25 की उम्र में धरती के आबा बिरसा मुंडा को आज किया जा रहा है याद
जून 09, 2025
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- उत्तर बंगाल में 12 लाख से ज्यादा इनके अनुयायियों को नहीं मिल पा था उनका हक
- आजतक वोटबैंक के रूप में होता रहा इस्तेमाल, आज जगह जगह आयोजित होगा समारोह
भगवान बिरसा मुंडा आदिवासी समाज के वो नायक रहे, जिन्हें आज भी जनजातीय लोग गर्व से याद करते हैं। आदिवासियों के हितों के लिए उनके योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता। यही कारण है की आज भी देशभर में उनके योगदानों की चर्चा होती है। आज उत्तर बंगाल में 12 लाख से ज्यादा आदिवासी उनके अनुयाई है। वह आजादी के इतने साल बाद भी आज अपने अधिकार के लिए लड़ रहे है। भगवान बिरसा मुंडा। महज 25 साल की छोटी जिंदगी में उलगुलान ने उन्हें भगवान बना दिया। धरती आबा के नाम से लोकप्रिय बिरसा मुंडा कम समय में इतने लोकप्रिय हो गए थे कि अंग्रेज उनसे खौफ खाने लगे थे। ब्रिटिश शासन ने उन पर 500 रुपए का इनाम घोषित किया था। 1895 में पहली बार और 1900 में दूसरी बार उन्हें गिरफ्तार किया गया था। 9 जून 1900 को इस महामानव की रांची जेल में मौत हो गयी थी। नौ जून को बिरसा मुंडा का 125 वां शहादत दिवस है। पुण्यतिथि पर आज उनसे जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारियों को साझा कर रहे है। बिरसा मुंडा को भगवान का दर्जा: जल, जंगल और जमीन की रक्षा के लिए भगवान बिरसा मुंडा ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ उलगुलान (विद्रोह) किया था।।उलगुलान की ही ताकत थी कि अंग्रेज उनके आगे झुके और आदिवासियों की जमीन की रक्षा के लिए छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट (सीएनटी) लागू किया गया। वे आम लोगों के बीच इतने लोकप्रिय हुए कि उन्हें भगवान का दर्जा दिया गया। वर्ष 2000 में झारखंड अलग राज्य बना, तो झारखंड स्थापना दिवस के लिए उनके जन्मदिवस 15 नवंबर को चुना गया। भारत सरकार उनकी याद में डाक टिकट जारी कर चुकी है। संसद में उनकी तस्वीर लगी है। जनजातीय गौरव दिवस के रूप में इनकी जयंती घोषित की गयी है।बिरसा मुंडा पहली बार 1895 में हुए थे गिरफ्तार: बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को झारखंड के खूंटी जिले के उलिहातू में हुआ था। सुगना और करमी के घर जन्मे बिरसा की प्रारंभिक शिक्षा सलमा में हुई। इसके बाद वे चाईबासा के मिशन स्कूल में पढ़े. 1890 में उन्होंने चाईबासा छोड़ दिया। 1895 में उन्होंने मुंडाओं को एकजुट कर उलगुलान शुरू किया। उनका प्रभाव इतना था कि सरदार आंदोलन के योद्धा भी उलगुलान से जुड़ गए थे। उन्होंने जमीन की लड़ाई लड़ी. बिरसा मुंडा की लोकप्रियता से अंग्रेज काफी परेशान थे. 1895 में उन्हें पहली बार गिरफ्तार किया गया था. 1897 में बिरसा मुंडा को हजारीबाग जेल भेज दिया गया था, जहां से उन्हें रिहा किया गया था।बिरसा मुंडा पर 500 रुपए का इनाम था घोषित: सरकार ने बिरसा मुंडा पर 500 रुपए का इनाम घोषित किया था और उन्हें पकड़ने का अभियान चलाया था. उन दिनों सिंहभूम जिले के सेंतरा जंगल में बिरसा मुंडा ने ठिकाना बनाया था, जिसकी सूचना गद्दारों ने पुलिस को दे दी थी। 2 फरवरी 1900 को उन्हें दोबारा गिरफ्तार कर लिया गया था और रांची जेल भेज दिया गया था. 9 जून 1900 को रांची जेल में उनकी मौत हो गयी थी। रांची के कोकर डिस्टीलरी के पास नदी किनारे उनका अंतिम संस्कार किया गया था, जहां आज भी उनकी समाधि है।