तो तय हुआ, नटराज शिव के पास जाना है. फिर क्या ले जाना और क्या वापस लाना! मन तो कहता है, सब वहीं छोड़ आएँ. फिर भी, घर में तैयारियाँ युद्ध स्तर पर थीं. मेरे लिए शून्य से कम तापमान में पहनने वाले जैकेट और पैंट लाए गए. सिर पर बाँधनेवाली टॉर्च. बिना बिजली के मोबाइल चार्ज करनेवाला यंत्र. बर्फबारी में पहननेवाली बरसाती. वाटरप्रूफ जूता, टोपी, मोजे, चश्मा और न जाने क्या-क्या! ऊँचाई पर काम आनेवाली दवाइयाँ. हाथ और पैर गरम करनेवाले रासायनिक पाउच, जिन्हें सिर्फ जेब में रखकर गरमी महसूस की जा सकती है. पत्नी-बच्चों ने ये सब सामान बाँध हमें दिल्ली से लखनऊ रवाना किया, मानो एडमंड हिलेरी और तेनजिंग नोर्गे के बाद मैं ही हिमालय पर जा रहा हूँ. हाई अल्टीट्यूड में सिकनेस की दवाइयाँ. मसलन रक्त पतला करनेवाली गोली ‘डायमॉस’ भी साथ रखी. डॉक्टर की राय थी कि अगर सुबह-शाम एक गोली ली गई तो परेशानी ज्यादा नहीं होगी.
लखनऊ से कुछ और मित्र यात्रा में शामिल हुए. हम बहराइच के रास्ते नेपालगंज पहुँच गए. नेपालगंज नेपाल का माओवादी असर वाला इलाका था. उस रोज वहाँ माओवादियों की नाकेबंदी थी. सारे रास्ते बंद. हमारे साथ एक रसूखदार मित्र थे. उनकी रक्षा में पुलिस थी. लोगों ने बताया कि पुलिस देख माओवादी और भड़कते हैं. संयोग से नेपालगंज के मेरे एक पुराने मित्र, जो पहले स्थानीय पत्रकार थे, उन दिनो माओवादियों के एरिया कमांडर के तौर पर काम कर रहे थे, वे मुझे मिल गए. बड़ी आवभगत की. और अपने साथ हमें होटल तक सुरक्षित पहुँचा गए.
मैं अतिवादी नहीं हूँ, पर न जाने कैसे यह अति हो गई. कैलास मानसरोवर की सरकारी यात्रा 26 दिनों की होती है. नेपाल के रास्ते कुछ टूर ऑपरेटर पंद्रह रोज में ‘लैंडक्रूजर’ गाडि़यों से यात्रा कराते हैं. पर हमने महज पाँच रोज में यात्रा करने की ठानी, नेपाल की एक टूरिस्ट एजेंसी की मदद से. सात सीटोंवाले एक चार्टेड हेलीकॉप्टर के जरिए. हेलीकॉप्टर को हमें तिब्बत के हिलसा तक ले जाना था और वहीं से लौटाकर नेपालगंज वापस छोड़ना था. हिलसा से आगे तीन घंटे की यात्रा ‘लैंडक्रूजर’ गाडि़यों से तय करनी थी. यात्रा के बाकी सामान, टेंट, खाने-पीने की वस्तुएँ, खानसामा और गाइड हमें तकलाकोट में मिलने वाले थे. यह टीम अलग से हमारे ग्रुप के लिए ही काठमांडू से चली थी.
दूसरे रोज अल-सुबह हम नेपालगंज हवाई अड्डे पर थे. हमारे लिए सात सीटोंवाला एक ‘बेल हेलीकॉप्टर’ खड़ा था. मौसम खराब था, इसलिए नेपालगंज से सिमिकोट के लिए हेलीकॉप्टर देर से उड़ा. सिमिकोट नेपाल-तिब्बत सीमा पर दुर्गम इलाके में 10 हजार फीट की ऊँचाई पर छोटा सा गाँव है.
हेलीकॉप्टर के पायलट कैप्टन प्रधान को उड़ान का खासा अनुभव था. वे आदमी भी अच्छे थे. लेकिन मेरी चिंता कुछ और थी. हेलीकॉप्टर में वे अकेले पायलट थे, क्योंकि सह-पायलट की सीट पर हमारे सातवें साथी सवार थे. इसलिए हेलीकॉप्टर सह-पायलट के बिना उड़ा. हरे-हरे पेड़ों से लदी पर्वत-श्रृंखलाओं को पार करते हम दो घंटे बाद सिमिकोट के ऊपर थे.
