आज सुबह बन गयी. मानसरोवर पर देशी घी की पूड़ी और सब्जी. जबरदस्त बनारसी नाश्ता था. यह कमाल था गाइड और सहायक थापा जी का.वो अपने साथ छोटी ट्रक में एक टिन बुटवल देशी घी लाए थे. नाश्ते के बाद सभी मित्र सरोवर की ओर चले. किनारे पूजा-अर्चना की तैयारी थी. झील की परिधि 87 किलोमीटर है. कुल 350 किलोमीटर का क्षेत्रफल है इसका. इस झील से चार नदियाँ भी निकलती हैं, जिनका जिक्र हम बाद में करेंगे. हमें सरोवर की परिक्रमा करनी है. पर कैसे? पैदल तो संभव नहीं था. न ही हम लोगों की सेहत इजाजत दे रही थी. तय हुआ कि ‘लैंडक्रूजर’ गाड़ी से ही परिक्रमा होगी. 90 किलोमीटर की.
समुद्र-तट से 15,000 फीट ऊँचाई पर स्थित इस झील की गहराई 300 फीट है. तिब्बती इसे ‘त्सो मावांग’ कहते हैं. मानव सभ्यता के इतिहास की सबसे पुरानी झील. ऋषि दत्तात्रेय को जब कैलास पर भगवान शंकर के दर्शन हुए तब उन्होंने शिव से पूछा, संसार का सबसे पवित्र स्थान कौन सा है? शिव ने कहा, सबसे पवित्र हिमालय है, जहाँ कैलास और मानसरोवर हैं. और जो मानसरोवर में स्नान करता है, उसके सभी पाप धुल जाते हैं. कैलास का ध्यान मात्र काशी की यात्रा से ज्यादा पुण्यदायक है. उसका फल अनंत है. वह धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष- चारों पुरुषार्थों का प्रदाता है.
मानसरोवर के आकाश का रंग ऐसा नीला था जैसा नीला रंग आज तक हमने नहीं देखा था. रुई के फाहे से बने आकाश से लटकते बादल अलग-अलग आकृतियाँ बना रहे थे. मानसरोवर की लहरों से टकराते दूर क्षितिज पर ऐसा लग रहा था मानो अप्सराएँ वहाँ नृत्य कर रही हों. ‘शिवपुराण’ में लिखा है कि मानसरोवर में एक बार के स्नान से सात पीढ़ियाँ तर जाती हैं. मुझे लगा, सात पीढ़ी को एक साथ तारने का ऐसा मौका फिर कहाँ मिलेगा. साथ गए मित्रों में थोड़ी हिचकिचाहट जरूर थी, कुछ गड़बड़ न हो. इस भयानक ठंड में बर्फ के पानी से कहीं तबीयत खराब न हो जाए. बीमार हुए तो इस दुर्गम जगह में क्या होगा? मैंने कहा, ‘‘अगर कुछ हुआ तो हमें यहीं छोड़ देना. कोई संस्कार की भी जरूरत नहीं. मैं यहीं रहूँगा. आखिर पांडव भी तो यहीं कहीं हैं. मुक्ति की इससे बेहतर जगह क्या होगी? यही जगह तो है, जहाँ देवी-देवता, ऋषि-मुनि, अप्सराएँ सब एक साथ रहते हैं. सिर्फ हम ही नहीं, ऐसा तिब्बती भी मानते हैं.’’
तो क्यों न फौरन डुबकी लगाई जाए. मैंने कपड़े उतार गमछा पहना, लाल बनारसी गमछा. अपना बोध गया बनारस है और गमछा वहां का राष्ट्रीय पोशाक. गमछा सर्वहारा का वस्त्र है. और शिव सर्वहारा के देवता. गमछे में कोई दिखावा नहीं है. न ओढ़ी हुई सम्पन्नता. बेचारा गमछा आधुनिकता के सारे झंझावत झेलता बदलते फैशन में अपनी जगह अडिग है. गमछा ढांकता तो है इज़्ज़त. पर उघाड़ता है अक्खड़पन. गमछा मल्टीपरपस है. लपेटिए और नहाइऐ. किसी की नजर से बचना है तो गले में लपेट लिजिए. रौब गालिब करना है तो कमर में बांध ले. तो मैनें भी गमछा लपेट शरीर को तैयार किया. पुरखों को याद कर ठंड से लड़ने का मनोबल बढ़ाया. सरोवर को प्रणाम किया. जल का आचमन किया. मीठा अमृत जैसा स्वाद. एक पाँव मानसरोवर में रखा तो करंट दिमाग तक लगा. झट से दूसरा पाँव भी रखा.फिर नाक पकड़कर डुबकी लगाई. लगा कि सिर पथरा गया, हाथ-पाँव अकड़ गए. दूसरी व तीसरी डुबकी से थोड़ी राहत लगी. पर हड्डियाँ काँपने लगीं. लगा कि पुरखों को तारने आया था, कहीं पुरखों में शामिल तो नहीं हो जाऊँगा. प्रज्ञा लुप्त होने लगी.
