आचार्य संजय तिवारी
वंदे , अर्थात वंदना और मातरम् शब्द का अर्थ है माँ, अर्थात वह , जिसने जन्म दिया। कौन और किसको? भारतीय चिंतन, दर्शन, लोक और ज्ञान परंपरा के अनुसार उत्तर है, मुझे, हमें, सभी को, सभी मनुष्यों को, पशुओं को, पक्षियों को, वनस्पतियों को, नदियों को, पर्वतों को, जंगलों को, समस्त प्राणियों को, समस्त जगत को। उसी ने जन्मा है। उसी ने निर्मित किया है। वहीं कर रही है। उसी के आंगन में, उसी के आंचल में सभी जी रहे हैं। सभी पुष्पित, पल्लवित और विलयित भी हो रहे हैं। मातरम् को वंदे। मातृ तत्व को प्रणाम। वहीं मातृ सत्ता जिसे भारत ने सदा से भू देवी कहा है और उसकी स्तुति की है। उसी को वंदे मातरम् करने का गान रचा है श्रुतियों ने भी और बंकिम चंद्र चटर्जी ने भी। आदिकाल से, सृष्टि के आरम्भ से ही यह स्तुति हमने सदैव की है। वंदे मातरम् के उद्घोष में ही वह शक्ति है जो भारत को ही नहीं बल्कि समस्त जगती को ब्रह्मांड की असीम ऊर्जा जोड़ कर उसे देदीप्यमान करती है। यह अद्भुत है। यह उस शब्द ब्रह्म का ऐसा गान है जिसके स्वर सीधे कॉसमॉस में तरंगित होकर आत्मिक ऊर्जा से गायक को भर देते हैं।
वंदे मातरम्। यह शब्द संस्कृत मूल का है और इसका उपयोग मातृभूमि के लिए भी किया जाता है। वंदे मातरम् का अर्थ है मैं तुम्हें नमन करता हूँ, माँ, जिसमें वंदे का अर्थ वंदना या प्रशंसा में गान करना है और मातरम् का अर्थ माँ या मातृभूमि या समस्त पृथ्वी या समस्त सृष्टि है। यह राष्ट्रीय गीत भारत की संस्कृति और गौरव का प्रतीक है।
माँ के रूप में, मातरम् का सीधा और शाब्दिक अर्थ 'माँ' है। मातृभूमि के रूप में, यह शब्द भारत माता, हमारी मातृभूमि के लिए प्रयुक्त होता है। इस गीत में वंदे मातरम् का अर्थ है कि हम अपनी मातृभूमि की पूजा करते हैं, उसे नमन करते हैं और उसकी वंदना करते हैं। यह शब्द मातृभूमि के प्रति श्रद्धा और सम्मान को व्यक्त करता है। इस गीत की रचना बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने की थी, जो वेदों में वर्णित ऋग्वेद के वंद शब्द से प्रेरित है। 'वंद' शब्द का अर्थ 'प्रशंसा करना', 'आदर करना' या 'पूजा करना' है, जो वेदों के अनुसार है। इसलिए, 'वंदे मातरम्' शब्द का उपयोग वेदों में भूमि को 'माँ' के रूप में दर्शाने की अवधारणा से जुड़ा हुआ है। ऋग्वेद के अतिरिक्त अन्य वेदों में पृथ्वी को भी मातृ के रूप में संबोधित किया गया है। उदाहरण के लिए, अथर्ववेद में कहा गया है, "माता भूमि: पुत्रो अहं पृथिव्या:", जिसका अर्थ है "हे पृथ्वी माता, मैं पृथ्वी का पुत्र हूँ"।
श्रुति सार और मातृ स्तुति
मातृ देवो भव के श्रुति संदेश का सार है वंदे मातरम। इस सार तत्व में ही समस्त भारतीय संस्कृति समाहित है। मातृ के अर्थ अनेक हैं। मातृ मिट्टी भी है। मातृ जननी अर्थात जन्म देने वाली माता भी है। समस्त पृथ्वी, समस्त प्रकृति, समस्त नदियां मातृ स्वरूप हैं। इसीलिए भारतीय संस्कृति में ये सभी पूज्य हैं। मातृ शक्ति की अवधारणा केवल भारत के वांग्मय ही स्थापित करते हैं। इसी अवधारणा के कारण वंदेमातरम गीत को राष्ट्र गीत के रूप में अंगीकार किया गया है। बंकिम चंद्र चटर्जी के उपन्यास आनंद मठ में इस गीत के कुल पांच अंतरे हैं । इनमें से आरंभ के दो अंतरे ही गायन में प्रचलन में हैं। इस उपन्यास में यह गीत भवानन्द नाम के संन्यासी द्वारा गाया गया है। बाद में इसकी धुन यदुनाथ भट्टाचार्य ने बनायी थी।
