- माता रेणुका के गर्भ से भृगु ऋषि के कुल में परशुराम का हुआ था प्रादुर्भाव
- शंकर के परम भक्त थे परशुराम भगवान, शिव से करते रहे थे 21 दिनों तक युद्ध
भगवान विष्णु के छठे आवेश अवतार परशुराम की जयंती वैशाख शुक्ल तृतीया जिसे हम अक्षय तृतीया कहते हैं को आती है। इस बार यह जयंती 30 अप्रैल 2025 को मनाई जाएगी।
भगवान विष्णु के छठे 'आवेश अवतार' भगवान परशुराम का जन्म सतयुग और त्रेता के संधिकाल में 5142 वि.पू. वैशाख शुक्ल तृतीया (अक्षय तृतीया) के दिन-रात्रि के प्रथम प्रहर प्रदोष काल में हुआ था। वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र में रात्रि के प्रथम प्रहर में 6 उच्च के ग्रहों से युक्त मिथुन राशि पर राहु के स्थित रहते माता रेणुका के गर्भ से भृगु ऋषि के कुल में परशुराम का प्रादुर्भाव हुआ था।
महर्षि ऋचीक-सत्यवती के पुत्र महर्षि जमदग्नि थे, जमदग्नि-रेणुका के पुत्र परशुराम थे। ऋचीक की पत्नी सत्यवती राजा गाधि (प्रसेनजित) की पुत्री और विश्वमित्र (ऋषि विश्वामित्र) की बहिन थी। परशुराम सहित जमदग्नि के 5 पुत्र थे।
भगवान परशुराम का जन्म मध्यप्रदेश के इंदौर के पास स्थित जानापाव की पहाड़ी पर हुआ था। एक अन्य मान्यता के अनुसार छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले में घने जंगलों के बीच स्थित कलचा गांव में उनका जन्म हुआ था। एक और मान्यता के अनुसार उत्तर प्रदेश में शाहजहांपुर के जलालाबाद में जमदग्नि आश्रम से करीब दो किलोमीटर पूर्व दिशा में हजारों साल पुराने मन्दिर के अवशेष मिलते हैं जिसे भगवान परशुराम की जन्मस्थली कहा जाता है। परशुराम के गुरु : परशुराम को शास्त्रों की शिक्षा दादा ऋचीक, पिता जमदग्नि तथा शस्त्र चलाने की शिक्षा अपने पिता के मामा राजर्षि विश्वमित्र और भगवान शंकर से प्राप्त हुई। परशुराम योग, वेद और नीति में पारंगत थे। ब्रह्मास्त्र समेत विभिन्न दिव्यास्त्रों के संचालन में भी वे पारंगत थे। उन्होंने महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीक के आश्रम में शिक्षा प्राप्त की। श्री परशुराम भगवान शंकर के परम भक्त थे। भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए वो अपना घर छोड़ तपस्या करने के लिए चले गए। उनकी भक्ति और ध्यान से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें कई दिव्य अस्त्र-शस्त्र भेंट किए। उसमें एक अजेय हथियार फरसा भी था जिसे परशु कहा जाता है। भगवान शिव ने परशुराम को पृथ्वी को अधर्मी लोगों से मुक्त कराने को कहा। एक बार, भगवान शिव ने युद्ध में कौशल का परीक्षण करने के लिए परशुराम को युद्ध की चुनौती दी। दोनों के बीच इक्कीस दिनों तक लगातार युद्ध चला। शिव के त्रिशूल से बचने के लिए परशुराम ने अपने परशु से उन पर जोरदार हमला किया। इससे भगवान शिव के माथे पर एक घाव बन गया. अपने शिष्य के अद्भुत युद्ध कौशल को देखकर भगवान शिव बहुत प्रसन्न हुए।
