- यह दिवस बताता है कि जब सत्ता तानाशाही बन जाती है, तो जनता उसे उखाड़ फेंकने की रखती है ताकत
‘आपातकाल’ कांग्रेस की सत्ता की भूख का ‘अन्यायकाल’ था। 25 जून 1975 को लगे आपातकाल में देशवासियों ने जो पीड़ा और यातना सही, उसे नई पीढ़ी जान सके, इसी उद्देश्य से मोदी सरकार ने इस दिन को ‘संविधान हत्या दिवस’ का नाम दिया। यह दिवस बताता है कि जब सत्ता तानाशाही बन जाती है, तो जनता उसे उखाड़ फेंकने की ताकत रखती है। आपातकाल कोई राष्ट्रीय आवश्यकता नहीं, बल्कि कांग्रेस और एक व्यक्ति की लोकतंत्रविरोधी मानसिकता का परिचायक था। प्रेस की स्वतंत्रता कुचली गई, न्यायपालिका के हाथ बाँध दिए गए और सामाजिक कार्यकर्ताओं को जेल में डाला गया। देशवासियों ने ‘सिंहासन खाली करो’ का शंखनाद किया और तानाशाही कांग्रेस को उखाड़ फेंका। इस संघर्ष में बलिदान देने वाले सभी वीरों को भावभीनी श्रद्धांजलि देने का समय है। इतना ही नहीं, जयप्रकाश जी ने दिल्ली के रामलीला मैदान में आयोजित सार्वजनिक सभा के मंच से सेना, पुलिस, नौकरशाही से इंदिरा सरकार के गैर-संवैधानिक आदेशों पर अमल नहीं करने के लिए भी कहा था। कोई भी निर्वाचित प्रधानमंत्री इस स्थिति को सहन नहीं कर सकता था। (यदि कोई भी विपक्षी नेता या पत्रकार वर्तमान मोदी शासन के दौरान ऐसा कहने की हिमाक़त करेगा तो वह तुरंत ही 'देशद्रोही, राष्ट्रद्रोही और राज्यद्रोही, ग़द्दार आदि तमगों से घिर जायेगा और गिरफ्तार कर लिया जायेगा।) प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी, सम्पूर्णक्रांति के सूत्रधार के ऐसे विस्फोटक शब्दों को सहन नहीं कर सकीं और चंद घंटों के बाद ही आपातकाल की घोषणा कर दी गई।
आधी रात को आपातकाल की घोषणा:
1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने 25 जून की मध्यरात्रि को आंतरिक आपातकाल की घोषणा की थी। संविधान के 352 -360 के अनुच्छेदों के अंतर्गत किन हालातों में आपातकालों को लगाया जा सकता है, इसका विवरण दिया गया है। आपातकाल में सरकार और नागरिक के अधिकार व कर्त्तव्य क्या होंगे, इसका भी उल्लेख है। आपातकाल की घोषणा और संसद से मंज़ूरी की क्या प्रक्रिया रहेगी, की भी व्यवस्था है। इंदिरा गाँधी ने संविधान प्रदत्त अधिकारों का प्रयोग करते हुए आपातकाल की घोषणा की थी। इसके साथ ही प्रेस (तब प्रेस कहा जाता था, मीडिया नहीं) पर भी सेंसरशिप लाद दी गई थी। अब नागरिक के अभिव्यक्ति के अधिकार प्रभावित हुए थे। खुल कर बोलने-लिखने-पढ़ने-प्रकाशन पर पाबंदियां थीं।
आपातकाल की घोषणा क्यों?: इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा क्यों की थी, यह हमेशा विवाद का विषय रहेगा। फिर भी कुछ बातों को याद करना ज़रूरी है। 1971 में रायबरेली से निर्वाचित इंदिरा गांधी के चुनाव को उनके प्रबल विरोधी उम्मीदवार राजनारायण ने इलाहबाद उच्च न्यायालय में चुनौती दी थी। समाजवादी नेता राजनारायण ने प्रधानमंत्री इंदिरा पर चुनावी धांधलियों के कई आरोप लगाए थे। यह सुनवाई सालों चली। अंततः 12 जून 1975 को न्यायाधीश जगमोहन सिन्हा ने इंदिरा गांधी के चुनाव को निरस्त कर दिया और अदालती कार्रवाई में राजनारायण की जीत हुई। इसके बाद सम्पूर्ण क्रांति और आक्रामक हो उठी। देश के विभिन्न कोनों से प्रधानमंत्री गांधी के इस्तीफ़े की मांग उठने लगी। आक्रामक मांग की परिणीति रामलीला मैदान की सार्वजनिक सभा में होती है और जयप्रकाश जी इंदिरा गांधी से तत्काल सत्ता छोड़ने के लिए कहते हैं, सेना से भी प्रधानमंत्री के अवैध