यह कविता की दृष्टि से जितनी उत्कृष्ट रचना है उससे भी महत्वपूर्ण इसका भाव है। यह मनुष्य के जीवन संस्कृति का वह समस्त आधार तत्व प्रस्तुत करने में सक्षम है जिसे गोस्वामी तुलसी दास जी ने मर्यादा पुरुषोत्तम की स्थापना में बालकाण्ड में ही परिभाषित कर दिया है। मानव जीवन के सभी सनातन तत्व इस गीत में विद्यमान हैं जिनकी अलग अलग स्तुतियाँ मनुष्य अलग अलग समय पर करता है। वह चाहे धरती हो, आकाश हो, वनस्पतियां हों, प्रकृति हो, दैवीय शक्तियां हों, लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा हों या ऐसे वे सभी प्रतीक जिनसे मनुष्य शक्ति सम्पन्न होकर जीवन यात्रा करना चाहता है या करता है।
वंदेमातरम ठीक वैसा ही सम्पूर्ण है जैसा हमें सत्यमेवजयते अथवा तमसो मा ज्योतिर्गमय के उच्चारण से आभास होता है। इस गीत में मनुष्य और परमसत्ता अर्थात ईश्वर के बीच का ऐसा संवाद रचा गया है जो ठीक वैसा ही समर्पण दर्शाता है जैसे कि माता के आंचल में संरक्षित शिशु।
1. वन्दे मातरम की पहली पंक्ति सुजलां सुफलाम् मलयजशीतलाम् शस्यश्यामलाम् ही हमें प्रकृति से जोड़ने का काम करती है। जीवन के लिए जरुरी संसाधन जैसे शीतल जल, हरे भरे खेत, अच्छे फलों, सुगन्धित हवाओं की वंदना किया जाना न केवल आज के समय की आवश्यकता है बल्कि यह हमेशा से ही जीवनदाता रहा है।
2. कोटि-कोटि-भुजैर्धृत-खरकरवाले , अबला केन मा एत बले। बहुबलधारिणीं नमामि तारिणीं रिपुदलवारिणीं मातरम् ,
यह मातृ शक्ति की सर्वोपरिता को द्योतित करती है। पश्चिम के पुरुष सत्तात्मक समाज ने स्त्री को दोयम दर्जे का नागरिक बना कर रख दिया जिसके लिए आज नारी सशक्तिकरण : सरकार की मिशन शक्ति का सहारा लेना पड़ रहा है ।
3.वन्दे मातरम की वैज्ञानिकता , संगीत, भाषा और महत्त्व को देखते हुए बीबीसी द्वारा 2003 में किए गए 155 देशों के सर्वेक्षण में शीर्ष 10 में स्थान दिया गया।
4. 65 सेकंड में गया जाता है वन्दे मातरम गीत।
5.भारतीय मनीषियों की कल्पना जो देश के विकास के लिए जरुरी है जैसे- विद्या, धर्म, भक्ति, कर्म, प्राण को इस गीत में समाहित करके यह बताया गया है कि देश के सर्वांगीण विकास के लिए सभी पक्षों का विकास जरुरी है।
6.वन्दे मातरम- ज्ञान, विज्ञान, देश, मानव के सभी विषयों को शब्द रूप में समाहित करता है । ज्ञान होना चाहिए अपने आस-पास की प्रकृति का, जीवन की रक्षा के लिए अस्त्र-शस्त्रों का, मुक्ति के लिए धर्म का और इसके साथ ही साथ अपने शत्रुओं की अच्छाइयों और बुराइयों का। उन्नत विज्ञान होना चाहिए कमल के फूल पर विचरण करने जितना माइक्रो साइंस, गीत संगीत और विद्या का विकास देश के विकास के लिए बहुत जरुरी है।
7.कमलां अमलां अतुलां सुजलां सुफलां मातरम् । आधुनिक सन्दर्भ में जब हम इसे देखते हैं कि हमारा ज्ञान कैसा होना चाहिए कमलां अर्थात धन को उत्पन्न करने वाला हो, आर्थिक सशक्तिकरण को बढ़ाने वाला होना चाहिए, अमलां अर्थात हमारा ज्ञान पवित्र होना चाहिए, दुनिया में जहाँ प्लेगरिज्म चल रहा है वहां हम शुरू से ही ज्ञान की पवित्रता की बात करते रहे हैं। अतुलां हो जिसकी कोई तुलना न हो, सुजलां अर्थात जीवन देने वाली और सुफलां अर्थात अच्छे फल देने वाली हो। हमारे मनीषियों ने ऐसे ज्ञान की कल्पना की है।
वन्दे मातरम्
बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय द्वारा संस्कृत बाँग्ला मिश्रित भाषा में रचित इस गीत का प्रकाशन सन् 1882 में उनके उपन्यास आनन्द मठ में अन्तर्निहित गीत के रूप में हुआ था। इस उपन्यास में यह गीत भवानन्द नाम के संन्यासी द्वारा गाया गया है। इसकी धुन यदुनाथ भट्टाचार्य ने बनायी थी। इस गीत को गाने में 65 सेकेंड (1 मिनट और 5 सेकेंड) का समय लगता है।
सन् 2003 में, बीबीसी वर्ल्ड सर्विस द्वारा आयोजित एक अन्तरराष्ट्रीय सर्वेक्षण में, जिसमें उस समय तक के सबसे मशहूर दस गीतों का चयन करने के लिये दुनिया भर से लगभग 70 हजार गीतों को चुना गया था और बी०बी०सी० के अनुसार 155 देशों/द्वीप के लोगों ने इसमें मतदान किया था उसमें वन्दे मातरम् शीर्ष के 10 गीतों में दूसरे स्थान पर था।
