- 6 जुलाई, 1901 को कलकत्ता में जन्मे, एक बहुमुखी व्यक्तित्व थे - देशभक्त, शिक्षाविद्, सांसद, राजनेता और मानवतावादी
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अगर किसी ने इस देश की धरती पर राष्ट्रवाद का पहला बीज बोया, तो वह डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी थे। उन्होंने देश में 'राष्ट्र प्रथम' की भावना को जगाया। आज यदि बंगाल हमारे पास न होता तब भारत का उत्तर पूर्व का भाग भी हमारे साथ नहीं होता है। आज भारत को जोड़ने वाले चिकन नेक के सामरिक महत्व को हम सभी समझ रहे हैं। आर्थिक दृष्टि से बंगाल की खाड़ी का महत्व कलकत्ता के साथ जोड़कर ही देखा जा सकता है। जिस खतरे का डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने अनुमान कर अपनी दूर दृष्टि से बंगाल को भारत के साथ रख कर दिया। आज वह संकट बंगाल में हम सभी के सम्मुख खड़ा दिखाई दे रहा है। डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी प्रधानमंत्री नेहरू सरकार में उद्योग मंत्री थे। भारत विभाजन के समय पाकिस्तान में रह रहे हिंदुओं का मतान्तरण, अत्याचार एवं भारत में आए शरणार्थी हिंदुओं की उपेक्षा के कारण वह बहुत दुखी थे। समस्या के समाधान के लिए नेहरु लियाकत समझौता भी पक्षपात पूर्ण होने के कारण उन्होंने हिंदुओं के प्रति नेहरू सरकार के उपेक्षापूर्ण व्यवहार के कारण अपना त्यागपत्र दे दिया और कलकत्ता आकर शरणार्थी हिंदू समाज की सेवा में जुड़ गए। जब उस समय की सरकारें राष्ट्र के खिलाफ फैसले ले रही थीं, तो उन्होंने अपने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और भारत की एकता के लिए लड़ाई लड़ी। 'एक राष्ट्र में दो संविधान, दो प्रधान और दो झंडे नहीं हो सकते' - यह कहने का उनमें साहस था।"श्याम प्रसाद मुखर्जी भारतीय जनसंघ के संस्थापक थे, जो भाजपा का वैचारिक मूल संगठन है। 6 जुलाई, 1901 को कलकत्ता में जन्मे, एक बहुमुखी व्यक्तित्व थे - देशभक्त, शिक्षाविद्, सांसद, राजनेता और मानवतावादी। उन्हें अपने पिता सर आशुतोष मुखर्जी से विद्वता और राष्ट्रवाद की विरासत मिली, जो कलकत्ता विश्वविद्यालय के एक सम्मानित कुलपति और कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश थे। 1940 में, वे हिंदू महासभा के कार्यवाहक अध्यक्ष बने और भारत की पूर्ण स्वतंत्रता को अपना राजनीतिक लक्ष्य घोषित किया। गांधी हत्याकांड के बाद प्रतिबंध के दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) को समान विचारधारा वाले ऐसे राजनीतिक दल की आवश्यकता अनुभव होने लगी थी जो संसद और बाहर संघ का पक्ष मजबूती से रख सके। 15 अप्रैल 1950 को पंडित नेहरू मंत्रिमंडल से श्यामा प्रसाद मुखर्जी के इस्तीफे के बाद संघ और उसके शुभचिंतकों ने उनका सार्वजनिक अभिनंदन किया।उस वक्त तक मुखर्जी की हिंदू महासभा से दूरियां बहुत बढ़ चुकी थीं.
