आचार्य संजय तिवारी
इस विजय दशमी, दैव पुनः जागृत हो गए हैं। काँतारा के नए निर्माण संस्करण ने सृष्टि की सनातन रचना प्रक्रिया को सनातनी दृष्टि से अद्भुत कलात्मक ढंग से प्रस्तुत कर ऋषभ शेट्टी ने संपूर्ण सनातन जगत को ही जैसे झकझोर कर नींद से उठा दिया है। अद्भुत सृजन और कल्पना है। कांतार शब्द मूलतः रामायण से है और इसके विराट स्वरूप को ऋषभ के कला कल्पना कौशल ने सच में Gen Z के लिए जैसे परोस ही दिया है।
सनातन चिंतक तत्वज्ञ देवस्य ने इस फिल्म को देखने के बाद जो लिखा है वह भी अद्भुत है। वह लिखते हैं, आज जब काँतारा चैप्टर 1 हमारे सम्मुख आई है,तो ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि,ये फिल्म मात्र एक "प्रीक्वल" नहीं,अपितु भारतीय चेतना के गूढ़ स्रोतों की,पुनः उद्घोषणा है।।पहली फिल्म जहां,एक ग्रामीण समाज की देव–निष्ठा और आधुनिक लालच के संघर्ष को दिखाती थी,वहीं चैप्टर 1 उस कथा की जड़ तक जाता है,उस कालखंड में,जब मनुष्य और देवता के बीच,संवाद अभी जीवित थे।
ऋषभ शेट्टी ने इस फिल्म को एक पौराणिक पूर्वकथा के रूप में नहीं,अपितु,आध्यात्मिक पुनर्निर्माण के रूप में,प्रस्तुत किया है।ये वो कथा है,जहां लोकदेवता केवल पूजा के प्रतीक नहीं,अपितु संपूर्ण पारिस्थितिकी के रक्षक हैं।
यहां धर्म, केवल आस्था नहीं,जीवन का विज्ञान है।
फिल्म के पहले हिस्से में शेट्टी धैर्यपूर्वक उस संसार को रचते हैं जहाँ जंगल, नदी, पशु और मानव,सब एक ही आत्मा के अंग हैं।कॉमेडी, रहस्य और लोकबोध की छौंक के साथ वे धीरे–धीरे दर्शक को उस आध्यात्मिक संसार में प्रवेश कराते हैं,जहां,"दैव" मात्र कल्पना नहीं,अपितु,आपकी ही चेतना का विस्तार हैं। फिल्म अपने दूसरे हिस्से में,जैसे स्वयं को रूपांतरित कर लेती है,कैमरा अब न मात्र दृश्य दिखाता है,अपितु आत्मा के हर कण को छूता है।बैकग्राउंड स्कोर जब गूंजता है,तो वो किसी वाद्य यंत्र का स्वर नहीं,अपितु,उस वनभूमि का श्वास लगता है,जिसमें ये कथा घटित हो रही है।
जब दैव अवतरित होते हैं,तब सिनेमा मात्र,मनोरंजन नहीं रह जाता, वह आध्यात्मिक अनुभूति में बदल जाता है।दर्शक तालियाँ नहीं बजाते,बस विनम्रता से प्रणाम करते हैं। यही क्षण है जो,भारतीय सिनेमा के इतिहास में,अत्यंत दुर्लभ है,जहां श्रद्धा और सिनेमाई कला एकाकार हो जाते हैं।
ऋषभ शेट्टी को अब हनुमान जी के रूप में देखने की इच्छा प्रबल हो गई है,उस फिल्म के निर्देशक उन्हें किस तरह प्रेजेंट करेंगे ये देखने लायक होगा,क्योंकि अब तक,ऋषभ शेट्टी ने अपना लिखे हुए किरदार,को स्वयं निर्देशित कर,जो अभिनय किया है,वो एक अध्ययन का विषय है फिल्म अभिनय की शिक्षा ग्रहण करने वाले युवाओं के लिए।ऋषभ शेट्टी का अभिनय,पिछली बार से और भी सघन है।उन्होंने अभिनय को अभिनय नहीं,साधना बनाया है।उनका फिल्म के हर फ्रेम में भावांतरण मात्र,अभिनय नहीं,तप है।शायद यही कारण है कि,दर्शक उनके चरित्र से जुड़ नहीं जाते,