वन्देमातरम और बंदे मातरम्
यदि बाँग्ला भाषा को ध्यान में रखा जाय तो इसका शीर्षक "बन्दे मातरम्" होना चाहिये "वन्दे मातरम्" नहीं। चूँकि हिन्दी व संस्कृत भाषा में 'वन्दे' शब्द ही सही है, लेकिन यह गीत मूलरूप में बाँग्ला लिपि में लिखा गया था और चूँकि बाँग्ला लिपि में व अक्षर है ही नहीं अत: बन्दे मातरम् शीर्षक से ही बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय ने इसे लिखा था। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए शीर्षक 'बन्दे मातरम्' होना चाहिये था। परन्तु संस्कृत में 'बन्दे मातरम्' का कोई शब्दार्थ नहीं है तथा "वन्दे मातरम्" उच्चारण करने से "माता की वन्दना करता हूँ" ऐसा अर्थ निकलता है, अतः देवनागरी लिपि में इसे वन्दे मातरम् ही लिखना व पढ़ना समीचीन होगा।
संस्कृत मूल गीत
वन्दे मातरम्
सुजलां सुफलाम्
मलयजशीतलाम्
शस्यश्यामलाम्
मातरम्।
शुभ्रज्योत्स्नापुलकितयामिनीम्
फुल्लकुसुमितद्रुमदलशोभिनीम्
सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम्
सुखदां वरदां मातरम्॥ 1 ॥
कोटि कोटि-कण्ठ-कल-कल-निनाद-कराले
कोटि-कोटि-भुजैर्धृत-खरकरवाले,
अबला केन मा एत बले।
बहुबलधारिणीं
नमामि तारिणीं
रिपुदलवारिणीं
मातरम्॥2॥
तुमि विद्या, तुमि धर्म
तुमि हृदि, तुमि मर्म
त्वम् हि प्राणा: शरीरे
बाहुते तुमि मा शक्ति,
हृदये तुमि मा भक्ति,
तोमारई प्रतिमा गडी मन्दिरे-मन्दिरे॥3॥
त्वम् हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी
कमला कमलदलविहारिणी
वाणी विद्यादायिनी,
नमामि त्वाम्
नमामि कमलाम्
अमलां अतुलाम्
सुजलां सुफलाम्
मातरम्॥4॥
वन्दे मातरम्
श्यामलाम् सरलाम्
सुस्मिताम् भूषिताम्
धरणीं भरणीं
मातरम्॥5॥
राष्ट्रीय गीत बनने की यात्रा:
वंदे मातरम् भारत का राष्ट्रीय गीत है जिसकी रचना बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय द्वारा की गई थी। इन्होंने 7 नवम्बर, 1876 ई. में बंगाल के कांतल पाडा नामक गाँव में इस गीत की रचना की थी। वंदे मातरम् गीत के प्रथम दो पद संस्कृत में तथा शेष पद बांग्ला भाषा में थे। राष्ट्रकवि रवींद्रनाथ टैगोर ने इस गीत को स्वरबद्ध किया और पहली बार 1896 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में यह गीत गाया गया। अरबिंदो घोष ने इस गीत का अंग्रेज़ी में और आरिफ़ मोहम्मद ख़ान ने इसका उर्दू में अनुवाद किया। 'वंदे मातरम्' का स्थान राष्ट्रीय गान 'जन गण मन' के बराबर है। यह गीत स्वतंत्रता की लड़ाई में लोगों के लिए प्ररेणा का स्रोत था।
पद
वंदे मातरम् गीत का प्रथम पद इस प्रकार है-
वंदे मातरम्, वंदे मातरम्!
सुजलाम्, सुफलाम्, मलयज शीतलाम्,
शस्यश्यामलाम्, मातरम्!
वंदे मातरम्!
शुभ्रज्योत्सनाम् पुलकितयामिनीम्,
फुल्लकुसुमित द्रुमदल शोभिनीम्,
सुहासिनीम् सुमधुर भाषिणीम्,
सुखदाम् वरदाम्, मातरम्!
वंदे मातरम्, वंदे मातरम्॥
अरबिन्द का अनुवाद
गद्य रूप में श्री अरबिन्द घोष द्वारा किए गए अंग्रेज़ी अनुवाद का हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है-
मैं आपके सामने नतमस्तक होता हूँ। ओ माता,
पानी से सींची, फलों से भरी,
दक्षिण की वायु के साथ शान्त,
कटाई की फ़सलों के साथ गहरा,
माता!
उसकी रातें चाँदनी की गरिमा में प्रफुल्लित हो रही हैं,
उसकी ज़मीन खिलते फूलों वाले वृक्षों से बहुत सुंदर ढकी हुई है,
हंसी की मिठास, वाणी की मिठास,
माता, वरदान देने वाली, आनंद देने वाली।
मूल गीत
सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम्
सस्य श्यामलां मातरंम् .
शुभ्र ज्योत्सनाम् पुलकित यामिनीम्
फुल्ल कुसुमित द्रुमदलशोभिनीम्,
सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम् .
