दोस्तों इधर बहुत दिन से न तो कहीं जा पा रहा हूं और ना ही कुछ लिख पा रहा हूं कारण पिता का स्वास्थ्य और कुछ अपना स्वास्थ्य साथ में परिवार की कुछ जिम्मेदारी। बहरहाल। सब जीवन का हिस्सा है।
आज कुछ निश्चिंतता का समय मिला तो चला गया गणेश बुक स्टॉल। हो सकता है कुछ लोगों के लिए यह नाम नया लगे लेकिन हमारे लिए या शहर दक्षिणी के मध्य रहने वाले पुराने लोगों के लिए यह नाम नया नहीं है। बहुत सारे लोगों का संबंध इस स्टॉल से रहा होगा
यह स्टॉल भेलूपुर के ललिता सिनेमा हॉल के ठीक सामने है। जी हां इस सिनेमा हाॅल का नाम भी मालिन हो रहा है। इसका भवन अभी है नाम उसी पर लिखा है। शायद डाकू हसीना इसमें लगी अंतिम सिनेमा थी।शहर के एक-दो सिनेमा हॉल के ही भवन बचे होंगे अन्यथा सब इतिहास बन चुके हैं। उनके नाम भी कुछ लोगों को ही याद होगा वह भी भूल जाएंगे । उसी में से एक है यह ललिता सिनेमा हॉल। यह सिनेमा हॉल भेलूपुर थाने के पीछे और चौराहे से सोनारपुरा रोड पर है। यहीं गणेश बुक स्टॉल है।
कभी इस स्टॉल पर अक्सर जाना होता था लेकिन अब महीने या साल में एक दो बार। यह अखबारों का केंद्र भी है। सारे अखबार यहां से वितरित करने के लिए उठाए जाते हैं। यहां पहुंचते ही मुझे सन 1997 और 1998 के वह दिन याद आ गए जब #अमरउजाला बनारस में पैदा हुआ था और अपने पैर पर चलने की चेष्टा कर रहा था। प्रतिद्वंदी यह प्रयास कर रहे थे कि हाॅकर अमर उजाला को न उठाएं और न वितरित करें इसके लिए वे हर प्रकार का प्रयत्न कर रहे थे। अखबार के निर्वाध वितरण के लिए हम इस के केंद्र पर भोर में आते थे। दिन भर अखबार में काम करना और भोर होते ही इस केंद्र पर पहुंच जाना। तब काम करने के घंटे की चिंता नहीं थी और ना ही उस दिशा में कोई सोच । यह भी चिंता नहीं थी कि कितने पैसे मिल रहे हैं ।अगर चिंता थी तो यह है कि अखबार समय से वितरित हो जाए। आज अखबार युवा है सर्वत्र है यह हमारा गर्व है। बात लंबी नहीं करूंगा प्रसंग वस इसकी चर्चा कर दी ।आगे इस संबंध में और बातें होंगी।
इस स्टॉल की स्थापना 60 के दशक में बच्चा साहू ने की थी । तब यह वहीं के चबूतरे पर लगा करता था ।1970 या 71 में गणेश बुक स्टॉल के नाम से यह रजिस्टर्ड हुआ और एक स्थान बना । धीरे-धीरे इस स्टॉल की ख्याति बढ़ती गई और यहां पत्र पत्रिकाओं की संख्याएं भी बढ़ी। एक तरह से यह सड़क पुस्तकालय का रूप ले लिया।