जब भी सांप्रदायिक हिंसा भड़कती है, तो इससे न केवल अनेक परिवारों की क्षति होती है बल्कि पूरे समाज और देश की क्षति होती है, इंसानियत की मूल भावना भी इससे बहुत आहत होती है। इसके बावजूद रह-रह कर सांप्रदायिक हिंसा क्यों होती है? आज वफ़ संशोधन कानून को लेकर बंगाल में हिंसा फैली हुई है। इसके पीछे कौन है सभी को मिलकर विचार करना होगा। वोटबैंक के लिए कुछ राजनीतिक पार्टियां अपना हित साध रही है। इसे बेनकाब करना होगा। भारत में विभिन्न धर्म, भाषाएँ, परंपराएँ और रीति रिवाज होते हुए भी सांस्कृतिक एकता बनी हुई है। हिंदू मुस्लिम बौद्ध, जैन, सिख, ईसाई आदि सभी समुदायों ने मिलकर भारतीय संस्कृति को समृद्ध किया है। यह विभिन्न संस्कृतियों, परंपराओं और मान्यताओं को स्वीकार कर उन्हें आत्मसात करने की क्षमता रखती है। यहाँ की संस्कृति धर्म और आध्यात्मिकता से गहराई से जुड़ी हुई है और यह आध्यात्मिकता केवल एक धर्म से जुड़ी नहीं है बल्कि हिंदू वेद उपनिषद, बौद्ध और जैन दर्शन, इस्लामी सूफी परंपरा और सिख गुरु परंपरा ने भारतीय समाज को नैतिकता और आदर्शों से जोड़ा है। भारत की संस्कृति सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखने और उन्हें सम्मान देने की शिक्षा देती है। यही कारण है कि यहाँ विभिन्न धर्मों के लोग सह-अस्तित्व में रहते आए हैं।
भारतीय समाज में अधिव्याप्त सह-अस्तित्व और सामुदायिक सद्भाव का मूल्य आधुनिक विश्व से आयातित होने के बजाय यहाँ की परंपरा में मौजू है। यह सह-अस्तित्व और सामुदायिक सद्भाव प्राचीन काल से ही भारतीय उपमहाद्वीप की अनोखी विशेषता रही है। प्राचीन काल से ही विभिन्न धार्मिक-सांस्कृतिक समूह समय समय पर भारतीय समाज में आते रहे। कुछ ने यहाँ की संस्कृति और सभ्यता के साथ अंतःक्रिया के पश्चात यहाँ की संस्कृति के साथ समन्वय स्थापित करते हुए जीवन निर्वाह की वृत्ति सीख ली वहीं कुछेक धार्मिक-सांस्कृतिक समूहों ने अपनी विशिष्ट विशेषताओं को बनाए रखा। आर्य-द्रविड़ से प्रारंभ होकर ब्राह्मण श्रमण परंपरा से होते हुए मध्यकाल में इस्लाम-सनातन हिंदू और आधुनिक काल में भारतीय-यूरोपिय संस्कृति और धार्मिक समूहों के मध्य निरंतर अंतःक्रिया होती रही इस दरम्यान इन सबने एक दूसरे को जोड़ा घटाया। इस अंतक्रिया की अभिव्यक्ति इतिहास के अधिकांश समय में समन्वयकारी रही लेकिन कभी-कभी आततायी शासकों के धार्मिक मदांधता के फलस्वरूप सांप्रदायिक तनाव भी देखने को मिलते है। प्राचीन भारत में भी सांप्रदायिक सौहार्द और धार्मिक सहिष्णुता के कई उदाहरण मिलते हैं। मौर्य सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म अपनाने के बाद अपने शासनकाल में धार्मिक सहिष्णुता और सांप्रदायिक सौहार्द को बढ़ावा दिया। उन्होंने बौद्ध धर्म का प्रचार किया लेकिन साथ ही अन्य धर्मों के प्रति भी सम्मान और सहिष्णुता बनाए रखी। उनके शिलालेखों में सभी धर्मों के प्रति सम्मान और अहिंसा का संदेश दिया गया है। इसी प्रकार गुप्त काल को भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग माना जाता है। इस समय में हिंदू, बौद्ध और जैन धर्म एक साथ फलते-फूलते रहे। गुप्त सम्राटों ने सभी धर्मों के प्रति सहिष्णुता का पालन किया और धार्मिक संस्थानों को समर्थन दिया। नालंदा विश्वविद्यालय जैसे संस्थान विभिन्न धर्मों के छात्रों और विद्वानों के लिए खुले थे। मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चंद्रगुप्त मौर्य और उनके मंत्री चाणक्य (कौटिल्य) ने एक समावेशी शासन प्रणाली का निर्माण किया, जिसमें सभी धर्मों और संस्कृतियों को स्थान दिया गया। उनकी शासन व्यवस्था में सभी धर्मों के लोगों को समान अवसर और अधिकार दिए गए। कुषाण