सनातन संस्कृति में प्रत्येक पूर्णिमा का विशिष्ट आध्यात्मिक एवं धार्मिक महत्व है। आश्विन मास की पूर्णिमा को सर्वाधिक शुभ, धनदायक और पवित्र माना गया है। यह तिथि वर्ष की उन चुनिंदा रात्रियों में से एक है, जब आकाश में चंद्रमा अपनी संपूर्ण सोलह कलाओं के साथ प्रकट होता है और धरती को अमृतमयी चांदनी से नहला देता है। 6 अक्तूबर यानि आज शरद पूर्णिमा है। पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा कहा जाता है और इस दिन बंगाल समेत पूर्वी और दक्षिणी भारत में लक्ष्मी पूजा का विधान है।हालांकि हिंदी बेल्ट में लक्ष्मी पूजा दीवाली की रात को की जाती है।पर उस दिन बंगाल में काली पूजा होती है। शरद पूर्णिमा को साल की 12 पूर्णिमाओं में सबसे उत्तम माना गया है। आसमान इन दिनों निर्मल होता है. न बहुत सर्दी न गर्मी और बारिश भी अपना प्रचंड प्रकोप दिखा कर व्यतीत हो चुकी होती है। प्रकृति पूरी तरह शांत, निर्मल और सुहाने भाव में प्रकट होती है। इस रात को चंद्रमा अपनी सम्पूर्ण 16 कलाओं के साथ आकाश में उदित होता है. उत्तर भारत में इसे श्रीकृष्ण की रास लीला का अवसर भी कहा जाता है। मान्यता है कि शरद पूर्णिमा की रात श्रीकृष्ण अपनी गोपिकाओं के साथ महा रास करते हैं।
श्रीकृष्ण का महा रास: चूंकि सृष्टि में एकमात्र पुरुष श्रीकृष्ण हैं और शेष सब उनकी गोपिकाएं। पुरुष और प्रकृति का यह संयोग ही महा रास है। शायद इसीलिए मध्य काल के कवि अब्दुर्रहीम ख़ान-ए-खाना ने शरद पूर्णिमा पर प्रकृति के इस महा रास पर मदनाष्टक नाम से एक ग्रंथ लिखा है। इसकी खूबी यह है कि इसमें लिखी कविताओं की एक अर्धाली संस्कृत में है तो दूसरी फ़ारसी में। यह अद्भुत कृति है, इसमें वे बताते हैं कि महावन में कृष्ण की मुरली का सवार सुन कर अपनी-अपनी शैया पर पड़ी सो रही गोपिकाएं अस्त-व्यस्त कपड़ों में मुरली की धुन की तरफ़ भागती हैं।शरद निशि निशीथे, चांद की रोशनाई,
सघन वन निकुंजे, कान्ह वंशी बजाई,रति-पति-सुत-निद्रा, साइयां छोड़ भागीं।मदन शिरीष भूयः क्या बला आन लागी,
कविता में ऐसा अभिनव प्रयोग शायद ही किसी कवि ने किया हो।।लक्ष्मी जी का प्राकट्योत्सव : धन की देवी लक्ष्मी, भगवान विष्णु और चंद्रमा की विशेष पूजा भी इस रात होती है. मान्यता है कि देवताओं और असुरों के बीच जब समुद्र मंथन हुआ था तब जो रत्न निकले, उनमें से एक देवी लक्ष्मी भी थीं। इसलिए शरद पूर्णिमा लक्ष्मी के प्राकट्योत्सव के रूप में मनाने की परंपरा है। श्रीकृष्ण चूंकि स्वयं भगवान विष्णु के पूर्णावतार हैं। वे 16 कलाओं से पूर्ण हैं इसलिए देवी लक्ष्मी के साथ उनकी पूजा का भी विधान है। देवी लक्ष्मी सिर्फ धन-धान्य की ही देवी नहीं बल्कि साक्षात धन्वंतरि भी हैं, जिन्हें औषधियों का देवता माना गया है। इसीलिए उन्हें आरोग्य और स्वास्थ्य की देवी भी माना गया है। देवी लक्ष्मी को खीर प्रिय है अतः उन्हें खीर का भोग लगाया जाता है। शरद पूर्णिमा की शाम को खीर बना कर खुले आसमान के नीचे रख दी जाती है। कहा जाता है, चंद्रमा की किरणों के असर से यह खीर स्वास्थ्य और लंबी आयु की कल्पना करने वालों की इच्छा को पूरा करता है।