रामायण में परशुराम ने सीता के स्वयंवर के लिए उनके पिता को शिव का धनुष दिया था। इस धनुष को उठाने वाला योग्य व्यक्ति सीता से विवाह कर सकता था। भगवान राम ने शिव के इस धनुष को उठाया था। उन्होंने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाकर उसे तोड़ दिया। इसकी गूंज दूर-दूर तर पहुंची उस समय परशुराम महेंद्र पर्वत की चोटी पर ध्यान कर रहे थे, धनुष टूटने की तेज आवाज उनके कानों में भी पहुंची परशुराम क्रोधित रूप में राजा जनक की सभा में पहुंचे उनका भयंकर रूप देखकर सभा में उपस्थित लोग घबरा गए राजा जनक की धर्म पत्नी एवं सीता जी की माताजी अत्यंत घबरा जाती है। मन पछिताति सीय महतारी। बिधि अब सँवरी बात बिगारी॥ भृगुपति कर सुभाउ सुनि सीता। अरध निमेष कलप सम बीता॥ इसी प्रसंग में लक्ष्मण और परशुराम जी के बीच अत्यंत तीखे संवाद होते हैं यहां तक कि परशुराम जी लक्ष्मण जी का वध तक करने की बात करने लगते हैं परंतु राम के विनय शील स्वभाव से प्रभावित होकर उनका आवेश कुछ कम होता है।
शिवजी का धनुष किसने तोड़ा इसके प्रत्युत्तर में राम विनय शीलता से उत्तर देते हैं।
"नाथ संभुधनु भंजनिहारा, होइहि केउ एक दास तुम्हारा।।
आयेसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही।"
श्री राम विनम्र भाव से कहते हैं- हे नाथ शंकर के धनुष को तोड़ने वाला कोई आपका ही दास होगा। परशुराम-राम संवाद के बीच में ही लक्ष्मण उत्तेजित हो उठे, विकट लीला प्रारंभ हो गई। संवाद चलते रहे लीला आगे बढ़ती रही परशुराम जी ने श्री राम से कहा अच्छा मेरे विष्णु धनुष में तीर चढ़ाओ... तीर चढ़ गया, परशुराम जी ने प्रणाम किया और कहा मेरा कार्य अब पूरा हुआ, आगे का कार्य करने के लिए श्री राम आप आ गए हैं।
सारे राजाओं ने श्री राम को अपना सम्राट मान लिया, भेंट पूजा की एवं अपनी-अपनी राजधानी लौट गए। श्री राम के केंद्रीय शासन नियमों से धर्मयुक्त राज्य करने लगे। देश में शांति छाने लगी अब श्री राम निश्चिंत थे क्योंकि उन्हें तो देश की सीमाओं के पार से संचालित आतंक के खिलाफ लड़ना था, इसीलिए अयोध्या आते ही वन को चले गए।
पंचवटी में लीला रची गई, लंका कूच हुआ। रावण का कुशासन समाप्त हुआ, राम राज्य की स्थापना हुई। अतः राम राज्य की स्थापना की भूमिका तैयार करने वाले भगवान परशुराम ही थे।
पुराणों के अनुसार, एक बार परशुराम भगवान शिव से मिलने हिमालय पर जा रहे थे और भगवान गणेश ने उनका रास्ता रोक लिया था. इससे क्रोधित होकर परशुराम ने गणेश पर अपना परशु फेंक दिया. परशु के वार से भगवान गणेश का एक दांत टूट गया और इसी के बाद वो एकदंत कहलाए जाने लगे। परशुराम के शिष्य : त्रैतायुग से द्वापर युग तक परशुराम के लाखों शिष्य थे। महाभारतकाल के वीर योद्धाओं भीष्म, द्रोणाचार्य और कर्ण को अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा देने वाले गुरु, शस्त्र एवं शास्त्र के धनी ॠषि परशुराम का जीवन संघर्ष और विवादों से भरा रहा है। हैहयवंशी राजाओं से युद्ध : समाज में आम धारणा यह है कि परशुराम ने 21 बार धरती को क्षत्रियविहीन कर दिया था। यह धारणा गलत है,जिन राजाओं से इनका युद्ध हुआ उनमें से हैहयवंशी राजा सहस्त्रार्जुन इनके सगे मौसा थे।