- खुदीराम नाम के पीछे भी छुपी है एक कहानी , बचपन से ही अग्रेजों के खिलाफ
- उन्होंने अपना क्रांतिकारी जीवन सत्येन बोस के नेतृत्व में शुरू किया
आज खुदीराम बोस बलिदान दिवस है।वह दिन जब भारत के आज़ादी के आंदोलन को नई ऊर्जा देने वालों में थे। इस वीर क्रांतिकारी ने 18 साल की उम्र में अपने प्राण देश के नाम कर दिए। सत्तापक्ष ही या विपक्ष आज सभी उन्हें यादकर उन्हें भाव भीनी श्रद्धासुमन अर्पित कर रहे है। देश इस महीने की 15 तारीख को अपना 78 वां स्वतंत्रता दिवस मनाएगा। ऐसे में आज से हम आपके लिए एक सीरीज शुरू करने जा रहे हैं। इसके जरिए हम आपको स्वतंत्रता संग्राम के उन नायकों के बारे में बताएंगे जिनका योगदान हर किसी जितना ही महत्वपूर्ण था। जिसकी दूसरी किश्त में हम खुदीराम बोस की कहानी बताएंगे। एक ऐसे क्रांतिकारी जिन्होंने अपने जुनून से ब्रिटिश हुकूमत की नींव हिला दी थी।
क्यों ‘खुदीराम’ बोस ही पड़ा नाम?
खुदीराम बोस का जन्म 3 दिसंबर 1889 को पश्चिम बंगाल के मेदिनीपुर जिले में त्रिलोक्यपुरी बोस और लक्ष्मीप्रिया के घर हुआ था। खुदीराम के जन्म से पहले ही उनके माता-पिता बीमारी के कारण अपने दो बेटों को खो चुके थे। इस बार जब खुदीराम तीसरी संतान थे, तो डर स्वाभाविक था। खुदीराम बोस को बचाने के लिए एक चाल चली गई। यह चाल खुदीराम को बुरी नजर से बचाने के लिए की गई थी। बड़ी बहन ने खुदीराम को ताबीज के रूप में चावल देकर खरीदा। चूंकि वहां चावल को खुदी कहा जाता था इसलिए उनका नाम खुदीराम पड़ गया।
बचपन से ही की अंग्रेजों की खिलाफत
जिस उम्र में लड़के किताबों और स्कूली जीवन में व्यस्त रहते हैं, उसी उम्र में खुदीराम बोस ने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई शुरू कर दी। उन्हें अंग्रेजों के खिलाफ पर्चे बांटने का काम सौंपा गया। यह 1906 की बात है। एक और क्रांतिकारी सत्येंद्रनाथ बोस ने वंदे मातरम लिखा और उन्हें ब्रिटिश शासन के खिलाफ पर्चे बांटने की ज़िम्मेदारी दी गई। इन पर्चों को मिदनापुर में आयोजित एक मेले में बांटने की योजना थी। अंग्रेजों को इसकी भनक लग गई। अंग्रेजों के पिट्ठुओं ने इसकी सूचना दे दी। खुदीराम बोस देश की आजादी के लिए मात्र 18 साल की उम्र में फाँसी पर चढ़ गये. इस वीर पुरुष की शहादत से सम्पूर्ण देश में देशभक्ति की लहर उमड़ पड़ी. इनके वीरता को अमर करने के लिए गीत लिखे गए और इनका बलिदान लोकगीतों के रूप में मुखरित हुआ. खुदीराम बोस के सम्मान में भावपूर्ण गीतों की रचना हुई जो बंगाल में लोक गीत के रूप में प्रचलित हुए.
बलिदानी वीर खुदीराम बोस का जन्म 3 दिसंबर 1889 ई. को बंगाल में मिदनापुर ज़िले के हबीबपुर गाँव में हुआ था. उनके पिता का नाम त्रैलोक्य नाथ बोस और माता का नाम लक्ष्मीप्रिय देवी था. बालक खुदीराम के सिर से माता-पिता का साया बहुत जल्दी ही उतर गया था। इसलिए उनका लालन-पालन उनकी बड़ी बहन ने किया. उनके मन में देशभक्ति की भावना इतनी प्रबल थी कि उन्होंने स्कूल के दिनों से ही राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेना प्रारंभ कर दिया था। सन 1902 और 1903 के दौरान अरविंदो घोष और भगिनी निवेदिता ने मेदिनीपुर में कई जन सभाएं की और क्रांतिकारी समूहों के साथ भी गोपनीय बैठकें आयोजित की। खुदीराम भी अपने शहर के उस युवा वर्ग में शामिल थे जो अंग्रेजी हुकुमत को उखाड़ फेंकने के लिए आन्दोलन में शामिल होना चाहता था। खुदीराम प्रायः अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ होने वाले जलसे-जलूसों में शामिल होते थे तथा नारे लगाते थे। उनके मन में देश प्रेम इतना कूट-कूट कर भरा था कि उन्होंने नौवीं कक्षा के बाद ही पढ़ाई छोड़ दी और देश की आजादी में मर-मिटने के लिए स्वतंत्रता के समर में कूद पड़े। बीसवीं सदी के प्रारंभ में स्वाधीनता आन्दोलन की प्रगति को देख अंग्रेजों ने बंगाल विभाजन की चाल चली जिसका घोर विरोध हुआ। इसी दौरान सन् 1905 ई. में बंगाल विभाजन के बाद खुदीराम बोस स्वाधीनता आंदोलन में कूद पड़े।।