सुखदां वरदां मातरम् ॥
गीत के पहले दो छंदों में मातृभूमि की सुंदरता का गीतात्मक वर्णन किया गया है, लेकिन 1880 के दशक के मध्य में गीत को नया आयाम मिलना शुरू हो गया। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि बंकिमचंद्र ने 1881 में अपने उपन्यास 'आनंदमठ' में इस गीत को शामिल कर लिया। उसके बाद कहानी की माँग को देखते हुए उन्होंने इस गीत को लंबा किया। बाद में जोड़े गए हिस्से में ही दशप्रहरणधारिणी (दुर्गा), कमला (लक्ष्मी) और वाणी (सरस्वती) के उद्धरण दिए गए हैं।
गीत के राग व अवधि
वर्षों से 'संगीत सरिता', 'स्वर सुधा' और 'राग-अनुराग' जैसे कार्यक्रम सुनने में आते रहे हैं। इन कार्यक्रमों से यह ज्ञात हो जाता है कि ढेर सारे फ़िल्मी गीत कौन-कौन से राग पर आधारित हैं। पर खेद है कि अब तक यह जानकारी नहीं मिल सकी कि राष्ट्रीय गीत वंदे मातरम् और राष्ट्रीय गान 'जन गन मन' किन रागों पर आधारित हैं। यह दोनों ही रचनाएँ बांग्ला भाषा के कवियों से निकली हैं। स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान रची गई इन रचनाओं को ये कवि स्वयं जन सभाओं में गाया करते थे, जिससे लगता है कि यह रचनाएँ 'रविन्द्र संगीत' में निबद्ध है। राष्ट्रीय गान के तो रचनाकार ही रवीन्द्रनाथ टैगोर हैं।
बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय
बंकिमचंद्र चटर्जी द्वारा रचित 'वंदे मातरम्' तो बहुत लम्बी रचना है, जिसमें माँ दुर्गा की शक्ति का भी बख़ान है, पर पहले अंतरे के साथ इसे सरकारी गीत के रूप में मान्यता मिली है और इसे राष्ट्रीय गीत का दर्ज़ा देकर इसकी न केवल धुन बल्कि गीत की अवधि तक संविधान सभा द्वारा तय की गई है, जो 52 सेकेण्ड है। इस तरह लगता है कि 'राष्ट्रीय गान' और 'राष्ट्रीय गीत' के न सिर्फ़ राग बल्कि इसमें बजने वाले साज़ भी लगभग तय है।
निर्माण
1870 के दौरान अंग्रेज़ हुक्मरानों ने 'गॉड सेव द क्वीन' गीत गाया जाना अनिवार्य कर दिया था। अंग्रेज़ों के इस आदेश से बंकिमचंद्र चटर्जी को, जो तब एक सरकारी अधिकारी थे, बहुत ठेस पहुँची और उन्होंने संभवत: 1876 में इसके विकल्प के तौर पर संस्कृत और बांग्ला के मिश्रण से एक नए गीत की रचना की और उसका शीर्षक दिया "वंदे मातरम्"। शुरुआत में इसके केवल दो पद रचे गए थे, जो केवल संस्कृत में थे।
गीत का विरोध
गीत के पहले दो छंदों में मातृभूमि की सुंदरता का गीतात्मक वर्णन किया गया था, लेकिन 1880 के दशक के मध्य में गीत को नया आयाम मिलना शुरू हो गया। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि बंकिम चंद्र ने 1881 में अपने उपन्यास 'आनंदमठ' में इस गीत को शामिल कर लिया। उसके बाद कहानी की माँग को देखते हुए उन्होंने इस गीत को और लंबा किया। बाद में जोड़े गए हिस्से में ही 'दशप्रहरणधारिणी', कमला और वाणी के उद्धरण दिए गए हैं। लेखक होने के नाते बंकिमचंद्र को ऐसा करने का पूरा अधिकार था और इसको लेकर तुरंत कोई नकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं हुई। यानी तब किसी ने ऐसा नहीं कहा कि यह मूर्ति की वंदना करने वाला गीत है या 'राष्ट्रगीत' नहीं है। काफ़ी समय बाद जब विभाजनकारी मुस्लिम और हिन्दू सांप्रदायिक ताकतें उभरीं तो यह राष्ट्रगीत से एक ऐसा गीत बन गया, जिसमें सांप्रदायिक निहितार्थ थे। 1920 और ख़ासकर 1930 के दशक में इस गीत का विरोध शुरू हुआ।
'वन्देमातरम' गायन
15 अगस्त, 1947 को प्रातः 6:30 बजे आकाशवाणी से पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर का राग-देश में निबद्ध 'वन्देमातरम' के गायन का सजीव प्रसारण हुआ था। आज़ादी की सुहानी सुबह में देशवासियों के कानों में राष्ट्रभक्ति का मंत्र फूँकने में 'वन्देमातरम' की भूमिका अविस्मरणीय थी। ओंकारनाथ जी ने पूरा गीत स्टूडियो में खड़े होकर गाया था; अर्थात उन्होंने इसे राष्ट्रगीत के तौर पर पूरा सम्मान दिया। इस प्रसारण का पूरा श्रेय सरदार बल्लभ भाई पटेल को जाता है। पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर का यह गीत 'दि ग्रामोफोन कम्पनी ऑफ़ इंडिया' के रिकॉर्ड संख्या STC 048 7102 में मौजूद है।
राष्ट्रीय गीत की मान्यता
