- यह महीना मां पार्वती और भगवान शिव के मिलन का प्रतीक मास
-इसी माह में प्रकृति भी बाबा भोले के लिए परिवर्तित हो जाती है
- भगवान शिव को जलार्पण कर उनसे सौभाग्य, सुख एवं अन्य इच्छित वरदान प्राप्त कर होते है संतुष्ट
- समुद्र मंथन का कार्य सावन के महीने में ही संपन्न हुआ
- विष धारण करने वाले शिव के लिए इंद्र ने की थी घनघोर वारिश
सावन का महीना माता पार्वती भगवान शिव के मिलन का प्रतीक माना जाता है। सावन मास हिंदू धर्म में भक्ति, तप और शिव आराधना का पावन पर्व है। यह मास प्रकृति की हरियाली, वर्षा की शीतलता और शिवमय वातावरण से ओतप्रोत होता है। रुद्राभिषेक, व्रत और त्योहारों की शृंखला के माध्यम से यह मास श्रद्धा, साधना और जागतिक कल्याण की सनातन भावना को जागृत करता है।सावन हिंदू पंचांग का पांचवां महीना होता है। यह हरियाली, सुंदरता, सकारात्मकता, शुभता और पवित्रता का महीना होता है, जो प्रायः संपूर्ण सृष्टि के लिए नवोन्मेष एवं नवजीवन का उपहार लेकर आता है। ज्येष्ठ-आषाढ़ की तपाती गर्मी, चिलचिलाती धूप, उमस और पसीने से परेशान संपूर्ण प्राणी जगत को सावन महीने की प्रतीक्षा रहती है, क्योंकि इस महीने में होने वाली रिमझिम वर्षा के कारण तापमान में गिरावट आती है। प्रकृति में सुखद परिवर्तन होते हैं। इसके परिणामस्वरूप संपूर्ण सृष्टि में तृप्ति और तुष्टि का प्रसार होता है तथा प्राणियों के जीवन में उमंग, उल्लास और प्रसन्नता का संचार होने लगता है। शिवमय सृष्टि: सावन के महीने में प्रायः देश ही नहीं, बल्कि संपूर्ण विश्व के शिवभक्त भगवान शिव को जलार्पण कर उनसे सौभाग्य, सुख एवं अन्य इच्छित वरदान प्राप्त कर संतुष्ट होते हैं। विश्व भर के शिवालयों में भक्तों की उमड़ती भीड़ तथा 'हर-हर महादेव' एवं 'बोल बम' के घोष से गूंजित वातावरण से शिवमय हुआ सारा संसार मानो अपने जीवन के विभिन्न पापों, तापों और संतापों को मिटाने की उत्कट अभिलाषा लिए शिवालयों की ओर दौड़ पड़ता है। यह भगवान शिव के प्रति भक्तों की सोद्येश्य आस्था एवं भक्ति का द्योतक है।
तीज-त्योहारों की शुरुआत: सावन का महीना हिंदुओं के लिए धार्मिक-आध्यात्मिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि इस महीने में हिंदुओं के कई प्रमुख तीज-त्योहारों की शुरुआत होती है। इनमें कामिका एकादशी, मंगला गौरी व्रत, हरियाली अमावस्या, विनायक चतुर्थी, तुलसीदास जयंती, सावन पुत्रदा एकादशी, सावन पूर्णिमा अथवा नारियल पूर्णिमा व्रत, ऋग्वेद उपाकर्म, वरलक्ष्मी व्रत, हरियाली तीज, रक्षा-बन्धन एवं नाग-पंचमी प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त, देवों के देव महादेव भगवान भोलेनाथ शिवश्ंाकर को यह महीना अत्यंत प्रिय होने के कारण इस महीने में उनकी विशेष पूजा, सेवा और आराधना करने का विधान भी शास्त्रों में वर्णित है।
रुद्रपूजा का महत्व: पुराणों में वर्णन मिलता है कि सावन के महीने में होने वाली रिमझिम वर्षा से प्रकृति भगवान शिव के रुद्र रूप का अभिषेक करती है। शंकर, यानी जो सभी का कल्याण करने और सबको शुभता प्रदान करने वाले भगवान हैं, जिन्हें देवाधिदेव महादेव भी कहा जाता है, उनकी आराधना में जब संपूर्ण चराचर सृष्टि तल्लीन हो जाती है, तब इस विशेष अवधि में निश्चित रूप से हमें भी उन भगवान शिव के रुद्र रूप की पूजा, आराधना, उपासना अवश्य करनी चाहिए, जो सबका मंगल करने वाले हैं। इस प्रकार, देखा जाए तो 'सर्वे भवंतु सुखिनः…' की शाश्वत चेतना को साकार करते हुए जागतिक कल्याण की भावना एवं सर्वमंगल की कामना से ओत-प्रोत होकर सृष्टि के आरंभ से ही हमारे पितृ ऋषि, ब्रह्मर्षि, महर्षि, मनीषी आदि सावन महीने में भगवान शिव के रुद्र रूप की पूजा, आराधना, उपासना आदि करते आए हैं। जागतिक कल्याण की वह पौरणिक भावना एवं सर्वमंगल की शाश्वत कामना भले ही आज उस रूप में विद्यमान न रही हो, परंतु सनातन धर्मावलंबियों के लिए सावन के महीने में रुद्रपूजा आज भी अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती है। इसीलिए आज भी हिंदू सावन महीने में रुद्रपूजा करते हैं।