- जरूरत है संतो और सूफियाना सफर को मजबूत करने की
- समय की मांग है कि अपने संतों सूफी के बताए मार्ग पर युवाओं को ले जाना होगा
- इसने हिंदू भक्ति और बौद्ध चिंतन जैसी स्थानीय परंपराओं के साथ घुल-मिलकर खुद को ढाल लिया जाता है
आज का युवा संत और सूफी के विचारों से दूर हो रहे है। जिस देश में राम के साथ रहीम, सूरदास के साथ रसखान का नाम आज भी लिया जाता है। वही आज युवाओं को बम ओर बारूद की पाठ पढ़ाई जाती है।यही कारण है कि वह अपने अतीत को भूलकर दुनिया की भागदौड़ में, जहाँ एल्गोरिदम इच्छाओं को निर्देशित करते हैं और पहचानों को लेकर संघर्ष छिड़ा हुआ है, प्राचीन आध्यात्मिक मार्गों की ओर मुड़ना एक गहरी ज़मीनी पहचान है। इस्लाम की रहस्यमयी धड़कन, सूफीवाद, आज अतीत के अवशेष के रूप में नहीं, बल्कि एक जीवंत ज्ञान के रूप में गूंजता है जो सीधे हमारी खंडित आत्माओं से बात करता है। यह बात भारत से ज़्यादा कहीं और स्पष्ट रूप से दिखाई देती है, जो वैश्विक सूफीवाद का केंद्र है। जहाँ यह एक विविध और अक्सर अशांत समाज के ताने-बाने में गहराई से समाया हुआ है। सूफीवाद की शिक्षाएँ न केवल सांत्वना प्रदान करती हैं, बल्कि समकालीन जीवन की अराजकता से निपटने के लिए एक क्रांतिकारी खाका भी प्रस्तुत करती हैं। यह एक ऐसी आध्यात्मिकता है जो हठधर्मिता से परे है, और प्रेम, आंतरिक शांति और मानवीय जुड़ाव पर ज़ोर देती है, ऐसे युग में जहाँ इन तीनों की सख्त ज़रूरत है।भारत में सूफीवाद की यात्रा सदियों पहले शुरू हुई थी, जो मध्यकाल में फारसी रहस्यवाद की हवाओं के साथ आगे बढ़ी। भौतिक अतिरेक और सामाजिक भ्रष्टाचार के प्रति प्रतिक्रिया के रूप में प्रारंभिक इस्लामी दुनिया में उत्पन्न, सूफीवाद ने तप, ध्यान और कविता के माध्यम से ईश्वर से सीधे संपर्क की कोशिश की। जब यह 12वीं शताब्दी के आसपास उपमहाद्वीप में पहुंचा, तो इसने खुद को थोपा नहीं; बल्कि, इसने हिंदू भक्ति और बौद्ध चिंतन जैसी स्थानीय परंपराओं के साथ घुल-मिलकर खुद को ढाल लिया। यह समन्वयवाद कोई संयोग नहीं था। सूफी संतों, या पीरों ने भारत के सामाजिक-धार्मिक और आध्यात्मिक परिदृश्य में ईश्वर की सार्वभौमिक खोज को पहचाना। इस सम्मिश्रण का प्रतीक चिश्ती संप्रदाय था, जिसकी स्थापना ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती ने अजमेर में की थी। ख्वाजा भारत में किसी विजेता या किसी अभियान के हिस्से के रूप में नहीं, बल्कि एक साधक और आरोग्यदाता के रूप में आए थे, और उन्होंने एक दरगाह (मंदिर) की स्थापना की थी। सूफीवाद इस्लाम के भीतर एक उदारवादी सुधार आंदोलन था, जिसकी उत्पत्ति फारस में हुई थी। सूफीवाद भारत में 10-11वीं शताब्दी में आया और 12वीं शताब्दी में लोकप्रिय हुआ। 