24 जनवरी, 1950 को संविधान सभा ने निर्णय लिया कि स्वतंत्रता संग्राम में 'वन्देमातरम' गीत की उल्लेखनीय भूमिका को देखते हुए इस गीत के प्रथम दो अन्तरों को 'जन गण मन..' के समकक्ष मान्यता दी जाय। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने संविधान सभा का यह निर्णय सुनाया। "वन्देमातरम' को राष्ट्रगान के समकक्ष मान्यता मिल जाने पर अनेक महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय अवसरों पर 'वन्देमातरम' गीत को स्थान मिला। आज भी 'आकाशवाणी' के सभी केन्द्रों का प्रसारण 'वन्देमातरम' से ही होता है। आज भी कई सांस्कृतिक और साहित्यिक संस्थाओं में 'वन्देमातरम' गीत का पूरा-पूरा गायन किया जाता है।
इतिहास
सन 1905 के बंगाल के स्वदेशी आंदोलन ने वंदे मातरम् को राजनीतिक नारे में तब्दील कर दिया। राष्ट्रवादी विरोध-प्रदर्शन की अगुआई करते हुए रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसे गाया और अरविंद घोष ने बंकिमचंद्र को राष्ट्रवाद का ऋषि कहकर पुकारा। सन 1920 तक सुब्रह्मण्यम भारती तथा दूसरों के हाथों विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनूदित होकर यह गीत राष्ट्रगान की हैसियत पा चुका था। बहरहाल, सन 1930 के दशक में वंदे मातरम् की इस हैसियत पर विवाद उठा और लोग इस गीत की मूर्ति-पूजकता को लेकर आपत्ति उठाने लगे। जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में गठित एक समिति की सलाह पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने सन 1937 में इस गीत के उन अंशों को छाँट दिया, जिनमें कथित रूप से बुतपरस्ती के भाव ज़्यादा प्रबल थे। यद्यपि इस गीत में ऐसा कुछ नहीं है। इसके उन अंशों में भी मां के ही अन्यान्य स्वरूप की स्तुति या वंदना है। गीत के उन अंशों को काटने के पीछे केवल सांप्रदायिक तुष्टिकरण ही था जो कांग्रेस शुरू से कर रही थी।
राष्ट्रगीत का दर्जा
जब आज़ाद भारत का नया संविधान लिखा जा रहा था, तब वंदे मातरम् को न राष्ट्रगान के रूप में अपनाया गया और न ही उसे राष्ट्रगीत का दर्ज़ा मिला लेकिन संविधान सभा के अध्यक्ष और भारत के पहले राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने 24 जनवरी, 1950 को घोषणा की कि वंदे मातरम् को राष्ट्रगीत का दर्ज़ा दिया जा रहा है।
स्वाधीनता संग्राम में राष्ट्रगीत की भूमिका
बंगाल में चले आज़ादी के आंदोलन में विभिन्न रैलियों में जोश भरने के लिए यह गीत गाया जाने लगा। धीरे-धीरे यह गीत लोगों में लोकप्रिय हो गया। ब्रिटिश हुकूमत इसकी लोकप्रियता से सशंकित हो उठी और उसने इस पर प्रतिबंध लगाने पर विचार करना शुरू कर दिया। 1896 में 'भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस' के 'कलकत्ता अधिवेशन' में भी गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने यह गीत गाया। पाँच साल बाद यानी 1901 में कलकत्ता में हुए एक अन्य अधिवेशन में चरन दास ने यह गीत पुनः गाया। 1905 में बनारस में हुए अधिवेशन में इस गीत को सरला देवी ने स्वर दिया।
कांग्रेस के अधिवेशनों के अलावा भी आज़ादी के आंदोलन के दौरान इस गीत के प्रयोग के काफ़ी उदाहरण मौजूद हैं। लाला लाजपत राय ने लाहौर से जिस जर्नल का प्रकाशन शुरू किया, उसका नाम 'वंदे मातरम' रखा। अंग्रेज़ों की गोली का शिकार बनकर दम तोड़ने वाली आज़ादी की दीवानी मातंगिनी हज़ारा की जुबान पर आख़िरी शब्द 'वंदे मातरम' ही थे। सन 1907 में मैडम भीकाजी कामा ने जब जर्मनी के स्टटगार्ट में तिरंगा फहराया तो उसके मध्य में 'वंदे मातरम्' ही लिखा हुआ था।
गीत के ऐतिहासिक तथ्य
7 नवंबर 1876 में बंगाल के कांतल पाडा गांव में बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय ने 'वंदे मातरम' की रचना की थी।
1882 में वंदे मातरम बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय के प्रसिद्ध उपन्यास 'आनंदमठ' में सम्मिलित हुआ।
1896 में रवीन्द्र नाथ टैगोर ने पहली बार ‘वंदे मातरम’ को बंगाली शैली में लय और संगीत के साथ कलकत्ता के कांग्रेस अधिवेशन में गाया। मूलरूप से ‘वंदे मातरम’ के प्रारंभिक दो पद संस्कृत में थे, शेष गीत बांग्ला भाषा में है।
वंदे मातरम् का अंग्रेज़ी अनुवाद सबसे पहले अरविंद घोष ने किया।
दिसम्बर 1905 में कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में गीत को राष्ट्रगीत का दर्ज़ा प्रदान किया गया, बंग-भंग आंदोलन में ‘वंदे मातरम्’ राष्ट्रीय नारा बना।
1906 में ‘वंदे मातरम’ देवनागरी लिपि में प्रस्तुत किया गया, कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर ने इसका संशोधित रूप प्रस्तुत किया।
1923 में कांग्रेस अधिवेशन में वंदे मातरम् के विरोध में स्वर उठे।
