- गोरखा के बलिदानी इतिहास को गौरांवित करने वाले को किया गया याद
- फांसी पर चढ़ने से पहले पत्नी से कहा था देश आजाद होगा, मेरा बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा
आज़ादी के संघर्ष की दास्तान में कई ऐसे नाम हैं, जिन्हें इतिहास ने भले कम लिखा हो, लेकिन उनके बलिदान ने भारत को स्वतंत्रता दिलाने की राह आसान की। ऐसा ही एक नाम है मेजर दुर्गामल। आज उनकी पुण्यतिथि पर सिलीगुड़ी प्रधाननगर में भानु भक्त समिति की ओर से समारोह पूर्वक वीर जवान चौक पर उन्हें याद किया गया। इस मौके पर रक्तदान शिविर का आयोजन भी किया गया। इसमें रामभजन महतो बोरो चेयरमैन के साथ भाग लिया। भानुभक्त समिति की ओर से कृष्णा लामा ने कहा कि ब्रिटिश अदालत ने उन्हें फाँसी की सजा सुनाई। 25 अगस्त 1944 को, मात्र 31 साल की उम्र में, वे हँसते-हँसते फाँसी के फंदे पर झूल गए। उन्होंने फाँसी से पहले पत्नी शारदा से कहा,’मैं जो बलिदान दे रहा हूँ, वह व्यर्थ नहीं जाएगा। भारत आज़ाद होगा। शारदा! करोड़ों हिंदुस्तानी तुम्हारे साथ हैं।
कौन थे मेजर दुर्गा मल : मेजर दुर्गामल का जन्म 1 जुलाई 1913 को देहरादून के पास डोईवाला में गोरखा नेवार परिवार में हुआ। बचपन से ही दुर्गामल में देशप्रेम की ज्वाला थी। मात्र 18 साल की उम्र में वे धर्मशाला आकर 2/1 गोरखा राइफल्स में भर्ती हो गए। बाद में नेताजी सुभाष चंद्र बोस के आह्वान पर उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत की नौकरी छोड़कर आज़ाद हिंद फौज जॉइन की।
युद्ध का मैदान और वीरता: बर्मा और दक्षिण-पूर्व एशिया में ब्रिटिश सेना से लोहा लेते हुए वे अपनी बहादुरी और नेतृत्व के दम पर मेजर बने। लेकिन 27 मार्च 1944 को कोहिमा में वे अंग्रेजों के हाथों कैद हो गए। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान पकड़े गए आजाद हिन्द सेना के सैनिकों पर अंग्रेजों ने दिल्ली के लालकिले में ऐतिहासिक फौजी अदालत बिठाई। मेजर दुर्गामल पर विद्रोह और हत्या जैसे गंभीर आरोप लगे। उनके साथ कर्नल शहनवाज़ खान, कैप्टन प्रेमकुमार सहगल और गुरबख्श सिंह ढिल्लों जैसे बड़े नाम भी थे, जिन पर लालकिले की ऐतिहासिक फौजी अदालत में केस चला। बोले- बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा:
लालकिले में यह मुकदमा केवल एक कानूनी लड़ाई नहीं था, बल्कि पूरे देश में स्वतंत्रता की आग को और भड़काने वाला आंदोलन बन गया। अख़बारों से लेकर गलियों तक ‘आज़ाद हिंद फौज ज़िंदाबाद’ और ‘मेजर दुर्गामल अमर रहें’ के नारे गूंजने लगे। ( बंगाल से अशोक झा की रिपोर्ट )
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