परशुराम राम के समय में हैहयवंशीय क्षत्रिय राजाओं का अत्याचार था। हैहयवंशियों का राजा सहस्रबाहु अर्जुन भार्गव आश्रमों के ऋषियों को सताया करता था। एक समय सहस्रबाहु के पुत्रों ने जमदग्नि के आश्रम की कामधेनु गाय को लेने तथा परशुराम से बदला लेने की भावना से परशुराम के पिता का वध कर दिया। परशुराम की मां रेणुका पति की हत्या से विचलित होकर उनकी चिताग्नि में प्रविष्ट हो सती हो गई।इस घोर घटना ने परशुराम को क्रोधित कर दिया और उन्होंने संकल्प लिया- मैं हैहय वंश के सभी क्षत्रियों का नाश कर दूंगा। इसी कसम के तहत उन्होंने इस वंश के लोगों से 36 बार युद्ध कर उनका समूल नाश कर दिया था। तभी से यह भ्रम फैल गया कि परशुराम ने धरती पर से 36 बार क्षत्रियों का नाश कर दिया था। हैहयवंशियों के राज्य की राजधानी महिष्मती नगरी थी जिसे आज महेश्वर कहते हैं जबकि परशुराम और उनके वंशज गुजरात के भड़ौच आदि क्षेत्र में रहते थे। परशुराम ने अपने पिता के वध के बाद भार्गवों को संगठित किया और सरस्वती नदी के तट पर भूतेश्वर शिव तथा महर्षि अगस्त्य मुनि की तपस्या कर अजेय 41 आयुध दिव्य रथ प्राप्त किए और शिव द्वारा प्राप्त परशु को अभिमंत्रित किया। इस जबरदस्त तैयारी के बाद परशुराम ने भड़ौच से भार्गव सैन्य लेकर हैहयों की नर्मदा तट की बसी महिष्मती नगरी को घेर लिया तथा उसे जीतकर व जलाकर ध्वस्त कर उन्होंने नगर के सभी हैहयवंशियों का भी वध कर दिया। अपने इस प्रथम आक्रमण में उन्होंने राजा सहस्रबाहु का महिष्मती में ही वध कर ऋषियों को भयमुक्त किया।
इसके बाद उन्होंने देशभर में घूमकर अपने 21 अभियानों में हैहयवंशी 64 राजवंशों का नाश किया। इनमें 14 राजवंश तो पूर्ण अवैदिक नास्तिक थे। इस तरह उन्होंने क्षत्रियों के हैहयवंशी राजाओं का समूल नाश कर दिया जिसे समाज ने क्षत्रियों का नाश माना जबकि ऐसा नहीं है। चारों युग में परशुराम : सतयुग में जब एक बार गणेशजी ने परशुराम को शिव दर्शन से रोक लिया तो, रुष्ट परशुराम ने उन पर परशु प्रहार कर दिया, जिससे गणेश का एक दांत नष्ट हो गया और वे एकदंत कहलाए। त्रेतायुग में जनक, दशरथ आदि राजाओं का उन्होंने समुचित सम्मान किया। सीता स्वयंवर में श्रीराम का अभिनंदन किया।
द्वापर में उन्होंने कौरव-सभा में कृष्ण का समर्थन किया और इससे पहले उन्होंने श्रीकृष्ण को सुदर्शन चक्र उपलब्ध करवाया था। द्वापर में उन्होंने ही असत्य वाचन करने के दंड स्वरूप कर्ण को सारी विद्या विस्मृत हो जाने का श्राप दिया था। उन्होंने भीष्म, द्रोण व कर्ण को शस्त्र विद्या प्रदान की थी। इस तरह परशुराम के अनेक किस्से हैं। ( पंडित अशोक झा की कलम से )
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