उन्होंने अपना क्रांतिकारी जीवन सत्येन बोस के नेतृत्व में शुरू किया था। मात्र 16 साल की उम्र में उन्होंने पुलिस स्टेशनों के पास बम रखा और सरकारी कर्मचारियों को निशाना बनाया।।वह रिवोल्यूशनरी पार्टी में शामिल हो गए और 'वंदेमातरम' के पर्चे वितरित करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सन 1906 में पुलिस ने बोस को दो बार पकड़ा 28 फरवरी, सन 1906 को सोनार बंगला नामक एक इश्तहार बांटते हुए बोस पकडे गए पर पुलिस को चकमा देकर भागने में सफल रहे। इस मामले में उनपर राजद्रोह का आरोप लगाया गया और उन पर अभियोग चलाया परन्तु गवाही न मिलने से खुदीराम निर्दोष छूट गये। दूसरी बार पुलिस ने उन्हें 16 मई को गिरफ्तार किया पर कम आयु होने के कारण उन्हें चेतावनी देकर छोड़ दिया गया।
6 दिसंबर 1907 को खुदीराम बोस ने नारायणगढ़ नामक रेलवे स्टेशन पर बंगाल के गवर्नर की विशेष ट्रेन पर हमला किया परन्तु गवर्नर साफ़-साफ़ बच निकला। वर्ष 1908 में उन्होंने वाट्सन और पैम्फायल्ट फुलर नामक दो अंग्रेज अधिकारियों पर बम से हमला किया लेकिन किस्मत ने उनका साथ दिया और वे बच गए। बंगाल विभाजन के विरोध में लाखों लोग सडकों पर उतरे और उनमें से अनेकों भारतीयों को उस समय कलकत्ता के मॅजिस्ट्रेट किंग्जफोर्ड ने क्रूर दण्ड दिया। वह क्रान्तिकारियों को ख़ास तौर पर बहुत दण्डित करता था। अंग्रेजी हुकुमत ने किंग्जफोर्ड के कार्य से खुश होकर उसकी पदोन्नति कर दी और मुजफ्फरपुर जिले में सत्र न्यायाधीश बना दिया। क्रांतिकारियों ने किंग्जफोर्ड को मारने का निश्चय किया और इस कार्य के लिए चयन हुआ खुदीराम बोस और प्रफुल्लकुमार चाकी का।
मुजफ्फरपुर पहुँचने के बाद इन दोनों ने किंग्जफोर्ड के बँगले और कार्यालय की निगरानी की। 30 अप्रैल 1908 को चाकी और बोस बाहर निकले और किंग्जफोर्ड के बँगले के बाहर खड़े होकर उसका इंतज़ार करने लगे। खुदीराम ने अँधेरे में ही आगे वाली बग्गी पर बम फेंका पर उस बग्गी में किंग्स्फोर्ड नहीं बल्कि दो यूरोपियन महिलायें थीं जिनकी मौत हो गयी।अफरा-तफरी के बीच दोनों वहां से नंगे पाँव भागे।भाग-भाग कर थक गए खुदीराम वैनी रेलवे स्टेशन पहुंचे और वहां एक चाय वाले से पानी माँगा पर वहां मौजूद पुलिस वालों को उन पर शक हो गया और बहुत मशक्कत के बाद दोनों ने खुदीराम को गिरफ्तार कर लिया। 1 मई को उन्हें स्टेशन से मुजफ्फरपुर लाया गया।
उधर प्रफ्फुल चाकी भी भाग-भाग कर भूक-प्यास से तड़प रहे थे। 1 मई को ही त्रिगुनाचरण नामक ब्रिटिश सरकार में कार्यरत एक आदमी ने उनकी मदद की और रात को ट्रेन में बैठाया पर रेल यात्रा के दौरान ब्रिटिश पुलिस में कार्यरत एक सब-इंस्पेक्टर को शक हो गया और उसने मुजफ्फरपुर पुलिस को इस बात की जानकारी दे दी। जब चाकी हावड़ा के लिए ट्रेन बदलने के लिए मोकामाघाट स्टेशन पर उतरे तब पुलिस पहले से ही वहां मौजूद थी। अंग्रेजों के हाथों मरने के बजाए चाकी ने खुद को गोली मार ली और अमर हो गए। खुदीराम बोस को गिरफ्तार कर मुकदमा चलाया गया और फिर फांसी की सजा सुनाई गयी। आज ही के दिन अर्थात 11 अगस्त सन 1908 को उन्हें फाँसी दे दी गयी। उस समय उनकी उम्र मात्र 18 साल और कुछ महीने थी। खुदीराम बोस इतने निडर थे कि हाथ में गीता लेकर ख़ुशी-ख़ुशी फांसी चढ़ गए। उनकी निडरता, वीरता और उनके बलिदान ने उनको इतना लोकप्रिय कर दिया कि बंगाल के जुलाहे एक खास किस्म की धोती बुनने लगे और बंगाल के राष्ट्रवादियों और क्रांतिकारियों के लिये वह और अनुकरणीय हो गए। उनकी फांसी के बाद विद्यार्थियों तथा अन्य लोगों ने शोक मनाया और कई दिन तक स्कूल-कालेज बन्द रहे। इन दिनों नौजवानों में एक ऐसी धोती का प्रचलन हो चला था जिसकी किनारी पर खुदीराम लिखा होता था। आज वीरता की उस अमर गाथा के बलिदान दिवस पर उस वीर बलिदानी को बारम्बार नमन है व ऐसे अमरता प्राप्त वीरो की गौरवशाली गाथा को जनता तक समय समय पर लाने का संकल्प भी। ( अशोक झा की रिपोर्ट )
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