संघ के सहयोग से एक नए दल के गठन के लिए वे प्रयत्नशील थे. संघ के अनेक पदाधिकारी भी इसे लेकर उत्साहित थे. लेकिन संघ प्रमुख गोलवरकर किसी राजनीतिक दल से संघ के जुड़ाव को लेकर दुविधा में थे. पहला आम चुनाव निकट था. मुखर्जी और इंतजार करने को तैयार नहीं थे. उनके समर्थकों ने ओडिशा में गणतंत्र परिषद नाम से एक नए दल की घोषणा कर दी। उधर, मुखर्जी बंगाल वापस गए और उन्होंने “इंडियन पीपुल्स पार्टी” नाम से एक नया दल बना लिया। इस मुकाम पर संघ को अनुभव हुआ कि और विलंब की स्थिति में डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व से वंचित होना पड़ेगा. फिर संघ राजी हुआ. मुखर्जी के नेतृत्व में भारतीय जनसंघ के गठन की घोषणा हुई. उनकी “इंडियन पीपुल्स पार्टी” का जनसंघ में विलय हुआ। संघ और मुखर्जी: एक-दूजे की जरूरत
8 अप्रैल 1950 को दिल्ली में नेहरू- लियाकत समझौते को डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने बंगाल के हिंदुओं के साथ धोखा बताया था. नेहरू मंत्रिमंडल से इसी के विरोध में 15 अप्रैल 1950 को उन्होंने इस्तीफा दिया. सरदार पटेल का 15 दिसंबर 1950 को निधन हो चुका था। पटेल की मृत्यु के बाद कांग्रेस अध्यक्ष पुरुषोत्तम दास टंडन ने पंडित नेहरू के दबाव में पद से इस्तीफा दे दिया था। शुरुआत में टंडन से उत्साहित संघ उनसे निराश था. संघ को अब मुखर्जी से उम्मीदें थीं.
मुखर्जी को भी नए राजनीतिक दल के लिए एक सशक्त संगठन के सहयोग की जरूरत थी। दोनों ही एक-दूसरे को आकर्षित कर रहे थे. गुरु गोलवरकर से मुखर्जी ने भेंट की। सहयोगी राजनीतिक दल की जरूरत महसूस करते हुए भी गुरु जी को चिंता थी कि राजनीतिक सत्ता का आकर्षण कहीं संघ के स्वयंसेवकों को उद्देश्य से भटका न दे
हाथी नहीं बनना, उस पर अंकुश की जरूरत: गांधी हत्याकांड के बाद प्रतिबंध के दौरान संघ को खासतौर पर संसद में अपनी विचारधारा के सांसदों का अभाव खला था. वहां उसका पक्ष रखने वाला कोई नहीं था. 11 जुलाई 1949 को प्रतिबंध हटने के बाद ही संघ की अगली कतार का एक बड़ा वर्ग अनुकूल राजनीतिक दल के गठन के पक्ष में सक्रिय था. संघ प्रमुख गुरुजी भी इसके विरुद्ध नहीं थे. लेकिन वैचारिक समर्थन के लिए वे किसी एक दल तक संघ को सीमित करने की जगह हर दल में संघ समर्थकों के समूह के पक्षधर थे.
दत्तोपंत ठेंगड़ी के अनुसार, “गुरुजी इस बात को अनुभव करते थे कि हिंदू हितों को एक दल से संबद्ध करने पर वे संकुचित हो जाएंगे. उनकी दबाव क्षमता कम हो जाएगी. हिंदू हितों के प्रवक्ता यदि सभी दलों में रहते हैं तो दबाव क्षमता ज्यादा रहेगी. अखिल भारतीय स्तर पर सत्ता के लिए राजनीतिक दल का निर्माण हमें हिंदू हितों से विमुख कर सकता है. वे राजनीति में हिंदू संगठन को प्रेशर ग्रुप की भूमिका में चाहते थे. हाथी बनने की जगह हाथी पर अंकुश लगाने की भूमिका में.”
पहला आमचुनाव: नए दल के लिए वक्त कम
भारतीय जनसंघ के संस्थापकों में शामिल बलराज मधोक के अनुसार पहला आम चुनाव निकट था. कम समय के भीतर नए दल को चुनावों में अपनी प्रभावी उपस्थिति दर्ज करने की खासी चुनौती थी. मुखर्जी को इसका अहसास था. वे अधिक दिनों तक इंतजार नहीं कर सकते थे. संघ के अनेक नेता नए दल को लेकर उत्साहित थे. लेकिन संघ प्रमुख गुरुजी की सहमति शेष थी.