पं. नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, सुभाष चंद्र बोस और आचार्य नरेन्द्र देव की समिति ने 28 अक्तूबर 1937 को कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में पेश अपनी रिपोर्ट में इस राष्ट्रगीत के गायन को अनिवार्य बाध्यता से मुक्त रखते हुए कहा था कि इस गीत के शुरुआती दो पद ही प्रासंगिक है, इस समिति का मार्गदर्शन रवीन्द्र नाथ टैगोर ने किया।
14 अगस्त 1947 की रात्रि में संविधान सभा की पहली बैठक का प्रारंभ ‘वंदे मातरम’ के साथ और समापन ‘जन गण मन...’ के साथ हुआ।
1950 ‘वंदे मातरम’ राष्ट्रीय गीत और ‘जन गण मन’ राष्ट्रीय गान बना।
राष्ट्रगीत का महत्त्व
राष्ट्रीय एकता को मज़बूत करने में गीत, संगीत और नृत्य की महत्त्व भूमिका होती है। लोगों को एकसूत्र में बांधने के साथ ही संगीत मन को खुशी भी देती है। सर्वप्रथम 1882 में प्रकाशित इस गीत को पहले-पहल 7 सितंबर, 1905 में कांग्रेस अधिवेशन में राष्ट्रगीत का दर्ज़ा दिया गया। इसीलिए 2005 में इसके सौ साल पूरे होने के उपलक्ष में एक साल के समारोह का आयोजन किया गया। 7 सितंबर, 2006 में इस समारोह के समापन के अवसर पर 'मानव संसाधन मंत्रालय' ने इस गीत को स्कूलों में गाए जाने पर बल दिया। हालांकि इसका विरोध होने पर उस समय के 'मानव संसाधन विकास मंत्री' अर्जुन सिंह ने संसद में कहा कि- "गीत गाना किसी के लिए आवश्यक नहीं किया गया है, यह स्वेच्छा पर निर्भर करता है।"
बंगाल में उद्भव, बिहार में पोषण:
स्वाधीन भारत का राष्ट्र गान जन गण मन और गणतांत्रिक भारत का राष्ट्रगीत वन्देमातरम् । दोनों रचनाओं का उद्भव बंगाल की भूमि से। दोनों को संगीत और स्वर मिला बंगाल से ही। दोनों रचनाओं का समृद्ध इतिहास है। यह संयोग है कि जिस बंगाल और बिहार की भूमि से वन्देमातरम की गूंज उठी और विश्व में छा गई, आज उसी बिहार और बंगाल में राजनीति करने वाले कुछ लोग वन्देमातरम गाना तो दूर, उसे सुनना भी नहीं चाहते। यह कहते हुए गर्व होता है कि अनेक बाधाओं और विरोधी शक्तियों के बीच बिहार के लाल बाबू राजेंद्र प्रसाद ने ही वर्ष 1950 में संविधान सभा में वन्देमातरम को राष्ट्र गीत का दर्जा देने का प्रस्ताव रखा और पास भी कराया।
बिहार में लोकनायक जयप्रकाश नारायण की संपूर्णक्रांति के समय भी वन्देमातरम् क्रांतिकारियों के लिए बहुत ऊर्जावान अभिवादन था। आपातकाल के समय के क्रांतिकारी वन्देमातरम के नारे लगाते थे और उस समय की बर्बरता के विरुद्ध आवाज उठाते थे।
बिहार का वंदेमातरम से सीधा संबंध उसके ऐतिहासिक महत्व के कारण भी है, क्योंकि यह गीत ब्रिटिश शासन के विरोध में पूरे बंगाल (जिसमें उस समय बिहार और ओडिशा भी शामिल थे) में राष्ट्रवाद का प्रतीक बन गया था। 1905 में बंगाल विभाजन के खिलाफ आंदोलन के दौरान वंदेमातरम की गूंज पूरे क्षेत्र में फैल गई, और बिहार के लोग भी इसमें शामिल हुए, जिससे यह गीत बिहार में भी राष्ट्रीय आंदोलन का एक शक्तिशाली हिस्सा बन गया।
सभी को पता है कि वंदेमातरम की रचना बंकिम चंद्र चटर्जी ने की थी और यह गीत "आनंदमठ" नामक उपन्यास का हिस्सा है। जब ब्रिटिश सरकार ने 1905 में बंगाल का विभाजन किया, तो इस गीत को बंगाल के विभाजन के विरोध में एक शक्तिशाली प्रतीक के रूप में अपनाया गया। इस विभाजन के खिलाफ हुए विरोध प्रदर्शनों में, वंदेमातरम के नारे ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक हथियार बन गए ।
बिहार के लोग भी इस आंदोलन का हिस्सा थे और उन्होंने वंदेमातरम के नारे लगाकर विरोध में भाग लिया। इसका अर्थ है कि यह गीत बिहार में भी राष्ट्रीय आंदोलन का एक अभिन्न अंग बन गया था।
यह कितनी बड़ी विडंबना है कि आज बिहार जैसे प्रदेश में ही वंदे मातरम को लेकर सर्वाधिक प्रतिरोध देखने को मिल रहा है। बिहार में सत्ता के शीर्ष पर बैठने की चाहत रखने वाली पार्टियां ही राष्ट्र गीत को सम्मान नहीं देना चाहतीं।
यहां याद दिलाना उचित होगा कि बिहार में विधानसभा के 2020 के चुनाव में जनता ने एनडीए के पक्ष में मतदान कर फिर से नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनने का मौका दिया था। बिहार में एनडीए की सरकार बनने के बाद बीजेपी के विधायक विजय कुमार सिन्हा विधानसभा अध्यक्ष बने थे। तब विधानसभा अध्यक्ष के तौर पर विजय कुमार सिन्हा ने सदन के अपने सभी सदस्यों के साथ मिलकर ये निर्णय लिया था कि अब विधानमंडल सत्र का समापन राष्ट्रीय गीत वंदे मातरम गाकर किया जाएगा। दो साल तक ये प्रथा चलती रही और विधानमंडल के समापन सत्र में राष्ट्रगीत वंदे मातरम गाया जाने लगा। लेकिन 2022 में महागठबंधन की सरकार बनने के बाद हुए पहले विधानसभा सत्र में ही एनडीए के समय लिए गए निर्णय को बदल दिया गया। यानी अब बिहार विधान मंडल के समापन सत्र में राष्ट्रगीत वंदे मातरम नहीं गाया जाएगा।