वर्तमान भाषा में कहें तो यह स्ट्रीट लाइब्रेरी बनी। हर समय 7, 8, 10 लोग यहां अखबार और पत्र पत्रिकाएं पढ़ते दिख जाते थे। सुबह शाम यहां काफी भीड़ होती थी। कुछ लोग नियमित रूप से एक अखबार खरीदने आते और उसके बदले में कई पत्र पत्रिकाएं पढ़ लेते। ऐसे भी थे जो प्रतिदिन सिर्फ अखबार और पत्रिका पढ़ने आते। खरीदते कुछ नहीं । दुकानदार का इससे कोई सरोकार नहीं कि किसी ने क्या खरीदा। हां अखबार का तह खराब और पत्रिका के पन्ने मुड़ जाने पर डांट जरूर पड़ती। यहां तमाम पत्रकारों और फोटोग्राफरों का भी आना लगा रहता था। कुछ अखबार में प्रकाशित अपना लेख देखने या फिर अपनी फोटो देखने आते थे। इस संबंध में भी मैं आगे चर्चा करूंगा क्योंकि मैं भी उनमें से एक था जो विभिन्न अखबारों को लेख और फोटोग्राफ डाक द्वारा भेजा करता था। अखबार में लेख और फोटो छपते ही वह प्रसन्नता गजब की होती थी लगता सब कुछ मिल गया।
इसी में नगर के बहुत चर्चित छायाकार गुरु तुल्य रमाशंकर सिंह भी हैं जो नियमित आते थे । वह स्थानीय सहित बाहर के तमाम पत्र पत्रिकाओं में अपनी फोटो भेजते थे। प्रकाशित फोटो देखकर उनके भाव मुझे अह्लादित करते थे। शायद यह सब भाव मेरे लिए फोटो पत्रकारिता में आने का एक कारण बना। विशेष रूप से वह जनसत्ता, इंडिया टुडे आउटलुक देखते जिनमें उनकी तस्वीरें छपती थीं। कुछ नई पत्रिकाएं भी वह पलटते। मैं दुख के साथ कहना चाहूंगा कि जनसत्ता में मेरी तस्वीर कभी नहीं छपी। जनसत्ता राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी पट्टी का एक प्रतिष्ठित सम्मानित अखबार रहा है। इसके संपादक हुआ करते थे #प्रभाषजोशी। जिनका नाम लेने में भी गर्व होता है। जिनके स्तंभ 'कागद कोरे' को अपार प्रसिद्धि मिली थी। उनके स्तंंभ ' औघट घट को भी पाठकों ने सम्मान दिया ।जिन्हें निडर पत्रकार कहा जाता था। मैं उन सौभाग्यशालियों में से जरूर हूं जिसे उनसे मिलने का अवसर प्राप्त हुआ।
स्टाॅल पर गणेश भाई के लड़के राजेश से भेंट हुई। राजेश पत्र-पत्रिकाओं को बेचने के साथ अब फोटो स्टेट व कुछ अन्य कार्य भी करते हैं। क्योंकि स्टॉल काफी सिमट गया है बिक्री काफी कम हो गई है। बताते हैं कि लगभग 70 प्रतिशत की कमी आई है।
शाम चार बजे गणेश भाई भी आ गए। फिर क्या था। पुरानी बातें होने लगीं। बताया कि #इंडियाटुडे,#आउटलुक जैसी पत्रिकाओं की मांग बहुत कम हो गई है। धर्मयुग,साप्ताहिक हिंदुस्तान,कादंबिनी,नवनीत,पराग,नंदन आदि के खूब पाठक हुआ करते थे। तमाम प्रतिष्ठित पत्रिकाएं बंद हो गई हैं। लोग किराए पर भी उपन्यास,पत्रिकाएं कामिक्स, बाल उपन्यास ले जाते थे।
#सुरेंद्रमोहन,वेद प्रकाश,इब्नेसफी, नकाबपोश वेदी,ओमप्रकाश आदि के उपन्यास लोग चाव से पढ़ते थे। अब इन सबको लोग भूल चुके हैं।
इस गणेश बुक स्टॉल यानी स्ट्रीट लाइब्रेरी पर आना अच्छा लगा । न जाने फिर कब मुलाकात हो। ( काशी के प्रसिद्ध छायाकार अनिरुद्ध पाण्डेय की कलम से )
#kashi #बनारस-की-गलियां #स्ट्रीटलाइब्रेरी
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