सम्राट कनिष्क ने बौद्ध धर्म को संरक्षण दिया, लेकिन उनके शासनकाल में हिंदू, बौद्ध, और अन्य धर्मों के लोग भी शांति और सौहार्द के साथ रहते थे। उनके शासन में धार्मिक सहिष्णुता और सांस्कृतिक समन्वय का एक अच्छा उदाहरण देखने को मिलता है। प्राचीन भारतीय साहित्य और शिक्षा में भी सांप्रदायिक सौहार्द के उदाहरण मिलते हैं। महाभारत, रामायण, उपनिषद और पुराण जैसे ग्रंथों में धर्म, सहिष्णुता, और मानवीय मूल्यों का उल्लेख किया गया है। तक्षशिला और नालंदा जैसे प्राचीन विश्वविद्यालयों में विभिन्न धर्मों के छात्र और विद्वान शिक्षा प्राप्त करते थे और एक-दूसरे के विचारों का आदान-प्रदान करते थे। इन उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि प्राचीन भारत में भी सांप्रदायिक सौहार्द और धार्मिक सहिष्णुता की महत्वपूर्ण भूमिका थी, जिसने समाज को समृद्ध और संतुलित बनाए रखा।मध्यकालीन भारत में भी सांप्रदायिक सौहार्द के कई उदाहरण मिलते हैं, जहाँ विभिन्न धर्मो के रोग मिलकर रहते थे और आपसी सहयोग व सम्मान का पालन करते थे। भक्ति आंदोलन और सूफीवाद दोनों ही धार्मिक और सांस्कृतिक समन्वय के महत्वपूर्ण स्रोत थे। भक्ति संत जैसे कबीर, गुरु नानक, और मीराबाई ने धार्मिक भेदभाव को नकारा और सभी धर्मों के प्रति सम्मान का संदेश दिया। सूफी संतों जैसे ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती, निजामुद्दीन औलिया, और बाबा फरीद ने भी हिंदू-मुस्लिम एकता और प्रेम का प्रचार किया। मुगल सम्राट अकबर ने धार्मिक सहिष्णुता को बढ़ावा दिया और विभिन्न धर्मों के लोगों को अपने दरबार में शामिल किया। उन्होंने "दीन-ए-इलाही" नामक एक नए धर्म की स्थापना की, जो विभिन्न धर्मो की शिक्षाओं का समन्वय था। राजस्थान के राजपूत और मुगलों के संबंध कई राजपूत राजाओं ने मुगलों के साथ राजनीतिक और सामाजिक संबंध बनाए। राजपूत राजा अकबर के शासनकाल में मुगलों के साथ मिलकर काम करते थे और यहां तक कि उनकी बेटियों की शादी मुगल शहजादों से होती थी। इससे हिंदू-मुस्लिम संबंध मजबूत हुए। मध्यकालीन साहित्य और कला में भी धार्मिक समन्वय देखने को मिलता है। अमीर खुसरो जैसे कवियों ने फारसी और हिंदी के मिश्रण से काव्य रचा, जिसमें हिंदू और मुस्लिम दोनों संस्कृति का प्रभाव था। इसी प्रकार, ताजमहल, कुतुब मीनार और अन्य स्थापत्य कला में हिंदू और इस्लामी कला का संगम दिखाई देता है। इन उदाहरणों से यह स्पष्ट होता है कि मध्यकालीन भारत में सांप्रदायिक सौहार्द और धार्मिक सहिष्णुता एक महत्वपूर्ण तत्व थे, जिसने भारतीय समाज को एकजुट बनाए रखा। आधुनिक भारत में सांप्रदायिक सौहार्द और धार्मिक सहिष्णुता के कई महत्वपूर्ण उदाहरण मिलते हैं, जो देश की विविधता और एकता को दर्शाते है। महात्मा गांधी ने अपने जीवन में अहिंसा और सांप्रदायिक सौहार्द को बढ़ावा दिया। उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए अनेक प्रयास किए और हमेशा विभिन्न धर्मों के लोगों के बीच भाईचारे और प्रेम का संदेश दिया। उनकी विचारधारा और नेतृत्व ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान सांप्रदायिक सौहार्द को बढ़ावा दिया। स्वामी विवेकानंद ने विभिन्न धर्मो की शिक्षाओं में समानता और सहिष्णुता पर जोर दिया। 1893 के शिकागो धर्म संसद में उनके भाषण ने विभिन्न धर्मों के प्रति सम्मान और सहिष्णुता का संदेश दिया और भारत के धार्मिक सहिष्णुता की परंपरा को विश्व में प्रकट किया। भारतीय संविधान में सभी धर्मों के लोगों के लिए समान अधिकार और धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी दी गई है। संविधान का मूल सिद्धांत धर्मनिरपेक्षता है, जो सभी धर्मों के प्रति समान व्यवहार और सम्मान की बात करता है। बॉलीवुड और भारतीय संगीत उद्योग भी सांप्रदायिक सौहार्द के उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। यहाँ विभिन्न धर्मों और संस्कृतियों के लोग मिलकर काम करते हैं और अपनी कला के माध्यम से एकता और प्रेम का संदेश देते हैं। ए.