आध्यात्मिक-पौराणिक महत्व: सावन के महीने से भगवान शिव का शाश्वत संबंध होने के कई धार्मिक, आध्यात्मिक एवं पौराणिक आधार हैं। धार्मिक दृष्टि से देखा जाए तो सनातन धर्म में आस्था रखने वाले भक्त वर्ष के बारहों महीने भगवान भोलेनाथ शिवश्ंाकर की भक्ति, पूजा, आराधना करते रहते हैं, किन्तु देवशयनी एकादशी के दिन से चातुर्मास व्रत आरंभ होने के कारण इस दिन से साधु-संत और तपस्वीगण पारंपरिक रूप से एक ही स्थान पर रहते हुए स्वाध्याय, तप, साधना प्रवचन इत्यादि करते हैं। दरअसल, चातुर्मास काल के चार महीनों में, जब भगवान श्रीहरि विष्णु क्षीरसागर में शयन करते हैं, तब संसार में कहीं किसी भी प्रकार के शुभ या मांगलिक कार्य यथा गृह प्रवेश, उपनयन, विवाह आदि संस्कार एवं अनुष्ठान नहीं किए जाते। ऐसी स्थिति में, सृष्टि के संचालन का कार्यभार देवों के देव महादेव भगवान भोलेनाथ अपने हाथों में ले लेते हैं, ताकि सृष्टि के समस्त कार्य-व्यवहार यथावत चलते रहें। इस प्रकार, प्रत्येक वर्ष देवशयनी एकादशी के दिन से अगले चार महीनों तक भगवान भोलेनाथ ही सृष्टि का संचालन करते हैं। इसी चातुर्मास काल में एक महत्वूर्ण महीना सावन का भी होता है, जो कि भगवान शिव की भक्ति, सेवा पूजा, आराधना और महिमा के लिए प्राचीनकाल से ही विख्यात है।
माता पार्वती का कठोर तप: शिव और सावन के बीच के विशेष संबंधों का एक और प्रमुख आधार है- आध्यात्मिक आधार। सावन और भगवान शिव के संबंधों में निहित आध्यात्मिक दृष्टिकोण देवी सती की उस कथा में स्पष्ट परिलक्षित होती है, जिसके अनुसार उन्होंने अपने पिता दक्ष के द्वारा पति भोलेनाथ शिवशंकर का अपमान किए जाने से दुखी होकर योगशक्ति से अपने शरीर का वहीं पर तत्काल त्याग कर दिया था। कथा के अनुसार, देवी सती ने पति के रूप में पुनः भगवान शिव को प्राप्त करने की कामना से अपने दूसरे जन्म में पार्वती के नाम से पर्वतराज हिमालय के घर में जन्म लेकर बचपन से ही भगवान शिव की सेवा, आराधना की थी। बता दें कि सावन का महीना उनके लिए सदैव विशेष महत्व का होता था, क्योंकि इस पूरे महीने में निराहार रहते हुए वह भगवान भोलेनाथ को जलार्पण कर कठोर व्रत रखती थीं। कथा है कि माता पार्वती की कठोर साधना से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें सावन के महीने में ही अपनी अर्द्धांगिनी स्वीकार किया था। यही कारण है कि आज भी भक्तगण मनचाहा जीवनसाथी पाने की इच्छा से सावन में भगवान भोलेनाथ की पूजा-आराधना करते हैं।भूलोक पर अवतरण: पौराणिक मान्यता भी है कि इसी महीने में भगवान शिव पृथ्वी पर अवतरित होकर अपने ससुराल गए थे, जहां उनका स्वागत अर्घ्य एवं जलाभिषेक से किया गया था। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भगवान शिव प्रत्येक वर्ष सावन के महीने में भूलोक पर अवतरित होकर अपने ससुराल आते हैं, जो कि भू-लोक वासियों के लिए भक्ति, पूजा, सेवा, आराधना और उपासना के द्वारा शिव-कृपा प्राप्त करने का सर्वोत्तम समय होता है। इसी प्रकार, शिव और सावन के बीच के विशेष संबंधों का दूसरा प्रमुख आधार पौराणिक कथाओं में वर्णित कल्याणकारी एवं सुष्ठु समुद्र मंथन का प्रसंग भी है। मान्यता है कि हिन्दू संस्कृति में विशेष रूप से महत्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय समुद्र मंथन का कार्य सावन के महीने में ही संपन्न हुआ था। समुद्र मंथन से निकले विष की भयावहता को देखते हुए महाकल्याणी महादेव ने संपूर्ण विश्व को किसी भी प्रकार के अनिष्ट से बचाने हेतु उसे अपने कंठ में धारण कर लिया था, जिससे महादेव का कंठ नीलवर्णी हो गया, और वे 'नीलकंठ' कहलाए। वहीं, विषपान से उत्पन्न ताप को दूर करने तथा भगवान भोलेनाथ शिवशकर को शीतलता प्रदान करने के लिए मेघराज इंद्र ने तो तब घनघोर वर्षा की ही, सभी देवी-देवताओं ने भी उन्हें जल अर्पित किया था। इससे भगवान शिव का ताप कम हुआ और उन्हें शांति मिली। मान्यता है कि तबसे ही महादेव का अभिषेक करने की परंपरा प्रारंभ हुई। ( अशोक झा की कलम से )
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