आचार्य संजय तिवारी
विधाता ने पृथ्वी को अस्तित्व दिया। पृथ्वी पर सृष्टि रची गई। सृष्टि में जंगल, जंगम, पर्वत, नदियां, ताल, पोखरे, जीव, जंतु, पशु पक्षी, मनुष्य आदि सभी रचे गए। सृष्टि में जीवन और शेष के लिए संतुलन स्थापित रहे इसके लिए नैसर्किग नियम निर्धारित हुए। इस विराट स्वरूप में एक उपजा मनुष्य जिसने अपने सुख और सुविधाओं के लिए सृष्टि के शेष अभी चर अचर को निगलना शुरू कर दिया। नदी, पहाड़, रेत, पत्थर, ताल, पोखरे, जंगल , वृक्ष, पशु, पक्षी, वनस्पतियों के सभी स्वरूपों को इस मनुष्य नामक प्राणी ने अपने लिए प्रयोग करना शुरू कर दिया। एक प्रकार से सृष्टि के सभी नैसर्गिक नियमों को तोड़ते हुए मनुष्य ने प्रकृति के विरुद्ध युद्ध जैसा छेड़ दिया। प्रकृति के शेष सभी अवयव या तो विलुप्त होते गए या उनके अस्तित्व का संकट खड़ा हो चुका। हम कथित सभ्य लोगों ने प्रकृति के नैसर्गिक जीवन को आवारा की संज्ञा दे दी। केवल कुत्ते ही आवारा हैं? प्रकृति, पवन, जल, आकाश, अग्नि....आवारा तो आपकी दृष्टि में ये सभी हैं। इनमें से किसी पर आपका कथित कानून काम नहीं करता। यह विडंबना है। दुनिया के किसी सभ्य देश में कभी किसी भगवान को न्यायालय में नहीं घसीटा जाता लेकिन भारत में यह अक्सर होता है। खास बात यह कि इस पर विद्वान न्यायाधिकारी खूब रुचि से अपने ज्ञान से सुनवाई भी करते हैं और विशेष ज्ञानी जन बहस भी। अब आवारा कुत्ते सुनवाई और बहस का विषय हैं। इन्हें जगह जगह फटने वाले बादलों, अनियंत्रित होकर बहने वाली नदियों, सुनामी पैदा करने वाले समुद्र, आकाश से गिरने वाली बिजली, चक्रवातों, आंधियों और तूफानों को भी न्यायालय में घसीटना चाहिए। यह तर्क देते हुए कि पृथ्वी पर सिर्फ हम रहेंगे, शेष सभी इस धरती को छोड़ दें, क्योंकि इनसे हमें बहुत दिक्कत हो रही....
यह हो रहा है। इसे रोकने की कोई चेष्टा कहीं नहीं हो रही। इसी प्रकृति में उपजा एक प्राणी है श्वान। इसे कुत्ता भी कहते हैं। बहुत ही वफादार जानवर। थोड़ा हिंसक भी। लेकिन विश्वासपात्र भी। इसके अनेक स्वरूप हैं। कुछ स्वरूपों के लिए मनुष्य लालायित भी है। लेकिन वे जो इनमें केवल प्रकृतिष्ठ हैं, आजकल संकट में हैं। ये आजकल भारत के मानवनिर्मित न्याय से संकट में ज्यादा हैं।
इस श्वान संकट के पीछे अब मनुष्य सीधे दिखाई दे रहा है।
हम बहुत सामान्य सी बात भूल रहे हैं कि प्रकृति में सब एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। इस जुड़े हुए में मनुष्य भी एक कड़ी मात्र है। हम सर्वस्व नहीं हैं, ना ही हम इस प्रकृति के मालिक हैं। मानव के मालिक होने के भाव ने ही सारी समस्याएं शुरू की हैं। आजकल कुत्तों को लेकर मचे बवाल और चर्चा में मेरी समझ में यही बात आती है कि हम पता नहीं कैसे स्वयं को ही वह विधाता मान बैठे हैं, जिसने इस सृष्टि को रचा है । कुत्ते हमेशा से इंसानों के साथ रहने वाले जानवर हैं और हम पर उनकी और उन पर हमारी निर्भरता नई नहीं है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि 1957 में मॉस्को की गलियों से एक 'आवारा' कुत्ते लाइका को सोवियत ने अंतरिक्ष भेजा। चलिए छोड़िए दूर देश की बातें। अपनी ही करते हैं। पांडव स्वर्ग गए तो युधिष्ठिर एक कुत्ते को अपने साथ लेकर गए। सिर्फ कहानी ही मानिए तो ये इंसान का प्रकृति के एक अंश से जुड़ाव है।
याद कीजिए अपना बचपन। अब से 20- 25 साल पहले के अपने-अपने गांव में लौटिए और याद करिए सुबह के खाने के वह पल। पहली रोटी अग्नि की, दूसरी गाय की फिर परिवार की, सबसे अंत में कुत्ते की रोटी। एक रोटी और बदले में सबसे अच्छा है दोस्त। हम गांव से शहर गए। शहर ने हमें फ्लैट नंबर में तब्दील कर दिया। कुत्ता जो हमारा जानवरों में सबसे नजदीकी दोस्त था, उससे हमारा राब्ता खत्म हुआ। यही अब गांवों में हुआ है। अब हम पर आश्रित आपका दोस्त अकेला है, खाना भी ढूंढेगा। जो आसानी से मिलेगा वो खायेगा। इस आदत ने उसे एक शिकारी में तब्दील कर दिया। समस्या सिर्फ कुत्तों की नहीं है, समाज की है। जैसा आप समाज बनायेंगे, वैसे ही आपके लोग होंगे, जानवर होंगे। आपने एक हिंसक समाज बनाया है इसीलिए सबसे हिंसक जानवर शेर गिर में अब आपके बगल से निकल सकते हैं। रणथंभोर में बाघ ने पोज देना सीख लिया ताकि आपको बेहतरीन फोटो दे सके। जैसे कोई दोस्त हों। जो सबसे सरल थे, वे थोड़ा हिंसक हुए तो उनमें आपने एक दुश्मन खोज लिया। मसलन गाय, कुत्ता।
अब गंभीरता से सोचिए, कुत्ते हिंसक हुए हैं या हम, तथाकथित सर्वश्रेष्ठ प्रजाति जो पृथ्वी और सृष्टि को अपना चाकर बनाना चाहते हैं ? जगह जगह फटने वाले बादलों, अनियंत्रित होकर बहने वाली नदियों, सुनामी पैदा करने वाले समुद्र, आकाश से गिरने वाली बिजली, चक्रवातों, आंधियों और तूफानों को भी न्यायालय में घसीट लेंगे? इन सभी से आपको बहुत डर तो है।
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