आचार्य संजय तिवारी
युद्ध और विनाश से झुलस रहे विश्व को बचायेगी सनातन की वह शक्ति जिसे वेद ने इस सृष्टि की सुरक्षा के लिए दिया है। यह शक्ति अद्भुत है। दुनिया हर साल विश्व पर्यावरण दिवस मनाती है। आज भी मना रही है लेकिन वास्तव में एक एक घड़ी यह सृष्टि विनाश की ओर बढ़ रही है। यह चिंतनीय है। इससे मुक्ति और संपूर्ण शांति की व्यवस्था सनातन संस्कृति में बहुत स्पष्ट रूप में उपस्थित है।
यजुर्वेद की एक प्रार्थना है:
ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति:,
पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।
वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,
सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥
ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥
शान्ति: कीजिये प्रभु !
त्रिभुवन में, जल में, थल में और गगन में,
अन्तरिक्ष में, अग्नि - पवन में, औषधियों, वनस्पतियों, वन और उपवन में,
सकल विश्व में अवचेतन में,
शान्ति राष्ट्र-निर्माण और सृजन में, नगर , ग्राम और भवन में
प्रत्येक जीव के तन, मन और जगत के कण - कण में, शान्ति कीजिए ! शान्ति कीजिए ! शान्ति कीजिए !
वस्तुतः यही सनातन का उद्घोष है।यही एक मात्र पथ है सृष्टि, प्रकृति और संस्कृति को संतुलित रखने का। सनातन संस्कृति में किसी भी मांगलिक कार्य से पहले कलश स्थापन का विधान है। कलश वस्तुतः हमारे ब्रह्माण्ड का प्रतीक है. कलश के नीचे रखे जाने वाले जौ आदि धान्य पृथ्वी के, उसमें भरा जाने वाला जल, जल तत्व का, उसके समीप जलाया जाने वाला दीपक अग्नि तत्व का प्रतीक है। कलश के मुंह पर पंच पल्लव तथा इसमें डाली जाने वाली औषधीय वनस्पतियां हमारे पारिस्थितकीय तंत्र की ओर ईशारा करते हैं। इस प्रकार कलश में सभी देवताओं की प्राण प्रतिष्ठा कर एक प्रकार से प्रकृति को ही नमन करते हैं।अब दर्शन करते हैं उन पंचमहाभूतों की , जो हमारे तथा प्रकृति की सेहत के लिए उपयोगी हैं ।
वेद कहते हैं, प्राण है वायु
वायु को वेदों में प्राण कहा गया है, ऑक्सीजन को हम प्राणवायु कहते हैं । इसी तरह इस पिण्ड में भी प्राण, अपान, व्यान उदान और समान वायु प्रवाहित होती है । वायु जीवमात्र के जीवन का आधार है । इसी वायु को शुद्धीकरण के लिए जहां सनातन संस्कृति में होम -यज्ञ की विधि बताई है, वहीं प्राणवायु के मूल स्रोत वनस्पतियों के संरक्षण की बात कही गई है । विज्ञान तो पेड़- पौधों में जीवन की बात आज करता है , लेकिन हमारे मनीषी तो आदि काल से इन्हें सजीव मानकर चले हैं । वृक्ष को काटना पाप मानकर इसे निषिद्ध ठहराया गया है । सबसे उपयोगी वृक्ष पीपल, बरगद व बेल के पेड़ को काटना महापाप कहा गया है, जाहिर है कि पीपल सबसे अधिक प्राणवायु वातावरण में उत्सर्जित करता है । भगवान श्रीकृष्ण ने तो श्रीमद्भगवतगीता में संसार में अपनी व्यापकता को बताते हुए, यहां तक कह डाला कि वृक्षों में पीपल वृक्ष मैं हूँ इस प्रकार पीपल के वृक्ष के प्रति जनास्था को जोड़कर एक प्रकार से इसके संरक्षण की बात कही गयी है। इसी तरह मानवोपयोगी विभिन्न वनस्पतियों में ईश्वर का वास बताकर उनके संरक्षण की ओर ईशारा किया गया है । अग्नि पुराण तो यहां तक कहता है- “यदि कोई व्यक्ति अपने वंश का विस्तार एवं धन और सुख में वृद्धि की कामना करता है, तो वह फल -फूल वाले वृक्ष को न काटे.’’ इसी प्रकार पीपल की टहनी तक को सन्तान वाले व्यक्ति को तोड़ना वर्जित कहा गया है। सनातन धर्म में किसी की मृत्यु होने पर मृतक की याद में पीपल के वृक्ष रोपने की परम्परा है, यह एक प्रकार से मृत व्यक्ति द्वारा अपने जीवनकाल में प्रकृति से ली गयी प्राणवायु का कर्ज चुकाने का एक उपक्रम माना जा सकता है। आज भी मृतकों की याद में उनकी विधवाओं द्वारा संरक्षित पीपल वृक्षों के नाम पर ही गांवों के नाम यथा- जीतुवा पीपल, खिमुवा पीपल आदि पाये जाते हैं। यह बात अलग है कि आज लकीर के फकीर बन चुके लोग प्रतीकात्मक रूप में पीपल की टहनी रोपकर, पीपलपानी के दिन ही अपना फर्ज भर निभा लेते हैं।
वायु के 49 स्वरूप
हमारा सनातन जिसे महाविज्ञान कहता है ,यह उसका एक अंशमात्र है। इस लोक को इसी महाविज्ञान से श्री हनुमान जी संचालित करते हैं। यह अद्भुत है। श्रीरामचरित मानस में सुंदरकांड पढ़ते हुए 25 वें दोहे पर ध्यान थोड़ा रुक देना चाहिए।आपको भी अद्भुत लगेगा । गोस्वामी तुलसीदास जी ने सुन्दर कांड में, जब हनुमान जी ने लंका मे आग लगाई थी, उस प्रसंग पर लिखा है -
हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास।
अट्टहास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास।।
अर्थात जब हनुमान जी ने लंका को अग्नि के हवाले कर दिया तो --
भगवान की प्रेरणा से उनचासों पवन चलने लगे। हनुमान जी अट्टहास करके गर्जे और आकार बढ़ाकर आकाश से जा लगे। यहीं विचार करने योग्य है। इन उनचास मरुत का क्या अर्थ है ? यह तुलसी दास जी ने भी नहीं लिखा।
सुंदरकांड पूरा करने के बाद समय निकालकर 49 प्रकार की वायु के बारे में जानकारी प्राप्त करने और अध्ययन करने पर सनातन धर्म पर अत्यंत गर्व होने लगता है , यह जानकर कि हम सनातनी महाविज्ञान के प्रणेता हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी के वायु ज्ञान पर सुखद आश्चर्य होता है , जिससे शायद आधुनिक मौसम विज्ञान भी अनभिज्ञ है । आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि वेदों में वायु की 7 शाखाओं के बारे में विस्तार से वर्णन मिलता है। अधिकतर लोग यही समझते हैं कि वायु तो एक ही प्रकार की होती है, लेकिन उसका रूप बदलता रहता है, जैसे कि ठंडी वायु, गर्म वायु और समान वायु, लेकिन ऐसा नहीं है। दरअसल, जल के भीतर जो वायु है उसका वेद-पुराणों में अलग नाम दिया गया है और आकाश में स्थित जो वायु है उसका नाम अलग है। अंतरिक्ष में जो वायु है उसका नाम अलग और पाताल में स्थित वायु का नाम अलग है। नाम अलग होने का मतलब यह कि उसका गुण और व्यवहार भी अलग ही होता है। इस तरह वेदों में 7 प्रकार की वायु का वर्णन मिलता है।
ये 7 प्रकार हैं-
1.प्रवह,
2.आवह,
3.उद्वह,
4. संवह,
5.विवह,
6.परिवह
7.परावह।