मधोक ने अपनी आत्मकथा में लिखा, “दल का घोषणापत्र तो तैयार हो गया लेकिन संघ नेतृत्व अभी भी प्रस्तावित दल की भूमिका के विषय में कोई निश्चित मत नहीं बना पाया. वह डॉक्टर मुखर्जी को कुछ समय और प्रतीक्षा के लिए कहता रहा. लेकिन डॉक्टर मुखर्जी राजनीति में समय के महत्व को समझते थे. वे चुनावों से पहले प्रस्तावित दल का संगठनात्मक ढांचा तैयार कर लेना चाहते थे. ओडिशा के उनके सहयोगियों ने अधिक प्रतीक्षा करना उचित नहीं समझा और अपना अलग दल “गणतंत्र परिषद” के नाम से बना डाला. तब डॉक्टर मुखर्जी को चिंता हुई. इसलिए वे बंगाल लौट गए और वहां उन्होंने “इंडियन पीपुल्स पार्टी” के नाम से अपने राजनीतिक संगठन की घोषणा कर दी।"
आखिर संघ हुआ तैयार: यह मुकाम था जब संघ को अनुभव हुआ कि अगर मुखर्जी का नेतृत्व चाहिए तो उसे दल के संबंध में जल्दी फैसला लेना होगा. मधोक के अनुसार, “1951 के शुरू में संघ की ओर से दिल्ली के संघचालक हंसराज गुप्त, प्रांत संघचालक बसंत राव ओक और मैं डॉक्टर मुखर्जी से उनके पूसा रोड स्थित निवास स्थान पर मिले और उनके नेतृत्व में अखिल भारतीय राजनीतिक दल के गठन में पूर्ण सहयोग का आश्वासन दिया. कुछ दिनों बाद मुखर्जी की अध्यक्षता में संपन्न बैठक में तय किया गया कि प्रस्तावित दल का नाम भारतीय जनसंघ रखा जाए. यह भी तय किया गया कि अखिल भारतीय स्तर पर जनसंघ की औपचारिक स्थापना के पहले कुछ राज्यों में जनसंघ की इकाइयां गठित कर ली जाए.”
वर्तमान अंधकारमय- भविष्य उज्ज्वल
भारतीय जनसंघ की स्थापना में लाला हंसराज गुप्त (दिल्ली प्रांत संघचालक), बसंतराव ओक (दिल्ली प्रांत प्रचारक), धर्मवीर (पंजाब प्रांत कार्यवाह), बलराज मधोक और भाई महावीर प्रमुख भूमिका में थे. अलग-अलग प्रदेशों में जिन्हें यह दायित्व दिया गया, वे थे, उत्तर प्रदेश में दीनदयाल उपाध्याय और नानाजी देशमुख, मध्यभारत में मनोहर राव मोघे, राजस्थान में सुंदर सिंह भंडारी, बिहार में ठाकुर प्रसाद आदि.
21 अक्टूबर 1951 को दिल्ली के आर्य कन्या उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में सम्पन्न राष्ट्रीय सम्मेलन में डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी की अध्यक्षता में भारतीय जनसंघ की स्थापना हुई. भाई महावीर महामंत्री बनाए गए. इस अवसर पर मुखर्जी ने कहा था, “हम भारत के पुनर्जागरण और पुनर्निर्माण के लिए प्रतिबद्ध हैं. अपने वर्ग, जाति और धर्म के भेदों को भूल कर भारतमाता की सेवा में जुट जाएं. वर्तमान जितना भी अंधकारमय हो लेकिन भविष्य उज्जवल है. हमारी पार्टी का प्रतीक चिह्न दीपक है. वह आशा, एकता, प्रतिबद्धता और साहस का प्रकाश फैला रहा है। ( बंगाल से अशोक झा की कलम से )
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