आदेशों को नहीं मानने की अपील करते हैं। इसके बाद प्रधानमंत्री गांधी और सम्पूर्ण क्रांति के योद्धा जयप्रकाश नारायण के मध्य निर्णायक युद्ध का मैदान साफ़ हो चुका था। जयप्रकाश नारायण और उनके सभी समर्थक वरिष्ठ नेताओं को गिरफ्तार किया गया। देशभर में गिरफ्तारी का ज्वार चला। इस जन ज्वार से सबसे अधिक फ़ायदा संघ परिवार और तत्कालीन जनसंघ को हुआ। भारत की राजनीति में जनसंघ 'राजनैतिक अस्पृश्यता' का दंश झेलती आ रही थी। यह सिलसिला 1952 से चल रहा था। लेकिन, सम्पूर्ण क्रांति के सैनिक बनने, और अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, भैरों सिंह शेखावत, विजयराजे सिंधिया जैसे चोटी के नेताओं की गिरफ्तारी से सियासी छुआछूत फौरी तौर पर गायब ज़रूर हो गयी थी। आपातकाल के दौरान देशभर में चुनाव स्थगित हो गए थे। आपातकाल की घोषणा के साथ हर नागरिक के मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए। लोगों के पास न तो अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार था, न ही जीवन का अधिकार। पांच जून की रात से ही देश में विपक्ष के नेताओं की गिरफ्तारियां शुरू हो गई थीं। अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, जयप्रकाश नारायण जैसे बड़े नेताओं को जेल भेज दिया गया। इतनी बड़ी संख्या में लोगों को जेल में डाला गया था कि जेलों में जगह ही नहीं बची। प्रेस पर सेंसरशिप लगा दी गई। हर अखबार में सेंसर अधिकारी रख दिये गये थे। उस सेंसर अधिकारी की अनुमति के बिना कोई खबर छप ही नहीं सकती थी। अगर किसी ने सरकार के खिलाफ खबर छापी तो उसे गिरफ्तारी झेलनी पड़ी। आपातकाल के दौरान प्रशासन और पुलिस ने लोगों को प्रताड़ित किया, जिसकी कहानियां बाद में सामने आईं। आरके धवन ने बताई अंदरूनी बातें: तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के निजी सेक्रेटरी रहे आरके धवन मीडिया को दिए एक साक्षात्कार में आपतकाल से जुड़े कई अहम बातों का खुलासा किया, जिसके बारे में देश के सभी नागरिकों को जानना चाहिए।
पश्चिम बंगाल के तत्कालीन सीएम एसएस राय ने जनवरी 1975 में ही इंदिरा गांधी को आपातकाल लगाने की सलाह दी थी। तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद को आपातकाल पर आपत्ति नहीं थी। वह इसके लिए तुरंत तैयार हो गए थे।आपातकाल के दौरान जबरन नसबंदी और तुर्कमान गेट पर बुलडोजर चलवाने जैसे अत्याचारों से इंदिरा अनजान थीं। इंदिरा को यह भी नहीं पता था कि संजय अपने मारुति प्रॉजेक्ट के लिए जमीन अधिग्रहण कर रहे थे। धवन के मुताबिक इस प्रॉजेक्ट में उन्होंने ही संजय की मदद की थी और इसमें कुछ भी गलत नहीं था। सोनिया और राजीव गांधी को आपातकाल को लेकर कोई पछतावा नहीं था। मेनका गांधी ने भी हर कदम पर पति संजय गांधी का साथ दिया था। आपातकाल इंदिरा के राजनीतिक करियर को बचाने के लिए लागू नहीं किया गया था। वह खुद इस्तीफा देने के लिए तैयार थीं। लेकिन मंत्रिमंडल सहयोगियों ने उन्हें इस्तीफा न देने की सलाह दी।
धवन ने बताया कि इंदिरा को उनके प्रधान सचिव पीएन धर ने एक रिपोर्ट दी थी जिसमें कहा था कि आईबी के अनुसार चुनाव होने पर वह 340 सीटें जीतेंगी। इसके बाद इंदिरा ने 1977 के चुनाव करवाए थे। लेकिन उस चुनाव में इंदिरा को बड़ी हार मिली। लेकिन इंदिरा इस हार से दुखी नहीं थीं। हार की खबर मिलने के बाद इंदिरा ने कहा था 'शुक्र है, मेरे पास अब अपने लिए समय होगा।' ( अशोक झा की कलम से )
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