तपती दोपहरी में जैसे बादलों से फुहार बरस जाए, दिल जिसे शिद्दत से ढूंढता हो वो यार दिख जाये, छाया हो घुप्प अन्धेरा और सूरज का दयार दिख जाए; कुछ ऐसी ही खिलखिलाती मुस्कराहट थी सुशील त्रिपाठी की, प्रशासन से बहस हो तो मालूम चले कि हिमालय सर तान कर खड़ा है, अपनों में बात हो तो लगे बचपन दौड़ पड़ा है। ना जाने कितने आयाम एक अकेली शख्सियत में छुपे थे कि जब मिलो तो लगता था कि अभी कुछ बचा ही हुआ है।
फिर अचानक 2008 में आज ही के दिन वो बचा हुआ सब समाप्त हो गया। चहचाहते नीड़ में एक नीरवता छा गयी, खुशियाँ अपनी सरकशी के अंजाम तक पहुंचे, उससे पहले उदासी आ गयी। जाने किसकी नज़र लगी कि एक सधते नाद के निनाद की लय बीच में ही टूट गयी और खामोश हो गया वो स्वर जो छात्रों, युवाओं, पीड़ितों-शोषितों की आवाज को उच्च पर और कलाकारों की आवाज को कोमल स्वर पर साधता था।
कबीरचौरा से अस्सी तक के बीच में रात को गुजरते हुए रोज उन जगहों को देखा करता हूँ, जहां मैंने और राकेश पांडे ने सैकड़ों रातें चबूतरों, दुकानों के पटरों पर सुशील भैया के साथ खाना खाते हुए बस इस लालच में गुजार दीं कि अब भयवा सिगरेट सुलगा क़र छल्ले बनाएगा, और फिर जो वाग्मिता का समुद्र उसके शब्दों में बहेगा उसे बस आत्मसात कर लेना है।
उन आँखों का सम्मोहन, उस हंसी का जादू, वो बालों में उँगलियों को फंसा कर संवारना, हवा में बेफिक्री से हाथ फेंकते हुए मुंह बादलों से छल्ले बनाना, वो पूरा तिलिस्म ऐसे बाँध कर रख देता था, जहां वो एक मास्टर की तरह समझाते थे और मैं और राकेश पांडे उनको छात्रों की तरह टुकुर-टुकुर देखते हुए बस ये सोंचते थे कि "गुरु, बस यही यायावरी पैदा करनी है"
लेकिन इससे पहले कि हम सब यायावरी सीख पाते सब धुंआ-धुंआ हो गया ( BHU के पूर्व छात्र नेता व NSUI के पूर्व राष्ट्रीय सचिव रत्नाकर त्रिपाठी की कलम से )
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