हमारे एक बगलगीर हैं कंप्यूटर इंजीनियर नदीम साहब । रोचेस्टर के जिस पेनफील्ड इलाके के जिस घर में हम आजकल रहते हैं, उस घर के बिल्कुल बाजू वाला मकान उनका है। यह करीबी इतनी है कि दोनों मकानों के बीच कोई दीवार तक नहीं है। निकटता का एक और उदाहरण भी मौजू हो सकता है कि बगीचे में रहने वाले जिस सांप का वीडियो नदीम साहब बनाते हैं, उसे बाद में देवेश जी पकड़कर पार्क में छोड़ आते हैं।
उनसे परिचय इस तरह हुआ कि जब मैं एकबार घर के बाहर बैठा हुआ ढलती हुई शाम में वनस्पतियों पर मद्धिम होती हुई सूर्य की लालिमा को निहार रहा था, तभी यकायक पीछे से अभिवादन की आवाज सुनी। सिर घुमाकर देखा तो वह नदीम साहब थे बेगम समेत।
यह मुझे पहले से ही मालूम था कि वे पाकिस्तान से ताल्लुक रखते हैं। बातचीत शुरू हुई तो सिर्फ पहली लाइन अंग्रेजी में थी। उसके बाद तो हिंदी में बतकही होने लगी।
हिंदी बोलने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं थी, लेकिन पढ़ने में जरूर थी। जबकि उर्दू तो उनके लिए मादरेजुबान ही थी। खड़े-खड़े ही कुछ गुफ्तगू हुई लेकिन इन बातों ने इतना काम किया कि अगली मुलाकात का होना भी मुकर्रर कर दिया। वैसे भी अब रात होने लगी थी।
जल्द ही एक शाम नदीम साहब अपनी बेगम के साथ हमारे घर तशरीफ़ लाए। चाय पीना तो महज एक बहाना था। बातें भी खूब हुईं। कहां मैं बनारस वाला कहां वह कराची वाले? सभ्यता और संस्कृति शायद इसी का नाम है, जो दो आदमियों को भी आपस में इतने करीब ला देती है। इसी साझी विरासत वाली चटाई पर बैठकर हमने घर-परिवार पढ़ाई-लिखाई, कॅरियर आदि पर बातचीत की।
नदीम साहब के परिवार का ताल्लुक भारत विभाजन के पूर्व उत्तर प्रदेश से था। उनके पिता बाराबंकी, तो मां लखनऊ से संबंध रखती थीं। जब देश का बंटवारा हुआ था। आजादी मिलने के करीब दस साल बाद उनके वालिद कराची सपरिवार रहने के लिए आ गए।
इसी कराची में पैदा हुए नदीम ने कंप्यूटर इंजीनियरिंग में 1992 में बीई की परीक्षा पास की। इल्म हासिल करने से आई ताकत ने सपनों को ऊंची उड़ान दी। बड़ी बहन कनाडा में पहले से रहती थी । इस तरह पृष्ठभूमि तैयार थी। लिहाजा नदीम साहब 1997 में कनाडा ( टोरंटो) पहुंच गए । जबकि तीन भाई अब भी कराची में रहते हैं।
नदीम के एक भाई तुर्की में बस चुके हैं। कनाडा के बाद 2007 में नदीम साहब रोचेस्टर पहुंच गए। यह शहर इतना पसंद आया कि तब से बस यहीं के होकर रह गए । उनके दो जहीन बेटे हैं। दोनों मेडिकल के क्षेत्र में अपना कॅरियर बनाना चाहते हैं।
मेरी इच्छा हुई तो नदीम साहब से पूछ बैठा कि आप पाकिस्तान अंतिम बार कब गए थे ? उन्होंने बताया 2012 में जब वालिदा का इंतकाल हुआ था।
चाय की चुस्कियों के बीच हमारी चर्चा का विषय समोसा और मिठाइयां भी थीं। कनाडा में भी कहां पर जलेबी अच्छी मिलती है और कहां समोसे ? इन विषयों में भी नदीम का अच्छा ज्ञान है । बंगाली मिठाइयां कैसी होती हैं, उन खासियत पर चर्चा करना नहीं भूलते नदीम।
लब्बोलुआब यह कि अपनी जहीनियत के भरोसे नदीम साहब ने अपने सपनों को इतनी लंबी उड़ान दी कि आज वे पूरी तरह से अमेरिकावासी हो चुके हैं।
पर यह कहानी सिर्फ नदीम अहमद की ही अकेली नहीं है।यकीनन यह इल्म ही वह भरोसा है जो एशिया के विकासशील देशों के तमाम होनहारों की आंखों में सपने दिखाता ही नहीं करता बल्कि उन्हें हकीकत का अमली जामा पहनाने का मौका भी देता है।
वैसे भी सुख-सुविधाओं और काम के उम्दा वातावरण की चाह रखना एक मानवीय स्वभाव भी तो है। (काशी के कलमकार आशुतोष पाण्डेय की कलम से)
क्रमश: ......
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