मैं, श्याम सुंदर मिश्र, एलबीएस हास्टल, कमरा नं. 111 में 1981 की शुरुआत में दाखिल हुआ और मई 1983 में आई.एफ.एस. में चयन होने के बाद देहरादून प्रशिक्षण जाने के लिए हास्टल छोड़ा था। देहरादून का प्रशिक्षण पूरा होने के बाद महाराष्ट्र में पूरा कार्यकाल रहा। जिस समय मैं एलबीएस हॉस्टल में पहुंचा उस समय डा. एस.एस. मिश्र, तत्कालीन अध्यक्ष एवं प्रोफेसर, संस्कृत विभाग हॉस्टल के प्रोवोस्ट थे। उन्होंने ही मुझे LBSian बनाया था और स्वाभाविक ही उसके लिए आवश्यक था किसी कक्षा में प्रवेश। मुझसे 11 वर्ष बड़े अग्रज, जो मेरे जन्म से ही पितृतुल्य स्थान पर रहे, ने अपने सहयोगियों से चर्चा करके मानव विज्ञान (Anthropology) में मेरा दाखिला करवा दिया। इसके साथ ही मुझे हास्टल अलाट हो गया।
डा. एसएस मिश्र प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी थे। फिर भी, प्रोवोस्ट बनकर वे किन कारणों से परेशान हो गए, मुझे पता नहीं चला। शीघ्र ही उन्होंने provostship छोड़ने का निर्णय ले लिया। अगले प्रोवोस्ट उसी विभाग से आए, पर उनका conflict of interest बीच में आ गया। वे मेरे भ्राताश्री थे। एक दिन उन्होंने मुझसे पूछा, "तुम्हारा IFS का अंतिम परिणाम कब तक आने वाला है।" मेरा साक्षात्कार हो चुका था, फिर भी मुंह से निकल गया, "दूसरे हास्टल में shift करवा दें!" वे बिना बोले क्रोध में मेरी तरफ से नजर हटाकर घर के बाहर चले गए। मार्च 1983 में परिणाम आया। मैं PIB आफिस से सीधा उनके पास पहुंचा। कुछ महीनों के बाद फिर से उन्होंने मेरी नजर में नजर डालकर बात की. "उस दिन मुझे तुम पर गुस्सा क्यों आया था, समझ पाए थे क्या?....'अगले 2 महीने में तुम आईएफएस अफसर बन जाओगे और मेरा (संस्कृत विभाग में मेरे प्रवक्ता भ्राताश्री का) conflict of interest स्वत: समाप्त हो जाएगा' यह बोलने के बजाए 'तुम्हें दूसरे हास्टल में भेज दूं' यह वाक्य हताशा का प्रतीक था........प्रशासकीय सेवा के वरिष्ठ पद की तैयारी में देहरादून में जो सिखाएंगे, वह तो सीखना, पर मनःस्थिति बदलने का तुम्हारा प्रशिक्षण आज से ही शुरू होता है।" मेरे अग्रज बहुत कुछ बोलते हुए एक बार फिर बाहर निकल गए। इस बार जाते हुए उन्होंने मेरा मस्तक चूमा, उनकी आंखों में संतुष्टि थी, प्यार था, समाधान था। वे भी कुछ ही वर्ष एलबीएस हास्टल प्रोवोस्ट रहे। उनका कान्फ्लिक्ट आफ इन्ट्रेस्ट फिर से आड़े आया होगा, क्योंकि कुछ वर्षों बाद लगभग एक दशक तक हमारे परिवार में नई पीढ़ी के कई बच्चे LBSian हुए और समाज में अपनी-अपनी जगह बनायी। इस कारण से, इस हास्टल में मैं रहा तो दो ही साल, पर वहां मेरा आना-जाना सन 2000 तक बना रहा।
ऊपर उल्लेखित मेरे अग्रज कालांतर में डाइबिटीस से गंभीर रूप से ग्रसित हो गए थे, परिणामत: कोविड का शिकार होने पर 24 घंटे भी मुकाबला न कर सके। पहली जनवरी 2021 का नववर्ष का दिन उनके निधन का समाचार लेकर आया था। अत: इतने लंबे मेसेज के लिए क्षमाप्रार्थी हूं। प्रोवोस्ट की बात चली तो सोचा अपने उस भाई, जो मेरे शिक्षक तो कभी नहीं रहे (संस्कृत विषय से नाम कटवाकर विज्ञान विषय में नवीं में भी मेरा दाखिला उनके द्वारा ही कराया गया था!) पर मेरे समस्याग्रस्त दा़एं हाथ की दो उंगलियों से कलम पकड़वा कर जिस अक्षरज्ञान की शुरूआत उन्होंने कराई, वह यात्रा निर्बाध चलती रही। यूपीएससी तक, और उसके बाद भी हमेशा ही, दो उंगलियों से पेन पकड़ने में कभी कोई कमी महसूस नहीं हुई। अत:, मेरे इन शब्दों को एक प्रोवोस्ट को श्रद्धांजलि समझा जाए। ( अब लखनऊ में रह रहें पूर्व आईएफएस एसएस मिश्र की कलम से)

दुनियाभर के घुमक्कड़ पत्रकारों का एक मंच है,आप विश्व की तमाम घटनाओं को कवरेज करने वाले खबरनवीसों के अनुभव को पढ़ सकेंगे
https://www.roamingjournalist.com/