पद्मश्री से सम्मानित हिंदी के जाने-माने रचनाकार डाॅ. रामदरश मिश्र अब इस दुनिया में नहीं रहे। इस वर्ष अगस्त महीने में उन्होंने 101 वर्ष पूरे किए थे। शुक्रवार शाम द्वारका स्थित अपने बेटे शशांक मिश्र के आवास पर उन्होंने अंतिम सांस ली। डाॅ. रामदरश मिश्र के निधन से पूरा साहित्य जगत शोकाकुल है।उन्होंने 150 से अधिक पुस्तकें लिखी हैं। इनकी पुस्तकों को कई विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाता है। इसी वर्ष इन्हें साहित्य जगत में अमूल्य योगदान के लिए पद्मश्री से सम्मानित किया गया।
डाॅ. रामदरश मिश्र का जन्म 15 अगस्त 1924 को गोरखपुर जिले के डुमरी गांव में हुआ था। इन्होंने कविता, कथा, आलोचना और निबंध सहित विभिन्न विधाओं में लिखा।हिंदी साहित्य में इनके योगदान को हिंदी आलोचना के स्तंभ के रूप में जाना जाता है। उनके उपन्यासों में 'जल टूटता हुआ' और हिंदी साहित्य में इनके योगदान को हिंदी आलोचना के स्तंभ के रूप में भी जाना जाता है। उनके उपन्यासों में 'जल टूटता हुआ' और 'पानी के प्राचीर' शामिल हैं। बैरंग-बेनाम चिद्वियां', 'पक गयी है दूर' और 'कंधे पर सुरज' उनकी अन्य प्रमुख साहित्यिक कृतियों में से हैं।
डाॅ. रामदरश मिश्र उत्तम नगर के वाणी विहार में रहते थे। इस काॅलोनी में संस्कृत के विद्वान डा रमाकांत शुक्ल और हिंदी के विद्वान रामदरश मिश्र भी थे। काॅलोनी के लोगों को इस बात का गर्व था कि उनके यहां दो-दो विद्वान रहते हैं। पहले डाॅ. रमाकांत शुक्ल और अब रामदरश मिश्र के निधन से पूरी काॅलोनी में शोक की लहर व्याप्त है। कुछ महीने पहले ही जब इनका स्वास्थ्य काफी खराब हो गया, तब ये अपने बेटे के पास द्वारका रहने चले गए थे। मगर काॅलोनी से इनका लगाव बना रहा। अपने आतिथ्य, हंसमुख व सहज स्वभाव के कारण वे सभी के प्रिय थे। ( अजीत मिश्र की कलम से ,)
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