1. प्रवह : पृथ्वी को लांघकर मेघमंडलपर्यंत जो वायु स्थित है, उसका नाम प्रवह है। इस प्रवह के भी प्रकार हैं। यह वायु अत्यंत शक्तिमान है और वही बादलों को इधर-उधर उड़ाकर ले जाती है। धूप तथा गर्मी से उत्पन्न होने वाले मेघों को यह प्रवह वायु ही समुद्र जल से परिपूर्ण करती है जिससे ये मेघ काली घटा के रूप में परिणत हो जाते हैं और अतिशय वर्षा करने वाले होते हैं।
2. आवह : आवह सूर्यमंडल में बंधी हुई है। उसी के द्वारा ध्रुव से आबद्ध होकर सूर्यमंडल घुमाया जाता है।
3. उद्वह : वायु की तीसरी शाखा का नाम उद्वह है, जो चन्द्रलोक में प्रतिष्ठित है। इसी के द्वारा ध्रुव से संबद्ध होकर यह चन्द्र मंडल घुमाया जाता है।
4. संवह : वायु की चौथी शाखा का नाम संवह है, जो नक्षत्र मंडल में स्थित है। उसी से ध्रुव से आबद्ध होकर संपूर्ण नक्षत्र मंडल घूमता रहता है।
5. विवह : पांचवीं शाखा का नाम विवह है और यह ग्रह मंडल में स्थित है। उसके ही द्वारा यह ग्रह चक्र ध्रुव से संबद्ध होकर घूमता रहता है।
6. परिवह : वायु की छठी शाखा का नाम परिवह है, जो सप्तर्षिमंडल में स्थित है। इसी के द्वारा ध्रुव से संबद्ध हो सप्तर्षि आकाश में भ्रमण करते हैं।
7. परावह : वायु के सातवें स्कंध का नाम परावह है, जो ध्रुव में आबद्ध है। इसी के द्वारा ध्रुव चक्र तथा अन्यान्य मंडल एक स्थान पर स्थापित रहते हैं।
इन सातो वायु के सात सात गण हैं जो निम्न जगह में विचरण करते हैं
1. ब्रह्मलोक,
2. इंद्रलोक,
3. अंतरिक्ष,
4. भूलोक की पूर्व दिशा,
5. भूलोक की पश्चिम दिशा,
6. भूलोक की उत्तर दिशा
7. भूलोक कि दक्षिण दिशा।
इस तरह 7 x 7 = 49। कुल 49 मरुत हो जाते हैं जो देव रूप में विचरण करते रहते हैं।
हम अक्सर रामायण, श्रीरामचरितमानस, श्रीमदभगवद् गीता पढ़ तो लेते हैं परंतु उनमें लिखी छोटी-छोटी बातों का गहन अध्ययन करने पर अनेक गूढ़ एवं ज्ञानवर्धक बातें ज्ञात होती हैं ।
जल तत्व
बात जल तत्व की करें, तो डार्विन का जल से जीव उत्पत्ति का सिद्धान्त आज के युग का चिन्तन है, जब कि सनातन संस्कृति में तो दशावतार का जो उल्लेख है, उसमें क्रमवार विकास यात्रा की शुरुआत जलचर मत्स्य से हजारों हजार साल पहले की जा चुकी है। जिस प्रकार हमारी पृथ्वी के लगभग तीन चैथाई भाग में जल है, ठीक उसी प्रकार हमारे शरीर में भी वजन का लगभग 72 प्रतिशत भाग जल तत्व है। इसी जल की महत्ता को प्रतिपादित करने के लिए हमारे मनीषियों ने नदियों को विशेष सम्मान दिया है, इसे जनास्था से जोड़ने के लिए कुम्भ, अर्द्ध कुम्भ पर्वों व गंगा को मां का दर्जा दिया है. ये बात अलग है कि गंगा मां के प्रति आस्था में कमी आज भी नहीं आई, लेकिन हम यह भूल गये कि गंगा प्रदूषित होगी तो उससे पुण्य की बात तो दूर, प्रदूषित गंगा में स्नान से उल्टा रोगों को आमंत्रित करेंगे।
सनातन संस्कृति में तो हिमालय के कैलाश पर्वत को भगवान शिव का वास तथा क्षीरसागर में विष्णु का वास मानकर हिमालय से समुद्र पर्यन्त आस्था जगाकर प्रकारान्तर से इनके संरक्षण का सूत्र दिया गया है। गंगा नदी में मल-मूत्र विसर्जन को घोर अपराध बताया गया है, इसके बावजूद हम गंगा को प्रदूषित करने से बाज नहीं आये. वेदों में मित्र (ऑक्सीजन/ प्राणवायु) तथा वरूण (हाइड्रोजन) शब्दों का उल्लेख है, जो जल की उत्पत्ति करते हैं, आधुनिक विज्ञान भी दो अणु हाइड्रोजन एवं एक अणु ऑक्सीजन से पानी की उत्पत्ति की बात करता है, जाहिर है कि जब ऑक्सीजन उत्सर्जित करने वाली वनस्पतियों का अभाव होगा तो पानी की कल्पना करना भी बेईमानी होगी। दरअसल जल एवं वनस्पति का संबंध परस्पर एक दूसरे से जुड़ा है।