काम की कामना: शरद पूर्णिमा को आयुर्वेदाचार्य कोजागिरी पूर्णिमा कहते है. शारदीय नवरात्रि के बाद पड़ने वाली इस पूर्णिमा का विशेष महत्त्व है। यूं बुद्ध पूर्णिमा और गुरु पूर्णिमा को भी सनातनी परिवारों में विशेष पूजा होती है लेकिन शरद पूर्णिमा की छटा ही निराली है। एक तो यह पूर्णिमा शेष पूर्णिमाओं की तुलना में अधिक चमकदार और दोषरहित है. दूसरे इसकी अवधि सबसे लंबी है। इस रात भगवान कृष्ण गोपिकाओं के बीच हुए महा रास नृत्य को दैवीय और दिव्य माना गया है। इस पूर्णिमा की रात को भगवान कृष्ण ने महा रास इसलिए किया था क्योंकि चंद्रमा की चमक इस रात फीकी नहीं पड़ती. नृत्य और उत्सव की यह अद्भुत रात मदन (काम) को जागृत करती है। हिंदू सनातन धर्म में काम भी एक सिद्धि है, कामना है। धर्म, अर्थ और मोक्ष की तरह इसका भी मनुष्य के जीवन में बहुत महत्त्व है। मन और चंद्रमा की एकाग्रता: शरद पूर्णिमा को मनुष्य प्रकृति में ईश्वर की उपस्थिति को अनुभव करता है. शरद पूर्णिमा का चंद्रमा आकाश में अपने विशाल रूप के दर्शन कराता है क्योंकि शरद पूर्णिमा की रात चंद्रमा पृथ्वी के सर्वाधिक निकट होता है। ज्योतिष शास्त्र में मन और चंद्रमा को एक-दूसरे से जुड़ा हुआ बताया गया है। मन भी चंचल और चंद्रमा भी. किंतु जिस रात चंद्रमा पूर्ण होता है उस रात मन भी पूर्ण होगा. मन के पूर्ण होने से शरीर में ऊर्जा का संचार होता है।
अब यह मनुष्य के सोचने की बात है कि इस ऊर्जा को वह सही दिशा दे। शरद पूर्णिमा शरदोत्सव के रूप में भी मनाये जाने की परंपरा है। चंद्रमा जब शीतल होगा तो गर्मी का प्रकोप काम होगा। ऐसे में मनुष्य का शरीर भी निरोग होगा. इसीलिए पाचन क्रिया दुरुस्त करने के लिए खीर खाने को उत्तम माना गया है. क्योंकि शरद पूर्णिमा के चंद्रमा की अभिसिंचित खीर औषधीय गुणों से भरपूर होती है।
नेत्रों को शीतल करने वाली: किसानी सभ्यता वाले हमारे देश में प्रकृति को काफ़ी क़रीब से महसूस किया गया है। इसीलिए चंद्रमा की किरणों से भीगी बासी खीर, शरद पूर्णिमा की रात को जागरण, विभिन्न तरह की पूजा के साथ-साथ माना जाता है कि इस रात को चंद्रमा की रोशनी में सुई में धागा डालना चाहिये। कहा जाता है इससे नेत्रों को शीतलता मिलती है। बारिश की उमस और उसके बाद की धूप से व्याकुल शरीर को शांति भी।
इस खीर और दूध के सेवन से बढ़ा हुआ बीपी कम होता है और हृदय रोगों के लिए भी खीर उपयोगी है। भले ये किसानी स्वभाव की बातें हों. इनका कोई ठोस वैज्ञानिक आधार न हो परंतु इसमें कोई शक नहीं कि हज़ारों वर्ष का संचित अनुभव स्वतः विज्ञान है। इसीलिए हर घर में इस रात खीर का विधान है. महानगरीय जीवन की आपाधापी में लोग इन बातों को भूलने लगे हैं. फिर भी जो निष्ठावान लोग हैं, वे इस रात ये सारे उपक्रम करते हैं.