12वीं शताब्दी तक सूफियों को 12 सिलसिलों में संगठित किया गया था। सिलसिला आमतौर पर एक प्रमुख फकीर के नेतृत्त्व में होता था जो अपने शिष्यों के साथ खानकाह या धर्मशाला में रहता था।चार सबसे लोकप्रिय सिलसिले थे:चिश्ती, सुहरावर्दी, कादरी-रियास और नक्शबंदी। सूफीवाद की मुख्य विशेषताएँ: मौलिक सिद्धांत: ईश्वर एवं मनुष्य के बीच प्रेम का संबंध सूफीवाद का आधार है। केंद्रीय विचार: आत्मा का विचार, दैवीय निकटता, दिव्य प्रेम और आत्म-विनाश सूफीवाद के सिद्धांत के केंद्र में हैं। मानव प्रेम: सूफीवाद के अनुसार, ईश्वर से प्रेम का अर्थ मानवता से प्रेम है और इस प्रकार उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि ईश्वर की सेवा मानवता की सेवा के अलावा और कुछ नहीं है। समानता में विश्वास: सूफीवाद सभी धार्मिक और सांप्रदायिक भेदों से परे है तथा सभी मनुष्यों को समान मानता है। आत्म अनुशासन: सूफीवाद आत्म अनुशासन पर भी ज़ोर देता है और इसे ईश्वर का ज्ञान प्राप्त करने के लिये आवश्यक मानता है। आंतरिक पवित्रता: यह रूढ़िवादी मुस्लिम संप्रदायों (जो कि बाहरी आचरण पर ज़ोर देते हैं) के विपरीत सूफीवाद आंतरिक शुद्धता पर ज़ोर देता है।
वर्तमान समय में सूफीवाद की प्रासंगिकता:
समाज में बढ़ती असहिष्णुता और हिंसा के साथ सूफीवाद वर्तमान समय में और भी महत्त्वपूर्ण हो गया है।अहिंसा: सूफीवाद ईश्वर के प्रति प्रेम और भक्ति में विश्वास करता है। इसके आदेश में हिंसा के लिये कोई स्थान नहीं है। यह तालिबान द्वारा अनुसरण किये जाने वाले इस्लाम के हिंसक और कट्टरपंथी रूप के विपरीत है। प्राणियों में समानता: यह किसी भी सामाजिक वर्गीकरण जैसे- धर्म, जाति, वर्ग या लिंग में विश्वास नहीं करता है। लोगों में बढ़ते मतभेदों के बीच सूफीवाद सभी मनुष्यों की आवश्यक समानता का संदेश देता है।
सामजिक कल्याण: यह सामाजिक कल्याण पर ज़ोर देता है जिसके परिणामस्वरूप धर्मार्थ प्रकृति के कार्यों के साथ-साथ अनाथालय और महिला सेवा केंद्रों की स्थापना करना है। निजामुद्दीन औलिया धर्म या जाति से परे ज़रूरतमंदों के बीच उपहार बाँटने के लिये प्रसिद्ध थे। सामाजिक कल्याण के कार्यों का महत्त्व कोविड-19 महामारी के दौरान महसूस किया गया।
नैतिकता: ऐसे समय में जब सत्ता के लिये संघर्ष प्रचलित पागलपन है, सूफीवाद लोगों को उनके नैतिक दायित्वों की याद दिलाता है। कलह और संघर्षपूर्ण इस दुनिया में यह शांति एवं सद्भाव का संदेश देता है। ध्यान: सूफीवाद द्वारा ध्यान पर अत्यधिक बल दिया गया। ध्यान हमारे शरीर और दिमाग में बढ़ते तनाव को शांति और संतुलन प्रदान करता है जो भावनात्मक बल प्रदान कर व्यक्ति की भलाई और समग्र स्वास्थ्य दोनों का लाभ पहुँचा सकता है। ( अशोक झा की रिपोर्ट )
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