बिहार विधानसभा में जुलाई 2022 में राजद विधायक सऊद आलम ने वंदे मातरम गाने से इनकार कर दिया। सऊद आलम ने कहा कि भारत एक हिंदू राष्ट्र नहीं है। ठाकुरगंज से आरजेडी विधायक सऊद आलम ने जब वंदे मातरम गाने से इनकार कर दिया उसके बाद बाद सत्ता पक्ष के नेताओं ने इसका विरोध किया। हंगामा होता देख वे सदन से बाहर निकल गए। सऊद आलम से जब पूछा गया कि वंदेमातरम् गाने से आपको क्या दिक्कत है। इस सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि हमारा राष्ट्रगान- जन,गण,मन है न कि वंदेमातरम्। इसलिए मैं खड़ा नहीं हुआ। उनका जवाब था कि देश सेकुलर मुल्क है, अभी हिंदू राष्ट्र नहीं हुआ है। हमारा राष्ट्रगान- जन, गण, मन…है। इसलिए मैं वंदेमातरम् के दौरान खड़ा नहीं हुआ हुआ हूं।’
इस घटना का वीडियो सोशल मीडिया पर तेजी से वायरल हुआ था। वह अभी भी उपलब्ध है। वीडियो में देखा जा सकता है कि सीएम नीतीश कुमार और नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव समेत सभी मंत्री और विधायक खड़े थे, लेकिन केवल मुस्लिम विधायक वंदे मातरम् के दौरान अपनी सीट से टस से मस नहीं होते।
उस समय आरजेडी के ही विधायक अख्तरुल इस्लाम शाहीन ने सऊद आलम का बचाव करते हुए कहा था कि वंदे मातरम् के लिए खड़ा होना अनिवार्य नहीं। सिर्फ जन गन मन में खड़ा हो सकते हैं। वंदे मातरम् के दौरान खड़ा होने के लिए कोई भी हम लोगों पर दबाव नहीं बना सकता।
यह शर्म की बात है कि तब महागठबंधन का कोई नेता वन्देमातरम के पक्ष में सामने नहीं आया। बिहार बीजेपी नेताओं ने इस पूरे मसले पर आरजेडी पर हमला बोला । यह इतिहास गवाह है कि बिहार के हजारों नौजवानों ने वन्देमातरम गाते हुए फांसी के फंदे को चूमा है। उस वंदेमातरम् का अपमान करने वाले व्यक्ति को किसी सदन और भारत में रहने का अधिकार होना चाहिए? बिहार में यह पहली बार नहीं था कि जब किसी राजद नेता ने वंदेमातरम् का अपमान किया हो। इससे पहले भी राजद नेता अब्दुल बारिश सिद्दीकी ने कहा था कि वंदेमातरम् पढ़ना उनके धार्मिक विश्वासों का उल्लंघन है। सिद्दीकी ने यहां तक कह दिया था कि जो लोग एक ईश्वर को मानते हैं। वे कभी भी वंदेमातरम् नहीं गाएंगे।
वन्देमातरम को लेकर विपक्ष की भावना कैसी है, यह अब जग जाहिर हो चुका है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने सरदार वल्लभ भाई पटेल की 150वीं जयंती पर स्पष्ट कहा था कि कांग्रेस पार्टी को गुलाम मानसिकता अंग्रेजों से मिली है। बंगाल विभाजन के समय वंदे मातरम देश की एकजुटता की आवाज बना तो अंग्रेजों ने इस पर प्रतिबंध लगाने की कोशिश की पर असफल रहे। पर जिस काम में अंग्रेज सफल नहीं हुए, उसे कांग्रेस ने कर दिखाया और वंदेमातरम के एक हिस्से को धार्मिक आधार पर हटा दिया। इसी बीच महाराष्ट्र में भी समाजवादी पार्टी के नेता अबू आजमी ने वंदेमातरम पर विवाद पैदा करने की कोशिश की है।
आज देश के समक्ष यह स्पष्ट करना आवश्यक हो गया है कि ये कौन लोग हैं जिनको भारत का राष्ट्र गीत भी पसंद नहीं आ रहा। वंदेमातरम पर विवाद कब-कब उठा और कांग्रेस ने इसका एक हिस्सा क्यों हटाया था? आखिर इसमें ऐसा क्या है जिसको मुद्दा बार बार मुद्दा बना दिया जाता है?
वंदे मातरम की रचना बंकिम चंद्र चटर्जी ने की थी। उन्होंने अपने संस्कृतनिष्ठ बांग्ला उपन्यास आनंदमठ में यह पूरा गीत लिखा है और बेहद इतनी कम पंक्तियों में पूरी मातृभूमि और इसकी महानता का वर्णन किया है। साल 1870 में इसकी रचना हुई और साल 1882 में यह प्रकाशित हुआ। साल 1896 में गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने पहली बार इसे गाया था। उसी दौर से कुछ तुष्टिकरण वाले लोगों ने इसका विरोध शुरू किया था। मुस्लिम नेताओं ने कहा कि इस गीत में देवी का वर्णन किया गया है। यह एक तरह से मूर्तिपूजा है और इस्लाम में यह मंजूर नहीं है।
आजादी से पहले ही
उठा था विवाद
वंदे मातरम आजादी के आंदोलन के दौरान पूरे देश में लोकप्रिय हो गया और कांग्रेस के अधिवेशनों का तो अनिवार्य हिस्सा बन गया था। खुद मोहम्मद अली जिन्ना शुरू में इस गीत को पसंद करते थे। बाद में कुछ मुसलमानों को इस पर आपत्ति होने लगी, क्योंकि इस गीत में देश को देवी दुर्गा के रूप में देखा गया है। उन्हें रिपुदलवारिणी यानी दुश्मनों का संहार करने वाला कहा गया है।
