मेरे बाबूजी का जब जन्म हुआ था तो बाबा की उम्र 52 साल थी। बाबा के इकलौते बेटे थे, लेकिन बाबा पुत्रमोह से बहुत दूर थे। गांव में हर साल नाग पंचमी पर कुश्ती और कबड्डी होती थी। बाबूजी की उम्र 10-12 साल रही होगी, उनकी कुश्ती हुई करिंगन काका से। करिंगन काका बाबूजी से एक-दो साल बड़े थे, घर के कहार के बेटे थे। उन्होंने बाबूजी को उठाकर पटक दिया। बाबा ने उसके बाद इलाके के दो पहलवान घर पर ही बुला लिए। वे बाबूजी को कुश्ती सिखाते थे। दंड-बैठक, सपाट और कुश्ती। पहलवान लोग दूध-घी, मलाई रबड़ी काटते थे और पहलवानी करते थे। बरसों तक दोनों पहलवान हमारे गांव में ही रहे।
बाबूजी पर बाबा ने कभी ज्यादा भरोसा नहीं किया। अक्सर पूछते-कसरत किए हो। बाबूजी बोलते- हां कर चुका। बाबा कहते-कोई बात नहीं 10 दंड बैठक मेरे सामने भी लगा लो। बाबूजी बड़े हो गए, जवान हो गए, शादी-ब्याह हो गया, बाल-बच्चेदार हो गए, लेकिन बाबा उन पर कभी पूरा भरोसा नहीं करते थे। जबकि बाबूजी असंभव जैसे काम भी संभव कर देते थे। बाबा का सौंपा एक भी ऐसा काम नहीं था, जिसे बाबूजी ने पूरा नहीं किया हो। अनोखा था बाप-बेटे का प्यार।
दरअसल बाबा बाबूजी को बहुत मजबूत व्यक्ति के तौर पर देखना चाहते थे, इस नाते खुद को कमजोर नहीं होने देते थे। बाबूजी से उनका बहुत ज्यादा संवाद नहीं था, लेकिन नजर हमेशा उन्हीं पर थी। हां बाबा मेरी मां को बहुत मानते थे। खूब बातें करते थे। बाबूजी तक भी कोई बात पहुंचानी होती थी तो मां से ही कहते थे। मेरी मां को बाबा अक्सर माई कहकर बुलाते थे। कहते थे-'पिछले जनम में ते हमार माई रहल होबे।'
बाबूजी हम लोगों के बीच अक्सर बाबा की नजीर रखकर कहते थे-'मेरे पिता पुत्रमोह में धृतराष्ट्र नहीं बने, जितना भरोसा वे मुझ पर करते थे, उससे बहुत ज्यादा भरोसा नहीं कर सकता तुम लोगों पर।' कोई अगर बाबूजी से हमारी प्रशंसा कर देता, गुण बखानता तो टोकते हुए कहते थे- 'मुझे गुणों का बखान नहीं सुनना है, अगर कोई ऐब हो तो उसे बताओ, उससे मैं ज्यादा सुखी और संतुष्ट होऊंगा।' यही नहीं स्कूल में पढ़ाई के वक्त जो अध्यापक हमारी सबसे ज्यादा पिटाई लगाते थे, उनका हमारे घर में भांति-भांति के व्यंजनों, पकवानों और मिठाइयों से स्वागत होता था।
हमारे भइया की शादी में एक रिश्तेदार से पहली बार मुलाकात हुई, खूब बात हुई। तब मैं इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से बीए कर रहा था। फिर वे बाबूजी से मिले और मेरे सामने ही मेरी प्रशंसा शुरू कर दी- 'अरे मिश्रा जी ये लड़का तो गजब है, ब्रिलियंट है, चाइल्डिस्ट नेचर है।' इससे पहले वो बात और आगे बढ़ाते बाबूजी बोले-'अरे बलि-बलि जाऊँ'।