आर. रहमान, जो खुद एक मुस्लिम हैं, ने विभिन्न भाषाओं और संस्कृतियों में संगीत दिया है जो सभी धर्मों के लोगों को जोड़ता है। भारत में विभिन्न धर्मों के त्यौहार जैसे दीवाली, ईद, क्रिसमस, गुरुपर्व आदि सभी धर्मों के लोग मिलकर मनाते हैं। यह सांप्रदायिक सौहार्द और आपसी प्रेम का प्रतीक है। कई सामाजिक संगठन और गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) सांप्रदायिक सौहार्द को बढ़ावा देने के लिए काम कर रहे हैं। ये संगठन विभिन्न धर्मों के लोगों के बीच संवाद और सहयोग को प्रोत्साहित करते हैं। इन उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि आधुनिक भारत में भी सांप्रदायिक सौहार्द और धार्मिक सहिष्णुता की परंपरा जीवित है और यह देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। गंगा-जमुनी तहज़ीब इसी सांस्कृतिक मेल-जोल और सद्भाव की परंपरा को दर्शाती है। इसमें हिंदू और मुस्लिम संस्कृतियों का सुंदर समन्वय देखने को मिलता है, जो भाषा, भोजन, पहनावे, संगीत, कला और त्योहारों में स्पष्ट रूप से झलकता है। ईद और होली जैसे त्योहारों को मिलकर मनाने की परंपरा इसी तहज़ीब का हिस्सा है। गाँवों और शहरों में हिंदू-मुस्लिम समुदाय के लोग एक-दूसरे के त्योहारों में शामिल होते हैं। ईद पर सेवइयाँ खाने और होली पर गुलाल खेलने की परंपरा ने समाज को एक सूत्र में पिरोया है। अवध, लखनऊ, वाराणसी, पटना और हैदराबाद जैसे स्थानों
यह परंपरा विशेष रूप से मजबूत रही है। सूफी संतों और भक्ति आंदोलन के संतों ने भी इस स्कृतिक एकता को बढ़ावा दिया। गंगा-जमुनी तहज़ीब सिर्फ धार्मिक सहिष्णुता नहीं, बल्कि साझी शांस्कृतिक विरासत का प्रतीक भी है। यह हमें प्रेम, एकता और सहयोग का संदेश देती है, जिससे समाज में शांति और भाईचारा बना रहता है। इस मुल्क ने समय समय पर अपने बुनियादी स्वभाव को प्रदर्शित किया है। यहाँ यदि आततायी शासकों का स्याह इतिहास है जिन्होंने कुछ समय के लिए देश और समाज में साम्प्रदायिक सद्भाव को बिगाड़ने का कार्य किया तो बुद्ध, कबीर, गोस्वामी तुलसीदास, गाँधी और आंबेडकर जैसे नायकों ने यह स्थापित करने का प्रयास किया कि देश का असली नायक वही हो सकता है जिसमें समन्वय की विराट चेष्टा हो। जहाँ एक राष्ट्र के रूप में इस मुल्क के सामने आधुनिक चुनौतियां और आधुनिक लक्ष्य है वहीं एक समाज के रूप में भारतीय समाज में व्याप्त परम्परागत सांस्कृतिक नृजातीय विविधता यदा कदा राष्ट्रीय लक्ष्यों के समक्ष टकराहट के रूप में दिखायी देती है। हमें इस बात को अपने ज़हन में बैठा कर रखना होगा कि यदि इस देश को २०४७ तक विकसित राष्ट्र बनाना है तो राष्ट्र-राज्य की आकांक्षाओं और समाज के पारंपरिक मूल्यों के मध्य टकराहट को कम करना होगा। इतिहास में घटित हुई घटनाओं को आधुनिक मूल्यों के लेंस से मूल्यांकित करने के बजाय उनको उस समय के मूल्यों के आलोक में देखते हुए यह सीख लेनी चाहिए कि कट्टरता चाहे बहुसंख्यक वर्ग की हो या अल्पसंख्यक समुदाय की दोनों ही खतरनाक है। वक्त की जरूरत है कि धर्म की भाँति इतिहास को भी राजनीतिक सत्ता प्राप्ति के लिए टूल्स बनने से रोका जाय और विभिन मजहबों और नृजातीय समूहों को एक सूत्र में बाँधने वाले सम्पर्क सूत्रों को तलाश करके उनको निखारा जाय। ( अशोक झा की कलम से )
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