरने की स्मृति न रहे,
भाई चेतना-युक्त हो जायँ और मैं परमायु होऊँ।जमदग्नि ने उन्हें चारों वरदान दे दिये।
क्रोधी स्वभाव: दुर्वासा की भाँति ये भी अपने क्रोधी स्वभाव के लिए विख्यात है। एक बार कार्तवीर्य ने परशुराम की अनुपस्थिति में आश्रम उजाड़ डाला था, जिससे परशुराम ने क्रोधित हो उसकी सहस्त्र भुजाओं को काट डाला। कार्तवीर्य के सम्बन्धियों ने प्रतिशोध की भावना से जमदग्नि का वध कर दिया। इस पर परशुराम ने 21 बार पृथ्वी को क्षत्रिय-विहीन कर दिया (हर बार हताहत क्षत्रियों की पत्नियाँ जीवित रहीं और नई पीढ़ी को जन्म दिया) और पाँच झीलों को रक्त से भर दिया। अंत में पितरों की आकाशवाणी सुनकर उन्होंने क्षत्रियों से युद्ध करना छोड़कर तपस्या की ओर ध्यान लगाया। रामावतार में रामचन्द्र द्वारा शिव का धनुष तोड़ने पर ये क्रुद्ध होकर आये थे। इन्होंने परीक्षा के लिए उनका धनुष रामचन्द्र को दिया। जब राम ने धनुष चढ़ा दिया तो परशुराम समझ गये कि रामचन्द्र विष्णु के अवतार हैं। इसलिए उनकी वन्दना करके वे तपस्या करने चले गये। 'कहि जय जय रघुकुल केतू। भुगुपति गए बनहि तप हेतु॥' यह वर्णन 'राम चरितमानस', प्रथम सोपान में 267 से 284 दोहे तक मिलता है।
राम के पराक्रम की परीक्षा: राम का पराक्रम सुनकर वे अयोध्या गये। दशरथ ने उनके स्वागतार्थ रामचन्द्र को भेजा। उन्हें देखते ही परशुराम ने उनके पराक्रम की परीक्षा लेनी चाही। अतः उन्हें क्षत्रियसंहारक दिव्य धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाने के लिए कहा। राम के ऐसा कर लेने पर उन्हें धनुष पर एक दिव्य बाण चढ़ाकर दिखाने के लिए कहा। राम ने वह बाण चढ़ाकर परशुराम के तेज़ पर छोड़ दिया। बाण उनके तेज़ को छीनकर पुनः राम के पास लौट आया। राम ने परशुराम को दिव्य दृष्टि दी। जिससे उन्होंने राम के यथार्थ स्वरूप के दर्शन किये। परशुराम एक वर्ष तक लज्जित, तेजहीन तथा अभिमानशून्य होकर तपस्या में लगे रहे। तदनंतर पितरों से प्रेरणा पाकर उन्होंने वधूसर नामक नदी के तीर्थ पर स्नान करके अपना तेज़ पुनः प्राप्त किया। परशुराम कुंड
असम राज्य की उत्तरी-पूर्वी सीमा में जहाँ ब्रह्मपुत्र नदी भारत में प्रवेश करती है, वहीं परशुराम कुण्ड है, जहाँ तप करके उन्होंने शिवजी से परशु प्राप्त किया था। वहीं पर उसे विसर्जित भी किया। परशुराम जी भी सात चिरंजीवियों में से एक हैं। इनका पाठ करने से दीर्घायु प्राप्त होती है। परशुराम कुंड नामक तीर्थस्थान में पाँच कुंड बने हुए हैं। परशुराम ने समस्त क्षत्रियों का संहार करके उन कुंडों की स्थापना की थी तथा पितरों से वर प्राप्त किया था कि क्षत्रियों के संहार के पाप से मुक्त हो जायेंगे।।
भगवान परशुराम जगत के पालनहार विष्णुजी के अवतार हैं। वे भले ही ब्राह्मण कुल में जन्मे, लेकिन उनके कर्म क्षत्रियों के समान थे। भगवान परशुराम के जीवन हमें कई अच्छी चीजों की प्रेरणा मिलती है। माता-पिता का सम्मान
भगवान परशुराम ने हमेशा अपने माता-पिता का सम्मान किया और उन्हें भगवान के समान ही माना। माता-पिता के हर आदेश का पालन भगवान परशुराम ने किया। हमें भी जीवन में हमेशा अपने माता-पिता का सम्मान और उनकी हर आज्ञा का पालन करना चाहिए। जो व्यक्ति माता-पिता का सम्मान करते हैं, भगवान भी उनसे प्रसन्न रहते हैं।दान की भावना : धार्मिक कथाओं के अनुसार भगवान परशुराम ने अश्वमेघ यज्ञ कर पूरी दुनिया को जीत लिया था, लेकिन उन्होंने सबकुछ दान कर दिया। हमें भगवान परशुराम से दान करना सीखना चाहिए। अपनी क्षमता के अनुसार दान अवश्य करना चाहिए। धार्मिक मान्यता के अनुसार भी दान करने का बहुत अधिक महत्व होता है। ऐसा माना जाता है कि दान करने से उसका कई गुना फल मिलता है। न्याय सर्वोपरि
भगवान परशुराम ने न्याय करने के लिए सहस्त्रार्जुन और उसके वंश का नाश कर दिया था। धार्मिक कथाओं के अनुसार भगवान परशुराम का मानना था कि न्याय करना बहुत जरूरी है। इसलिए उन्हें न्याय का देवता भी कहा जाता है। पौराणिक कथाओं में इस बात का वर्णन भी है कि भगवान परशुराम सहस्त्रार्जुन और उसके वंश का नाश नहीं करना चाहते थे, परंतु उन्होंने न्याय के लिए ऐसा किया। भगवान परशुराम के लिए न्याय सबसे ऊपर था। हमें भी जीवन में न्याय करना चाहिये। विवेकपूर्ण कार्य
भगवान परशुराम ने गुस्से में आकर कभी भी अपना विवेक नहीं खोया। धार्मिक कथाओं के अनुसार भगवान परशुराम का स्वभाव गुस्से वाला था, परंतु उन्होंने हर कार्य को संयम से ही किया। हमें भी जीवन में सदैव विवेक और संयम बना के रखना चाहिए। ( अशोक झा की कलम से )
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