तभी हंसों का एक जोड़ा दिखा. राजहंस यानी ‘बार हेडेड गूज’, जिन्हें ‘हिमालयन ग्रीन फ्रिंच’ भी कहते हैं. सफेद लंबी गरदन, सुनहरे पंख, भव्य उड़ान. बड़े भाग्य से हंसों के दर्शन होते हैं. पीछे मुड़ मित्रों को जब तक बताता तब तक वे ओझल हो चुके थे. कबीर याद आए—‘उड़ जाएगा हंस अकेला, जग दरसन का मेला.’ मित्रगण मानने को तैयार नहीं थे कि मैंने राजहंस देखा. खैर, बाहर निकला. कपड़े पहने. सूर्यदेव दूर तक कहीं दिख नहीं रहे थे. और मेरी चेतना कम हो रही थी.
कैलास-दर्शन के बाद मानसरोवर-स्नान कर लगा, जीवन सफल हो गया. अब कुछ बचा नहीं है. ठंड के कारण अपने आप मुँह से फचाफच महामृत्युंजय मंत्र निकल रहा था. मेरी दादी याद आ गईं, जिन्हें हम ‘दादा’ कहते थे. दादा ने ही बचपन में सबसे पहले मानसरोवर का महत्व बताया था. मैंने सूर्य को अर्घ्य दिया. दादी के नाम पर एक अंजलि जल दिया. फिर लगा, दादी का तो तर्पण कर दिया. मेरे लिए यहॉं इतने दुर्गम स्थान पर कौन आएगा ? गाइड बोला, ‘‘अपना तर्पण खुद कीजिए. लोग यहाँ ऐसा ही करते हैं.’’ मैंने अपना भी तर्पण किया. अंजुरी में लिए जल से कहा- जल, जीवन दो, मुक्ति दो. पुरखों को तारो. मन के कलुष को धो दो. ‘काट अंध उर के बंधन स्तर, बहा जननि ज्योतिर्मय निर्झर’. मानसरोवर के किनारे एक प्रार्थना-ध्वज भी बाँधा. एक कैन में जल भरा, दिल्ली लाने के लिए. फिर शुरू हुई पूजा. सामने कैलास, बगल में मानसरोवर. बिल्वपत्र साथ ले गया था. भाँग और सुगंधि से शिव का अभिषेक किया—‘‘त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्. उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्.’’ हमारे लिए यह बहुत तृप्तिदायक अनुष्ठान था.
गाड़ी में बैठ मैंने उसका हीटर चलाया तब जाकर चैतन्यता वापस लौटनी शुरू हुई. अब हम गाड़ी से मानसरोवर की परिक्रमा में थे. गोल छोटे-छोटे पत्थरों पर से हमारी ‘लैंडक्रूजर’ धीरे-धीरे फिसलती सरकती चल रही थी. छोटे-छोटे जल-स्रोतों को पार करते हुए. मानसरोवर का प्रवाह कभी राक्षस ताल की ओर बहता है तो कभी उलटी तरफ. जिस साल इसका प्रवाह राक्षस ताल की तरफ होता है, वह साल तिब्बतियों के लिए शुभ माना जाता है.
मानसरोवर के चारों ओर से दुनिया की चार बड़ी नदियाँ निकलती हैं. मानसरोवर के पश्चिम की ओर से निकलने वाली सतलुज नदी है. तिब्बती इसे ‘लांजयेन खंबाब’ कहते हैं, जिसका मतलब हाथी का मुँह होता है. दक्षिण की ओर बहनेवाली नदी करनाली है, जिसे तिब्बती में ‘मेपचा खंबाब’ कहते हैं. यही नदी भारत में पहले सरयू और बाद में घाघरा कही जाती है. ब्रह्मपुत्र को तिब्बती ‘तमचोक खंबाब’ कहते हैं, यानी घोड़े का मुँह. यह पूर्वी छोर से निकलती है. सिंधु शेर के मुँह से निकलनेवाली नदी कही जाती है. उत्तर की तरफ से निकलने वाली ‘सिंधु’ नदी को ‘इंडस’ भी कहते हैं. जैदी कैम्प तक पहुँचते-पहुँचते मानसरोवर की हमारी परिक्रमा पूरी हो गई थी. जो देखा वह एक सपना था. जो पूरा हुआ. इस विस्मय का बखान शब्दों से परे है. जो देखा, वह ज्ञान से परे था. जो भोगा, वह समझ से परे था. कल और कठिन है. हमें कैलास जाना है.
जय जय ( देश के वरिष्ठ पत्रकार हेमंत शर्मा की कलम से )
जारी….
चित्र:१-मानसरोवर झील ,२-मेरू पर्वत ३- झील के किनारे याक
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