पित्त प्रकोप को दूर करती है खीर: खीर ही नहीं शरद पूर्णिमा को बहुत से लोग दूध में केसर और इलायची डाल कर पोहा बनाते हैं। बादाम, दालचीनी तथा नारियल भी मिलाते हैं. इन सबको चांदनी में रखा जाता है। कुछ लोग ठंडे दूध के साथ चावल और लड्डू खाते हैं। इसके पीछे का मंतव्य है कि शरद ऋतु की संधि काल की बीमारियों से बचा जा सके। यह पित्त के प्रकोप (चयापचय अग्नि विकृति) के लिए आदर्श मौसम है, जब पित्त या अग्नि तत्व अन्य तत्वों के साथ मिलकर दूषित हो जाता है। पूर्णिमा की रात में दूध के साथ चावल के लड्डू का सेवन शारीरिक अग्नि (पित्त-चयापचय) को शांत करने का एक अच्छा उपाय है। इसीलिए आयुर्वेद में शरद पूर्णिमा के दिन कई तरह की पित्त नाशक दवाएं भी बनाई जाति हैं। प्राचीन लोक कथाओं में शरद पूर्णिमा की भोर (कार्तिक प्रतिपदा) से दही न खाने का विधान है. दही की प्रकृति भले शीतल हो किंतु वह पित्त को बढ़ाता है। आयुर्वेद में हर महीने के अलग-अलग भोजन: भारत की किसानी संस्कृति में घाघ का बड़ा महत्त्व है। घाघ कवि भी थे और आयुर्वेद के ज्ञाता भी। उन्होंने विक्रमी पंचांग के सभी 12 महीनों के लिए ऋतु के अनुकूल भोजन करने और न करने का विधान लिखा है। जैसे क्वार में करेला खाने की मनाही है और कार्तिक में दही खाने की। वे क्वार में गुड़ के सेवन की अनुमति देते हैं और कार्तिक में मूली खाने को कहते हैं। घाघ की ये कहावतें ही गंगा-यमुना के मैदानी क्षेत्रों में ऋतु के अनुकूल भोजन के नियम बनाए थे। ये नियम किसानों को सदैव स्वस्थ रखते थे। भारत में दूर गांवों में जहां न दवाएं थीं न चिकित्सक वहां ये विधान ही किसानों को बीमारी से दूर करते थे।
धार्मिक मान्यता है कि इस दिन धन की देवी लक्ष्मी क्षीर सागर से प्रकट हुई थीं और वे इस दिन धरती पर भ्रमण करती हैं. शरद पूर्णिमा के दिन व्रत कथा का पाठ करना बहुत ही शुभ माना जाता है। ऐसे में आइए पढ़ते हैं शरद पूर्णिमा की कथा.
शरद पूर्णिमा व्रत कथा क्या है?: शरद पूर्णिमा की कथा को ‘लड्डू वाली कथा’ भी कहते हैं, जो कि एक साहूकार की दो बेटियों की कहानी है. धार्मिक मान्यता है कि शरद पूर्णिमा व्रत का पालन कर कथा का पाठ करने से लक्ष्मी नारायण की कृपा प्राप्त होती है और मनोकामनाएं पूरी होती हैं. चलिए आपको यह कथा विस्तार से बताते हैं.
शरद पूर्णिमा कथा लड्डू वाली:
एक साहूकार की दो बेटियां थीं और दोनों ही पूर्णिमा का व्रत करती थीं. लेकिन बड़ी बेटी अपना व्रत पूरी श्रद्धा और विधि-विधान से करती थी, जबकि छोटी बेटी शाम को ही भोजन करके व्रत खोल लेती थी।
बड़ी बेटी को पूर्णिमा के व्रत के पुण्य प्रताप से पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई. जबकि छोटी बेटी को संतान तो हुई, लेकिन वह दीर्घायु नहीं होती थी और जन्म लेते ही मर जाती थी. एक बार जब छोटी बेटी अपने मृत पुत्र के शोक में बैठी थी, तब बड़ी बहन वहां आई. बड़ी बहन ने जैसे ही छोटी बहन के मृत बेटे के वस्त्र को छुआ तो मृत पुत्र जीवित हो उठा और रोने लगा.
दुखी होकर उसने एक संत से इसका कारण पूछा. संत ने बताया कि उसके व्रत अधूरे रहने के कारण ही उसकी संतान मर जाती थी. तब छोटी बहन ने समझ आया कि यह सब बड़ी बहन के पूर्णिमा व्रत के कारण हुआ है. तब उसने भी विधि-विधान से पूरा व्रत किया, जिसके फलस्वरूप उसकी भी संतान दीर्घायु हुई और उसे सुख-समृद्धि प्राप्त हुई।इस प्रकार, इस पूर्णिमा व्रत के महत्व और फल का प्रचार पूरे नगर में फैल गया और लोग धन-जन की वृद्धि और सभी मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए इस व्रत को करने लगे. शरद पूर्णिमा की रात को चंद्रमा की चांदनी में खीर बनाई जाती है, जिसे चंद्रमा की रोशनी में रात भर रखा जाता है और अगले दिन ग्रहण किया जाता है।इस व्रत के बाद पूजा में बने विशेष लड्डुओं का वितरण किया जाता है जैसे – एक लड्डू बाल गोपाल को, एक गर्भवती महिला को, एक सखी को, एक पति को, एक तुलसी मैया को और एक व्रत करने वाली महिलाएं खुद लेती हैं। ( अशोक झा की कलम से )
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