वे उसके साथ ही यात्रा करने लग जाते हैं। अभिनय की दृष्टि से "रुक्मिणी वसंथ" और "गुलशन देवैया" ने भी अपने पात्रों को जिस गहराई से जिया है,वो ये प्रमाणित करता है कि,ऋषभ शेट्टी के निर्देशन में हर कलाकार एक जीवंत एवं अविस्मरणीय पात्र बन जाता है,मात्र नॉर्मल अभिनेता नहीं रहता।
फिल्म के तकनीकी पक्ष पर दृष्टि डालें,तो यह कहना पड़ेगा कि 122 करोड़ की लागत में बनी यह फिल्म,किसी भी 300–400 करोड़ की बॉलीवुड फिल्म से कहीं अधिक समृद्ध और जीवंत प्रतीत होती है।CGI और VFX का उपयोग यहां प्रभाव दिखाने के लिए नहीं,अपितु भाव जगाने के लिए किया गया है।फिल्म में ऐसे दृश्य कम ही हैं,पर जितने हैं,वो फिल्म की गुणवत्ता को कम नहीं करते,अपितु कहानी के बाकी पात्रों को और प्रभावशाली बनाने में,स्वादानुसार शुद्ध सामग्री की उचित मात्रा रूप में कार्य करते हैं।
जंगल के दृश्यों से लेकर,महल के दृश्य और युद्ध के सिक्वेंस में,कैमरा मूवमेंट,लाइटिंग और लो–एंगल शॉट्स का संतुलन इतना सटीक है कि हर फ्रेम कलात्मक चित्र की भांति प्रतीत होता है।हर दृश्य का रंग–संयोजन,ध्वनि और संगीत,उस काल की आभा उत्पन्न करता है,जिसमें देवता और मानव के बीच संवाद होता था।
फिल्म ट्रेलर कट में कुछ भी नहीं दिखाया ऋषभ शेट्टी ने,सारा सरप्राइज़ एलिमिनेट,मूवी में डाल दिया है,अन्य निर्देशकों को और फिल्म एडिटर्स को उनसे बहुत कुछ सीखना चाहिए।
फिल्म के क्लाइमेक्स का अनुभव करने हेतु,लोग बार–बार टिकट बुक करवा रहे हैं,जो अकेले देखने आए थे,वो थिएटर से निकलते ही,अपने अपनों को कॉल कर,फिल्म देखने के लिए प्रेरित करते दिखाई दिए।
फिल्म के संगीतकार अजनीश लोकनाथ ने ध्वनि के माध्यम से जो वातावरण रचा है,वो किसी साधना से कम नहीं।जब पंजरुली–दैव का आह्वान होता है,तो डमरू,नगाड़े और शंख के संग–संग,जंगल की नमी,पत्तों की सरसराहट,और मानवीय हृदय की धड़कन,सब एक ही लय में गूंजने लगते हैं। सिनेमा हाल में उस क्षण ऊर्जा का एक ऐसा कंपन उठता है,।जो किसी महायज्ञ की ऊर्जा जैसा प्रतीत होता है।
एक्शन दृश्य बहुत ही आर्टिस्टिकली डायरेक्ट किए गए हैं,जिन्हें देखना स्वयं में एक रोमांच को जन्म देता है।अगर आपको राजामौली की फिल्मों का एक्शन पसंद आया है,तो आपको ऋषभ शेट्टी की इस फिल्म के एक्शन दृश्य भी बहुत पसंद आएंगे।
ऋषभ शेट्टी की टीम को इस फिल्म को बनाने में,कई वर्ष लगे,और इस दौरान फिल्म के सेट पर,कई एक्सीडेंट्स भी हुए,जिसमें कई क्रू मेंबर्स के प्राणों को वो नहीं बचा पाए,तो ऋषभ शेट्टी और उनकी पूरी टीम का,इस फिल्म से भावनात्मक रूप से जुड़ाव भी है।
ऋषभ शेट्टी का निर्देशन अद्भुत है क्योंकि उन्होंने कथा को केवल धार्मिक दृष्टिकोण से नहीं,अपितु मानव चेतना की मनोविज्ञानिक यात्रा के रूप में दिखाया है।उनका नायक न तो देव है,न ही मनुष्य,वो उस मध्य बिंदु पर खड़ा है,जहां मनुष्य अपने भीतर के "दैवत्व" से पहली बार,परिचित होता है।ये ही इस फिल्म का मूल दर्शन है,"दैव कहीं बाहर नहीं,
वो स्वयं मनुष्य के भीतर सोए हुए हैं,उन्हें जागृत करो.!"
