आचार्य कृतकृत्य
भारतीय संस्कृति और सभ्यता में ब्राह्मण की भूमिका हमेशा से धर्म और न्याय की स्थापना करने वाली रही है। ब्राह्मण ने कभी जातीय अहंकार या संकीर्णता का मार्ग नहीं अपनाया, बल्कि सत्य और धर्म को सर्वोपरि मानकर समाज को दिशा दी। यही कारण है कि जब भी अधर्म ने विद्या, बल या सत्ता का मुखौटा ओढ़कर समाज को भ्रमित करने का प्रयास किया, तब ब्राह्मण ने अपने ही वर्ग या कुल के व्यक्ति को भी कठघरे में खड़ा करने का साहस दिखाया।
प्रश्न उठता है कि रावण जैसा महाग्यानी, शिवभक्त और वेदों का ज्ञाता ब्राह्मण क्यों हर वर्ष दहन किया जाता है? जबकि दुशासन-दुर्योधन ने भरे दरबार में नारी का अपमान किया, हिरण्यकश्यप ने ईश्वरभक्ति के विरोध में अपने पुत्र प्रह्लाद को यातनाएँ दीं, और कंस ने अपनी बहन देवकी के सात पुत्रों की निर्मम हत्या कर दी—फिर इनके पुतले क्यों नहीं जलते?
इसका उत्तर यही है कि रावण ने अपनी अद्वितीय विद्या और तपस्या को भी अहंकार और अधर्म के मार्ग पर खर्च किया। उसने मर्यादा पुरुषोत्तम राम की पत्नी का अपहरण किया और धर्म की सीमाओं का अतिक्रमण किया किंतु माता सीता के स्त्रीत्व एवं मर्यादा का अतिक्रमण भी नहीं किया। फिर भी स्त्री का अपहरण ही धर्म मर्यादा के प्रतिकूल था। यही कारण है कि ब्राह्मण समाज ने स्वयं निर्णय लिया कि उसका दहन होना चाहिए। यह कोई जातिगत विरोध नहीं था, बल्कि एक स्पष्ट संदेश था—अधर्म करने वाला यदि ब्राह्मण भी होगा तो उसका निषेध होगा।
यदि रावण किसी अन्य जाति का होता, तो संभव है कि आज उसके पुतले का दहन रोकने को लेकर जातिवाद की राजनीति शुरू हो जाती। परंतु ब्राह्मण समाज ने कभी इस राह को नहीं चुना। उसने न तो जातीय सुरक्षा का कवच ओढ़ा, न ही राजनीतिक लाभ के लिए इस परंपरा को बदला। ब्राह्मण की दृष्टि हमेशा कर्म और धर्म पर रही, जाति पर नहीं।
रावण दहन केवल एक परंपरा नहीं है, बल्कि यह अहंकार और अधर्म पर विजय का प्रतीक है। यह संदेश देता है कि चाहे कोई कितना ही विद्वान या सामर्थ्यवान क्यों न हो, यदि वह धर्म से भटकता है, तो उसका अंत अवश्य होगा और यह साहस केवल ब्राह्मणों ने दिखाया कि वे अपने ही कुल के व्यक्ति को अधर्म के लिए समाज के सामने प्रतीक बनाकर जलाते आए।
आज जब समाज जातिवाद के दलदल में फँसता दिखाई देता है, तब रावण दहन की यह परंपरा हमें याद दिलाती है कि ब्राह्मण का धर्म संकीर्ण नहीं है। वह केवल न्याय और सत्य के पक्ष में खड़ा होता है। यही कारण है कि ब्राह्मण समाज आज भी राष्ट्र और समाज को सही दिशा देने का कार्य कर रहा है—निष्पक्ष होकर, न्यायपूर्ण होकर, और धर्म को सर्वोपरि मानकर।
( लेखक भारतीय ज्ञान परंपरा और जीवन मूल्य के दार्शनिक चिंतक हैं )
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