इस रिपुदलवारिणी शब्द को लेकर काफी विवाद हुआ था। मुसलमानों को लगा कि इसमें रिपु यानी दुश्मन शब्द का इस्तेमाल उनके लिए किया गया है, जबकि विशेषज्ञों का मानना है कि उस समय अंग्रेजों को रिपु यानी दुश्मन माना गया होगा। हालांकि मुसलमानों का विरोध बढ़ने लगा तो आपत्तियों की पड़ताल के लिए साल 1937 में कांग्रेस ने एक समिति बनाई थी। उसमें गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, मौलाना अबुल कलाम आजाद और पंडित जवाहरलाल नेहरू शामिल थे।
कांग्रेस ने लगाई पाबंदी
बाद में अफवाह उड़ी कि पंडित जवाहरलाल नेहरू और रवींद्रनाथ टैगोर ने इस गीत को लेकर आपस में चर्चा की और गुरुदेव की सहमति से इस गीत के अंश हटाए गए हैं। इस गीत के पहले दो चरण ही स्वीकृत किए गए, जिनको समावेशी और धर्मनिरपेक्ष माना गया। दरअसल, समिति का मानना था कि इस गीत के शुरुआती दो पद मातृभूमि की प्रशंसा में हैं। इसलिए फैसला लिया गया कि वंदे मातरम के शुरुआती दो पदों को ही राष्ट्रगीत के रूप में इस्तेमाल किया जाए। इस पर गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की लोगों ने आलोचना की तो उन्होंने 2 नवंबर 1937 को एक पत्र लिखा कि कांग्रेस के कलकत्ता (अब कोलकाता) अधिवेशन में यह गीत खुद मैंने गाया था।
हालांकि, आंशिक रूप से इस गीत के अंश हटाए जाने पर मुस्लिम लीग से जुड़े नेता संतुष्ट नहीं हुए। खुद मोहम्मद अली जिन्ना ने 17 मार्च 1938 को पंडित नेहरू से मांग की कि वंदे मातरम को पूरी तरह से त्याग दिया जाए। यही मांग उन्होंने मुंबई में महात्मा गांधी से भी की। हालांकि महात्मा गांधी ने इस पर कोई फैसला नहीं लिया। हरिजन पत्रिका में उन्होंने जरूर लिखा कि हिंदू और मुसलमान जहां एकत्रित होंगे, वहां वंदे मातरम को लेकर मैं कोई बवाल बर्दाश्त नहीं करूंगा। हालांकि, साल 1940 में कांग्रेस की नियमावली में वंदे मातरम को गाने पर पाबंदी लगा दी गई।
आजादी के बाद बना राष्ट्रीय गीत
अनेक विवाद के बावजूद देश की आजादी के बाद साल 1950 में इस राष्ट्रीय गीत घोषित किया गया। 24 जनवरी 1950 को डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने संविधान सभा में वंदे मातरम को राष्ट्रगीत के रूप में अपनाने का वक्तव्य पढ़ा, जिसे स्वीकार कर लिया गया।
महाराष्ट्र में खड़ा हुआ ताजा विवाद
समय-समय पर वंदे मातरम को लेकर विवाद खड़ा होता रहता है। ताजा उदाहरण महाराष्ट्र का है। दरअसल, 31 अक्तूबर (2025) को वंदे मातरम गीत के 150 साल पूरे हो गए हैं। इस पर देवेंद्र फडणवीस की अगुवाई वाली महाराष्ट्र सरकार ने आदेश जारी किया है कि राज्य के सभी स्कूलों में 31 अक्तूबर से 7 नवंबर तक राष्ट्रगीत का पूरा संस्करण गाया जाएगा। राज्य के स्कूल शिक्षा विभाग ने 27 अक्तूबर को इस संबंध में आदेश जारी किया है।
इस आदेश का समाजवादी पार्टी (सपा) के नेता अबू आजमी ने विरोध किया है। उन्होंने कहा है कि वंदे मातरम को गाना अनिवार्य नहीं करना चाहिए क्योंकि सबकी आस्थाएं अलग-अलग होती हैं। अबू आजमी ने कहा है कि इस्लाम मां के सम्मान को अत्यधित महत्व देता है पर उसके सामने सजदा करने की इजाजत नहीं देता है।
साल 2019 में मध्य प्रदेश में भी इसको लेकर विवाद खड़ा हुआ था, तब कमलनाथ की अगुवाई वाली सरकार ने इसकी अनिवार्यता पर अस्थायी रूप से बैन लगा दिया था। हालांकि, बाद में अपना फैसला पलटते हुए आदेश जारी किया था कि इसका आयोजन पुलिस बैंड के साथ किया जाएगा।
सुप्रीम कोर्ट दे चुका है फैसला
वंदे मातरम का विवाद सुप्रीम कोर्ट तक जा चुका है। इससे जुड़ी एक याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया था कि अगर कोई व्यक्ति राष्ट्रगान का सम्मान करता है पर उसे गाता नहीं, तो इसका यह आशय नहीं कि वह इसका अपमान कर रहा है। इसलिए इसे नहीं गाने के लिए किसी व्यक्ति को दंडित अथवा प्रताड़ित नहीं किया जा सकता है। चूंकि वंदे मातरम राष्ट्रगीत है, इसलिए इसको जबरदस्ती गाने के लिए मजबूर करने पर भी यही नियम लागू होगा।
साल 2017 में उत्तर प्रदेश में वंदे मातरम को लेकर विवाद हुआ था। कई शहरों में इसको गाए जाने को लेकर वाद-विवाद होने लगा था। खासकर इलाहाबाद (अब प्रयागराज) और मेरठ नगर निगम में इसको गाने को लेकर विवाद हुआ था।
साल 2023 में भी महाराष्ट्र में वंदे मातरम को लेकर विवाद हुआ था। तब भी अबु आजमी ने ही राज्य विधानसभा में वंदे मातरम गाने से इनकार किया था। उनका तर्क वही था कि अल्लाह के अलावा इस्लाम में किसी और के आगे झुकने की इजाजत नहीं है।
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