इस फिल्म की सबसे बड़ी उपलब्धि है कि,यह धर्म का प्रचार नहीं करती,ये फिल्म धर्म की स्मृति जगाती है।ये स्मरण कराती कि,भारत का सिनेमा जब अपनी जड़ों से जुड़ता है,तो वो मात्र,फिल्म नहीं,जीवंत अनुभव बन जाता है।
विजयदशमी के शुभ दिन रिलीज़ हुई यह फिल्म प्रतीकात्मक भी है,ये अच्छाई की बुराई पर विजय की कथा नहीं,अपितु अज्ञान पर आत्मबोध की विजय का रूपक है। फिल्म लंबी अवश्य है,पर वर्थ–इट है।एक बार नहीं,कई बार देखी जा सकती है,लंबी है,पर जैसे गीता का प्रत्येक श्लोक पूर्णता का पाठ है,वैसे ही इस फिल्म का प्रत्येक दृश्य अपने भीतर एक तर्क,एक दर्शन और एक संदेश समेटे हुए है।यह उस "स्लो–बर्न सिनेमा" का भाग है,जिसे मात्र देखा नहीं,अपितु उसके प्रत्येक फ्रेम को अनुभव किया जाता है।
12 से 15 वर्ष के बच्चों को यह फिल्म दिखाना,उन्हें वीरत्व, धर्म और प्रकृति के प्रति श्रद्धा सिखाने का श्रेष्ठ मार्ग है।इस फिल्म में हिंसा है,पर वह क्रूरता नहीं,शौर्य है,वह विध्वंस नहीं,धर्मरक्षा है।महावतार नरसिम्हा की भांति,ये फ़िल्म सब आयु वर्गों के लोगों को,पसंद आएगी,मेरे थिएटर में तो 10 साल के बच्चे भी थे,और वो सीट पर खड़े होकर उछल रहे थे,"सैयारा" जैसी फिल्म के "पेड ओवर रिएक्शन वाले ड्रामे" से इतर,इस मूवी के दर्शकों को आप देख कर कह सकते हैं,कि उन्होंने अभी "दैव" के दर्शन किए हैं। वर्ष 2025 के भारतीय सिनेमा के इतिहास में, "काँतारा चैप्टर 1" एक ऐसा अध्याय बनेगा,जिसे मात्र कला नहीं,आध्यात्मिक क्रांति कहा जाएगा।ये फिल्म पुनः ये सिद्ध करती है कि,जब सिनेमा "देवत्व" से प्रेरित होता है,तब वो बॉक्स ऑफिस नहीं,प्रत्येक दर्शक की आत्मा पर आधिपत्य स्थापित करता है। ऋषभ शेट्टी ने फिर एक बार सिद्ध किया है,“दैव वही है, जो धरती से जुड़ा है, जिसने मिट्टी को जाना,उसने ईश्वर को पाया।”
याद कीजिए, कोविड के कालखंड से जब भारत पुनः उठ रहा था,उसी समय कन्नड़ भूमि से एक ऐसी ज्वाला फूटी,जिसने पूरे भारतीय सिनेमा के परिदृश्य को बदल दिया,उसका नाम था "काँतारा" और उस ज्वाला का रचयिता,निर्देशक,लेखक और अभिनेता,एक ही व्यक्ति था: "ऋषभ शेट्टी"। ऋषभ शेट्टी ने मात्र,16 करोड़ के सीमित साधनों में,एक ऐसी सांस्कृतिक लहर उत्पन्न की,कि,भारत के हर कोने में,
"दैव" का नाम गूंज उठा। "काँतारा" ये एक व्यक्ति का स्वप्न था,कन्नड़ फिल्म इंडस्ट्री की एक फिल्म को,पैन भारत की फिल्म बनाना,और उन्होंने अपना ये स्वप्न,मात्र 16 करोड़ में पूरा भी किया,भारत भर से उन्हें प्रेम मिला,पहली फिल्म ने ही 400 करोड़ की कमाई करी,और उस वर्ष की सबसे चर्चित मूवी बन गई। कारण बस एक था,फिल्म जिस निष्ठा से बनाई गई थी,उसने लोगों के हृदय को भीतर तक कुछ जागृत कर दिया,मूवी हॉल की जिस स्क्रीन पर,सुपरहीरो देखने लोग जाते थे,बच्चों संग,उसी स्क्रीन पर,ऋषभ शेट्टी की मेथड एक्टिंग के माध्यम से जागृत "दैव" के दर्शन करने लोग,थिएटरों की ओर दौड़ने लगे।।जब पूरी फिल्म में कॉमेडी,रोमांस,सस्पेंस,हॉरर,ट्रैजेडी,ड्रामा और रिवेंज के पश्चात् "दैव" आते हैं,तो लगता है,किसी कलियुग के मानव की यात्रा है,जिसने माया के सारे चक्रों को पार कर,अंत में अपने भीतर के ईश्वरत्व को स्वीकारा है,जागृत किया है। वो सीन आज भी,रौंगटे खड़े कर देता है,और हाथ स्वयं जुड़ जाते हैं,श्रद्धा भाव से,क्योंकि ये भारतीय फिल्म सिनेमा के इतिहास में बहुत कम बार हुआ है कि सनातन इतिहास में, देवताओं को,लोककथाओं को,कुलदेवियों,कुलदेवताओं, ग्राम देवताओं,वन देवी और वन देवताओं के इतिहास को लेकर,ऐसी प्रभावशाली प्रस्तुति हुई हो,और जैसे लोग कहते हैं,तुक्का था,चमत्कार एक ही बार होता है,तो ऋषभ शेट्टी और उनकी टीम ने,इस चमत्कार को पुनः दोहराया है,और इस बार फिल्म के अंत होते–होते तक,आपके नेत्रों में आंसू,प्रभु के प्रति अगाध श्रद्धा के भाव,विनम्रता के साथ,शक्ति का संचार, सब एक साथ जन्म ले लेगा। थिएटर में,मैं जहां कभी,हाथ जोड़ रहा था,वहीं दूसरी ओर कई लोग,खड़े होकर अभिवादन करने लगे,मूवी हॉल में ऐसी पॉजिटिव ऊर्जा का संचार होते देखना,वाकई अद्भुत अनुभव था। शानदार फिल्म से परिचित कराने के लिए बहुत बहुत आभार तत्वज्ञ।
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