अग्नि तत्व
अग्नि के वैदिक साहित्य में 108 नाम बताये गये हैं। अग्नि ही समस्त सृष्टि की ऊर्जा का स्रोत है। प्राणियों में जठराग्नि रूप में, आकाश में विद्युत रूप में, पृथ्वी में आग तथा सूर्य की किरणों के रूप में आदि आदि आग के अनेंको प्रकार हैं। सूर्य रश्मियां ही हैं जो वातावरण को कीटाणुमुक्त करती हैं। वर्तमान कोरोनाकाल में जब सेनेटाइजर हमारी हर पल की जरूरत बन चुका है, सूर्य की किरणें सेनेटाइजर का सबसे उपयुक्त विकल्प हैं। कल्पना कीजिए यदि जल होता, लेकिन अग्नि न होती तो जल का वाष्पीकरण कैसे होता और मेघ कैसे बनते व बरसते। इसलिए अग्नि तत्व को भी शेष चार महाभूतों के समकक्ष महत्व दिया गया है। अग्नि को भी एक देवता के रूप में मान्यता दी गयी है। माना तो ये भी जाता है कि अग्नि में समर्पित हव्य सीधे देवताओं के पास पहुंचता है, अब यह आप पर निर्भर करता है कि आप इसे साकार देव तक पहुंचा रहे हैं अथवा पंच महाभूत यानी प्रकृति को. हवन-यज्ञों का हव्य हमारे कल्पित देवी-देवताओं तक पहुंचता है या नही लेकिन यह निर्विवाद है कि वातावरण की शुद्धता के लिए निश्चित रूप से यह उपयोगी है ही। जब बारिश नहीं होती है तो याज्ञिक अनुष्ठान की ही सहायता ली जाती है।
आकाश तत्व
द्यौ यानी आकाश ऐसा महाभूत है, जिसमें वायु के साथ मिलकर ध्वनि की उत्पत्ति होती है। सूर्य, चन्द्रमा आदि ग्रह-उपग्रह यहां तक कि ओजोन परत सब आकाश तत्व के अधीन आते हैं. इसलिए वैदिक मंत्रों में आकाश तत्व की शान्ति की कामना की जाती है। तथाकथित औद्योगिक विकास के नाम पर अन्धाधुन्ध ग्रीन गैंसो के उत्सर्जन से ओजोन परत का जो क्षरण हो रहा है, वही आज ग्लोबल वार्मिग के रूप में पूरे विश्व के सामने चुनौती बन चुका है। सच तो ये है कि वैदिक साहित्य में इन पांच तत्वों के सन्तुलन के लिए जो बातें कही गयी थी, हमने धरती तो छोड़िये आकाश को भी प्रदूषित होने से नहीं छोड़ा।
पृथ्वी तत्व
अथर्ववेद में कहा गया है ‘माता भूमिः पुत्रोहं पृथिव्याः’ अर्थात् भूमि मेरी माता है और मैं पृथ्वी का पुत्र हूं। धरती एक वनस्पतियों से आच्छादित मिट्टी व पत्थरों का समूह भर नहीं है। पृथ्वी रत्न गर्भा है। रत्न से तात्पर्य बहुमूल्य धातुओं तक ही सीमित नहीं है, बल्कि पृथ्वी हमें वह सब देती है। जीव मात्र के पोषण के लिए आवश्यक एवं अनिवार्य है। जो सकल भोग्य पदार्थों को पैदा कर पोषण करती है, उसे माता ही तो कहेंगे, इसलिए पृथ्वी को माता तुल्य माना गया है। इस पृथ्वी ने प्रत्येक जीव को उसकी प्रकृति के अनुरूप भोज्य वस्तुएं पर्याप्त मात्रा में प्रदान की हैं, यदि आवश्यकता के अनुरूप प्रत्येक जीव प्रकृति प्रदत्त वस्तुओं का उपयोग करे तो उसका भण्डार अक्षय है, लेकिन समस्या तब आ जाती है, जब मनुष्य अपने आने वाले समय और आने वाली पीढ़ियों के लिए भी अन्धाधुन्ध संग्रह करने लगता है।