दस हजार फीट की ऊँचाई पर सिमिकोट नाम के इस छोटे से गाँव में एक कच्ची हवाई पट्टी थी. बारह सीटोंवाले छोटे जहाज यहाँ आते हैं. यही जहाज इनके खाने-पीने का सामान लाने और बाहरी दुनिया से इस गाँव के संपर्क का जरिया हैं. वरना सौ घरों की इस बस्ती में दोनों ओर (नेपाल और तिब्बत) सात रोज पैदल चलने के बाद ही बाजार मिलते हैं. राशन या तो नेपाल से जहाज में आता है या फिर तिब्बत से खच्चरों के जरिए. खच्चर तकलाकोट से दुर्गम पहाड़ियाँ पार कर सात रोज में यहाँ तक पहुँचते हैं.
सिमिकोट कहने को नेपाल में था. वहाँ नेपाल के बजाय चीन की सुविधाएँ ज्यादा थीं. नेपाल में रहते हुए भी ये गाँव नेपाली सभ्यता से कटा था. हमें हवाई अड्डे के कंट्रोल टावर के पास ही लकड़ी के बने एक अतिथिगृह में ठहराया गया. अब क्या करना है? मेरे इस सवाल पर कैप्टन प्रधान ने कहा कि हम कल सुबह चलेंगे. फिलहाल आप लोग यहीं आराम करें.
“आखिर हम कल तक का वक्त क्यों बरबाद करें? आज ही क्यों न चलें?’’ हमने पूछा.
प्रधान बोले, ‘‘पहले इस ऊँचाई से आपके शरीर का तालमेल बैठ जाए, फिर आगे चलेंगे.’’
“पर हमें तो अभी कोई परेशानी नहीं है. हम वैसे ही हैं. आगे भी चल सकते हैं.’’
हँसते हुए प्रधान बोले, ‘‘परेशानी बढ़ सकती है.’’ यह कह वे आराम करने चले गए.
तभी बारी-बारी से हम सभी के सिर भारी होने लगे. शरीर श्लथ होने लगा. सॉंस लेने में ताकत लगने लगी और लगा कि साँस लेने से फेफड़ों की प्यास बुझ नहीं रही है. कैप्टन को बुलाया गया. उन्होंने हमें दवाई दी और सलाह दी कि लंबी-लंबी साँस लें. शाम तक फेफड़े अभ्यस्त हो जाएँगे. अब हम सब कैप्टन के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित कर रहे थे. यहाँ रुकने का प्रयोजन पता चल चुका था. रात तक हम प्रकृतस्थ हो गए थे.
साँस अब संतुलन बैठाने लगी थी. बहुत हलचल और चहलकदमी की गुंजाइश मगर अभी कम थी. हम आती-जाती साँस के साथ रात काटने के जतन में लग चुके थे. लेटे-लेटे विचारों की कौंध फिर से चेतना पर छाने लगी. एक प्रश्न बार-बार जेहन में कौंधता रहा कि आखिर शिव में ऐसा क्या है, जो उत्तर में कैलास से लेकर दक्षिण में रामेश्वरम तक वे एक जैसे पूजे जाते हैं? उनके व्यक्तित्व में कौन सा चुंबक है, जिस कारण समाज के भद्रलोक से लेकर शोषित, वंचित, भिखारी तक उन्हें अपना मानते हैं? वे सर्वहारा के देवता हैं. उनका दायरा इतना व्यापक कैसे और क्यों है?
राम का व्यक्तित्व मर्यादित है, कृष्ण का उन्मुक्त और शिव असीमित व्यक्तित्व के स्वामी. वे आदि हैं और अंत भी. वे अणु हैं और अनंत भी. शायद इसीलिए बाकी सब देव हैं, केवल शिव महादेव. वे उत्सवप्रिय हैं. शोक, अवसाद और अभाव में भी उत्सव मनाने की उनके पास कला है. वे उस समाज में भरोसा करते हैं, जो नाच-गा सकता हो. माया से ऊपर उठकर स्वयं में खो सकता हो. यही शैव परंपरा है. जर्मन दार्शनिक फ्रेडरिक नीत्शे कहते हैं, “उदास परंपरा बीमार समाज बनाती है”. शिव का नृत्य तो श्मशान में भी होता है. श्मशान में उत्सव मनाने वाले वे अकेले देवता हैं. तभी तो पंडित छन्नूलाल मिश्र भी गाते हैं—‘‘खेलैं मसाने में होरी दिगंबर खेलैं मसाने में होरी, भूत-पिशाच बटोरी दिगंबर खेलैं मसाने में होरी’’. यह गायन लोक का है.