डोंबारी बुरू में बिरसा ने लड़ी अंग्रेजों के खिलाफ अंतिम लड़ाई: खूंटी जिले के घनघोर जंगल और सुंदर वादियों के बीच एक पहाड़ी है डोंबारी बुरू। ये झारखंडी अस्मिता और संघर्ष की गवाह है. इसी पहाड़ी पर धरती आबा भगवान बिरसा मुंडा ने अंग्रेजों के खिलाफ अंतिम लड़ाई लड़ी थी. नौ जनवरी 1900 को सइल रकब पहाड़ी (डोंबारी बुरू) पर बिरसा मुंडा के अनुयायियों पर पुलिस ने अंधाधुंध फायरिंग की थी। यह बिरसा के अनुयायियों की शहादत भूमि है. यह अंग्रेजों के जुल्म की याद दिलाती है. यहां शहीदों की याद में 110 फीट ऊंचा विशाल स्तंभ (स्तूप) बनाया गया है. उसके नीचे मैदान में भगवान बिरसा मुंडा की प्रतिमा स्थापित की गयी है।जालियांवाला बाग हत्याकांड से पहले हुआ था डोंबारी बुरू नरसंहार: अंग्रेजों की नींद हराम कर देनेवाला अबुआ दिशुम-अबुआ राज का नारा डोंबारी बुरू की ऊंची पहाड़ी से गूंजा था। 9 जनवरी 1900 को जब भगवान बिरसा मुंडा अपने अनुयायियों के साथ अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध की रणनीति बना रहे थे, तभी अंग्रेज सभास्थल पर आ धमके और अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी थी। इसमें सैकड़ों आदिवासी महिला, पुरुष और बच्चों ने शहादत दी थी. हालांकि इस घटना में भगवान बिरसा मुंडा बच निकले थे। सैकड़ों लोगों की शहादत के बावजूद सिर्फ छह की ही अब तक पहचान हो सकी है. डोंबारी बुरू के पत्थर पर इनके नाम उकेरे गये हैं. इनमें हाथीराम मुंडा, हाड़ी मुंडा, सिंगराय मुंडा, बंकन मुंडा की पत्नी, मझिया मुंडा की पत्नी और डुंगडुंग मुंडा की पत्नी के नाम शामिल हैं. वीर शहीदों की याद में 9 जनवरी को यहां हर साल मेला लगता है. 13 अप्रैल 1919 को जालियांवाला बाग हत्याकांड हुआ था. इससे काफी पहले यहां नरसंहार हुआ था।
बिरसा मुंडा की ये है वंशावली: भगवान बिरसा मुंडा की वंशावली की बात करें, तो वंशावली में पहला नाम लकरी मुंडा का आता है. लकरी मुंडा के पुत्र सुगना मुंडा और पसना मुंडा हुए। सुगना मुंडा के तीन पुत्र हुए. कोन्ता मुंडा, बिरसा भगवान और कानु मुंडा।कोन्ता और बिरसा मुंडा का कोई पुत्र नहीं हुआ. उनका वंश उनके भाई कानु मुंडा से चला। कानु के एक पुत्र हुए मोंगल मुंडा. इनके दो पुत्र हुए सुखराम मुंडा और बुधराम मुंडा। बुधराम के एक पुत्र हुए रवि मुंडा और उसके बाद उनका वंश वहीं खत्म हो गया. दूसरी ओर सुखराम मुंडा के चार पुत्र मोंगल मुंडा, जंगल सिंह मुंडा, कानु मुंडा और राम मुंडा. कानु मुंडा के दो पुत्र बिरसा मुंडा और नारायण मुंडा। धरती आबा बिरसा मुंडा के आंदोलन को कुचलने और उनकी गिरफ्तारी के लिए अंग्रेज सरकार ने पूरा जोर लगा दिया था। मुंडा सरदारों की संपत्ति कुर्क की जा रही थी। दबाव के कारण बिरसा एक जगह नहीं टिक रहे थे। जब अंग्रेज पुलिस का दबाव बढ़ा, तो बिरसा किसी एक जगह पर नहीं टिक रहे थे। वह एक गांव से दूसरे गांव में छिपकर रह रहे थे। रोगोटो में बिरसा अनुयायियों की आखिरी बैठक हुई थी, जहां बिरसा ने अपने अनुयायियों को दिशानिर्देश दिया था। बिरसा मुंडा अपने अनुयायियों का मनोबल ऊंचा करना चाहते थे। आसन्न मृत्यु का हो गया था आभास: बिरसा को अपनी आसन्न मृत्यु का आभास हो गया था। उन्होंने अपने अनुयायियों को यह संदेश दिया था 'जब तक मैं अपनी मिट्टी का यह तन बदल नहीं देता, तुम सब लोग नहीं बच पाओगे। निराश न होना, यह मत सोचना कि मैंने तुम लोगों को मझधार में छोड़ दिया। मैंने तुम्हें सभी हथियार और औजार दे दिये हैं। तुम लोग उनसे अपनी रक्षा कर सकते हो'। (अशोक झा की कलम से)
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