सच तो ये है कि पूरी पृथ्वी में इन्सान ही एक ऐसा जीव है जो भविष्य के लिए संचय करने की प्रवृत्ति रखता है, जब कि दूसरे जीव अपने उपभोग तक ही सीमित रहते हैं। अधिक संचय करने की प्रवृत्ति के परिणाम स्वरूप हमने पृथ्वी के संसाधनों का अधिकतम दोहन कर एक तरह से धरती को भी प्रदूषित कर दिया है। प्रकृति ने तो जीवों की उत्पत्ति ही शाकाहारी एवं मांसाहारी के रूप में अलग-अलग की है, ताकि शाकाहारी व मासांहारी के बीच जीवनचक्र निर्बाध गति से चलता रहे। शाकाहारी जीवों के लिए वनस्पतियां हैं तो मांसाहारी जीवों के लिए वनस्पतियों को खाने वाले जीव. धरती की कोई ऐसी वनस्पति व जीव नहीं है, जो अनुपयोगी हो। प्रकृति ने विभिन्न जीवों को एक दूसरे का भोजन बनाकर एक प्रकार से सन्तुलित किया है. मानव ही प्रकृति का एक ऐसा कृतघ्न प्राणी है, जिसने भक्ष्य-अभक्ष्य की परवाह नहीं की है। हाल की कोरोना महामारी की उपज के पीछे भी यही एक कारण बताया जा रहा है। मनुष्य जैसे विवेकशील प्राणी के लिए हमारी सनातन संस्कृति में जीव हत्या निषिद्ध है तथा इसे महापाप माना गया है। सनातन संस्कृति की जीवों के प्रति दया करने एवं हिंसा के प्रति घृणा भाव की इससे अच्छी बानगी क्या हो सकती है कि सूक्ष्म प्राणी चींटी को तक मारना महापाप माना गया है। यह तो वेदोत्तर काल में क्षुद्र स्वार्थों के वशीभूत होकर देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के नाम पर धार्मिक उत्सवों व मन्दिरों में बलि प्रथा को जन्म दिया. यदि वैदिक मान्यताओं पर आपकी आस्था है तो बलि प्रथा से भी हम पर्यावरण को असन्तुलित कर रहे हैं तथा पंचमहाभूतों का एक प्रकार से तिरस्कार ही कर रहे हैं सनातन संस्कृति में तो सारे पर्व, मेले, कुम्भ आदि पर्यावरण को केन्द्र में मानकर ही निर्धारित हैं। फिर चाहे वह गंगा दशहरा पर गंगा मां के संरक्षण की बात हो, हरेला पर धरती की हरियाली को बढ़ाना, दीवाली पर गोधन का संरक्षण अथवा विजययादशमी पर सांस्कृतिक व सामाजिक पर्यावरण को क्षति पहुंचाने वाले तत्वों का विनाश अथवा कुम्भ पर गंगा स्नान। ऐसी संस्कृति से भी यदि हम समझ नहीं पाये, कोई सीख नहीं ले पाये, तो फिर हमें कोई नहीं बचा सकता। आज कोरोना महामारी से जूझ रहे हैं, कल कोई और आपदा सृष्टि को संकट में डालेगी ही।
बुद्धिमानी इसी में हैं कि हम प्रकृति के इन पंचमहाभूतों को देवतुल्य सम्मान देकर सभी तत्वों में सन्तुलन स्थापित करने में सहयोगी बनें। एक के भी असन्तुलित होने से पूरी सृष्टि असन्तुलित होगी और “द्यौः शान्तिः……..’’ की प्रार्थना हमारी धरी की धरी रह जायेगी। ईश्वर को तो किसी ने देखा नहीं है, लेकिन जो पंचमहाभूत प्रत्यक्ष में हैं, उनकी उपेक्षा करना कहां की बुद्धिमानी है। यह आस्था का विषय है कि आप अपने आराध्य की प्रार्थना, आराधना, उपासना करें, लेकिन इन पांच तत्वों के संरक्षण की उपेक्षा के बिना आपकी उपासना अथवा आराधना जनकल्याणकारी नहीं हो सकती।
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