सिर्फ देश में ही नहीं, विदेश में भी शिव की गहरी व्याप्ति है. हिप्पी संस्कृति ’60 के दशक में अमेरिका से भारत आई. हिप्पी आंदोलन की नींव यूनानियों की प्रति संस्कृति आंदोलन में देखी जा सकती है. पर हिप्पियों के आदि देवता शिव तो हमारे यहाँ पहले से ही मौजूद थे या यों कहें, शिव आदि हिप्पी थे. अधनंगे, मतवाले, नाचते-गाते, नशा करते भगवान शंकर. इन्हें भंगड़, भिक्षुक, भोला-भंडारी भी कहते हैं. आम आदमी के देवता, भूखे-नंगों के प्रतीक. वे हर वक्त सामाजिक बंदिशों से आजाद होने, खुद की राह बनाने और जीवन के नए अर्थ खोजने की चाह में रहते हैं.
यही मस्तमौला हिप्पीपन उनके विवाह में अड़चन था. देवी के पिता इस हिप्पी से बेटी ब्याहने को तैयार नहीं थे. कोई भी पिता किसी भूखे, नंगे, मतवाले से बेटी ब्याहने की इजाजत कैसे देगा. शिव की बारात में नंग-धड़ंग, चीखते-चिल्लाते, पागल, भूत-प्रेत, मतवाले सब थे. लोग बारात देख भागने लगे. शिव की बारात ही स्वयं में उनकी लोक व्याप्ति की मिसाल है.
हमारी परंपरा में विपरीत ध्रुवों और विषम परिस्थितियों से अद्भुत सामंजस्य बिठानेवाला उनसे बड़ा कोई दूसरा भगवान नहीं है. मसलन, वे अर्धनारीश्वर होकर भी काम पर विजेता हैं. गृहस्थ होकर भी परम विरक्त हैं. नीलकंठ होकर भी विष से अलिप्त हैं. उग्र होते हैं तो तांडव, नहीं तो सौम्यता से भरे भोला भंडारी हैं. परम क्रोधी पर दयासिंधु भी शिव ही हैं. विषधर नाग और शीतल चंद्रमा दोनों उनके आभूषण हैं. उनके पास चंद्रमा का अमृत है और सागर का विष भी. वे ऋद्धि-सिद्धि के स्वामी होकर भी उनसे अलग हैं. साँप, सिंह, मोर, बैल, सब आपस का वैर भाव भुला समभाव से उनके सामने हैं. वे समाजवादी व्यवस्था के पोषक है. सिर्फ संहारक नहीं, वे कल्याणकारी, मंगलकर्ता भी हैं. यानी शिव विलक्षण समन्वयक हैं, महान् कोऑर्डिनेटर.
सोचते-सोचते मैं सो गया. यह बताने में भले ही हल्का ही लगे लेकिन अनुभव की दृष्टि से अलौकिक ही है कि यात्रा पूरी तरह से शिवमय हो गई थी. शिव का स्मरण जगते हुए, चलते हुए या उड़नखटोले में. उद्देश्य और लक्ष्य भी शिव. आराम करने के लिए रुके तो चेतना में भी शिव और शिव का समझने-जानने की जिज्ञासाओं के बीच ही सोचते सोचते सो जाना. अलौकिक था सचमुच. सपने याद नहीं. थकावट वाक़ई गहरी नींद देती है. अगली सुबह आगे की यात्रा के लिए इंतज़ार कर रही थी…
जय जय
जारी….. ( देश के वरिष्ठ पत्रकार हेमंत शर्मा की फेसबुक वॉल से साभार)
चित्र-१ सिमीकोट की कच्ची हवाई पट्टी और एक इंजन वाला छोटा जहाज. २-हिलसा के पथरीले हेलीपैड पर उतरता हेलिकॉप्टर. ३- सिमीकोट गॉंव .
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