बाबूजी संस्कृत की दो पंक्तियां अक्सर दोहराते थे। पहली- 'प्राप्ते षोडसे वर्षे पुत्रम् मित्रम् समाचरेत।' यानी पुत्र अगर 16 साल का हो गया है तो उसके साथ मित्रता का भाव रखना चाहिए। और दूसरी लाइन ये भी- 'सर्वत्र जयम् इच्छेत, पुत्रात, शिष्यात पराजयम'। यानी हर जगह विजय की इच्छा रखनी चाहिए, लेकिन शिष्य और पुत्र से पराजय की इच्छा रखनी चाहिए। ये दोनों पंक्तियां वो कहते ही नहीं थे, उस पर चलते भी थे। 16 साल की उम्र से मेरा उनका संवाद बढ़िया से शुरू हो गया था। हर विषय पर उनसे बात कर लेता था। बहस भी खूब होती थी। सब कुछ तो था, लेकिन उन्होंने कभी तारीफ नहीं की। किसी उपलब्धि पर पीठ नहीं थपथपाई। बस मुस्कुरा देते थे, हमारे लिए ये भी ऑस्कर से कम नहीं था।
जब मैं 12-13 साल का था, तब मुझे वेद प्रकाश शर्मा, गुलशन नंदा, रानू, सुरेंद्र मोहन पाठक वाले उपन्यास पढ़ने की लत लग गई थी। बाबूजी ने टोका नहीं, गोरखपुर से प्रेमचंद, शरतचंद्र के उपन्यास लाकर मुझे दिए। जब भी गोरखपुर जाते, मेरे लिए किताब जरूर लेकर आते, बिना रोके टोके बाबूजी ने मुझे लुगदी साहित्य से निकालकर सत्साहित्य की राह पर डाल दिया था।
अब तीसरी पीढ़ी में मैं भी पिता हूं, अभिभावक हूं। रजिस्टर में एक बेटा दर्ज है, लेकिन मेरा मानना ये है कि जो पिता समान माने, वही अपना बच्चा। बाबूजी कहते थे- बच्चे किसी के नहीं होते, बच्चे भगवान के होते हैं। मैं भी यही मानता हूं, यही वजह है कि मैंने बच्चों की गिनती नहीं की। ये खजाना ठसाठस है।
मैं भी बच्चों से बात करता हूं, संवाद करता हूं। कई बच्चे सीधे संवाद नहीं करते हैं तो मेरी पत्नी के जरिए बात पहुंचवाते हैं, लेकिन पुत्र समन्वय सामने से उसी तरह से बात करते हैं, जैसे मैं अपने बाबूजी से करता था। किसी बात पर मैंने कल समन्वय से बातचीत की। बात करनी थी 5 मिनट, लेकिन करीब पौने घंटे बात हुई। हम दोनों ने एक दूसरे की आंखें खोलीं। क्या बात हुई, किस विषय पर बात हुई, ये पिता-पुत्र के बीच में रहने दीजिए, लेकिन सबक ये है कि बच्चों के साथ नियमित संवाद में रहिए।
शहरों में न तो गांव का माहौल है और न ही संयुक्त परिवार की मजबूत डोर। ऐसे में बच्चों से संवाद बहुत जरूरी है। एक पिता की जिम्मेदारी बच्चे की फीस जमा करना और उसके शौक पूरे करना ही नहीं है। बच्चे के मन के भीतर झांकना बहुत जरूरी है, उसकी समस्याओं को उसके हिसाब से समझना और सुलझाना जरूरी है। बच्चे के भीतर अवसाद भी हो सकता है, आपके प्रति बच्चे के मन में कोई गलतफहमी भी पल सकती है, उसे दूर करने का दायित्व आपका है। यही न करने से ही पीढ़ियों का अंतर आता है। सोच टकराती है। ( देश के वरिष्ठ पत्रकार विकाश मिश्र की कलम से )
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