आचार्य संजय तिवारी
भारत अपने लोक जीवन में उतर जाए तो सैकड़ों बहुराष्ट्रीय कंपनियों में ताले लग जाएंगे। अनावश्यक , अनेक बीमारियों को जन्म देने वाले उत्पाद नहीं बिकेंगे। सामान्य से लेकर दवा की बड़ी बड़ी कंपनियां और उनके ब्रांड, अस्पताल बंद हो जाएंगे। हां, मनुष्य का जीवन अवश्य सुंदर और निरोग हो जाएगा। इसका केवल एक ही उदाहरण लीजिए और स्वयं को परखिए। कितने रोग एक छोटे से लोक बदलाव से समाप्त हो सकते हैं। अब से 30, 35 वर्ष पूर्व ये रोग थे भी नहीं।
डायबिटीज, हाइपरटेंशन , ओरल डिसऑर्डर, दांत के सैकड़ों रोग, पाचन के सैकड़ों रोग, मसूड़ों के सैकड़ों रोग, आंतों से संबंधित रोग, गैस, एसिडिटी, बदहजमी, थायरॉइड और कैंसर तक। आपको पता भी नहीं होगा कि जब से हमने पारंपरिक नीम, बांस, शीशम, आम, चिचिड़ा आदि के दातून को छोड़ दिया है तभी से ये लोग अत्यधिक प्रचलन में आ गए हैं। केवल सुबह की एक दातून करने की सामान्य छोटी सी क्रिया वैज्ञानिक रूप में हमें अत्यधिक निरोग बना देती थी। दातून की आयुर्विज्ञानिक प्रक्रिया को समझिए। एक वनस्पति की रसयुक्त तने से लगभग 10, 15 मिनट की अनवरत मुख मालिश कोई सामान्य प्रक्रिया नहीं होती थी। सब पेट की सफाई के तुरंत बाद यह कर के शरीर को रसावृत्ति के लिए तैयार करने के बाद मनुष्य कुछ जलपान करता था। इसके बाद शुरू होती थी दिन चर्या। जीवन के इस एक मात्र रुकावट ने आज सभी को रोगयुक्त कर दिया है। दातून करते समय केवल मुख स्वच्छता ही नहीं होती थी। हाथ निरंतर हिलते, कंपित होते थे। शरीर के कई गांठ युक्त अंग गतिशील होते थे। लगभग 10 से 15 मिनट का यह क्रम एक यौगिक व्यायाम जैसा था। हम इसे त्याग कर प्लास्टिक के ब्रश और रासायनिक पेस्ट पर निर्भर हो गए। इस एक लोप ने मनुष्य के जीवन में रोगों की भरमार कर दी।
याद कीजिए, सन 1990 से पहले कितने लोगों को डायबिटीज़ होता था? कितने लोग हाइपरटेंशन से त्रस्त थे? थायरॉइड, आंतों की बीमारी, पाचन की गड़बड़ी, कैंसर आदि कितने समय पूर्व प्रचलन में आए है ?।नब्बे के दशक के साथ हर घर में एक डायबिटीज़ और हाई ब्लड प्रेशर का रोगी आ गया, क्यों? बहुत सारी वजहें होंगी, जिनमें हमारे खानपान में बदलाव को सबसे खास माना जा सकता है। बदलाव के उस दौर दातून बहुत ख़ास था जिसकी प्रक्रिया ही खो गयी।
गाँव देहात में आज भी लोग दातून इस्तमाल करते दिख जाएंगे लेकिन शहरों में दातून पिछड़ेपन का संकेत बन चुका है। गाँव देहात में डायबिटीज़ और हाइपरटेंशन के रोगी यदा कदा ही दिखेंगे या ना के बराबर ही होंगे। वजह साफ है, ज्यादातर लोग आज भी दातून करते हैं। तो भई, डायबिटीज़ और हाइ ब्लड प्रेशर के साथ दातून का क्या संबंध, यही सोच रहे है , तो सब जान कर आपका दिमाग हिल जाएगा और फिर सोचिएगा, हमने क्या खोया, क्या पाया आधुनिक और कथित रूप से सभ्य बनने में ?
ये जो बाज़ार में टूथपेस्ट और माउथवॉश आ रहे हैं , 99.9% सूक्ष्मजीवों का नाश करने का दावा करने वाले, उन्हीं ने सारा बंटाधार कर दिया है। ये माउथवॉश और टूथपेस्ट बेहद स्ट्राँग एंटीमाइक्रोबियल होते हैं और हमारे मुंह के 99% से ज्यदा सूक्ष्मजीवों को वाकई मार गिराते हैं। इनकी मारक क्षमता इतनी जबर्दस्त होती है कि ये मुंह के उन बैक्टिरिया का भी नाश कर देते हैं, जो हमारी लार (सलाइवा) में होते हैं और ये वही बैक्टिरिया हैं जो हमारे शरीर के नाइट्रेट (NO3-) को नाइट्राइट (NO2-) और बाद में नाइट्रिक ऑक्साइड (NO) में बदलने में मदद करते हैं। जैसे ही हमारे शरीर में नाइट्रिक ऑक्साइड की कमी होती है, ब्लड प्रेशर बढ़ता है। ये मैं नहीं कह रहा, दुनियाभर की रिसर्च स्ट्डीज़ बताती हैं कि नाइट्रिक ऑक्साइड का कम होना ब्लड प्रेशर को बढ़ाने के लिए जिम्मेदार है। जर्नल ऑफ क्लिनिकल हायपरेटेंस (2004) में 'नाइट्रिक ऑक्साइड इन हाइपरटेंशन' टाइटल के साथ छपे एक रिव्यु आर्टिकल में सारी जानकारी विस्तार से छपी है। नाइट्रिक ऑक्साइड की यही कमी इंसुलिन रेसिस्टेंस के लिए भी जिम्मेदार है। समझ आया खेल? नाइट्रिक ऑक्साइड कैसे बढ़ेगा जब इसे बनाने वाले बैक्टिरिया का ही काम तमाम कर दिया जा रहा है? ब्रिटिश डेंटल जर्नल में 2018 में तो बाकायदा एक स्टडी छपी थी जिसका टाइटल ही ’माउथवॉश यूज़ और रिस्क ऑफ डायबिटीज़’ था। इस स्टडी में बाकायदा तीन साल तक उन लोगों पर अध्धयन किया गया जो दिन में कम से कम 2 बार माउथवॉश का इस्तमाल करते थे और पाया गया कि 50% से ज्यादा लोगों को प्री-डायबिटिक या डायबिटीज़ की कंडिशन का सामना करना पड़ा।
पिछड़े गाँव देहातों में तो अभी भी दातून का भरपूर इस्तेमाल हो रहा है। ये दातून मुंह की दुर्गंध भी दूर कर देते हैं और सारे बैक्टिरिया का खात्मा भी नहीं करते। बहुत पिछड़े और आदिवासी क्षेत्रों में जा कर खुद देखिए।
आदिवासी टूथपेस्ट, टूथब्रश क्या होते हैं, जानते तक नहीं। टूथपेस्ट और माउथवॉश को लेकर साथ में दातून के प्रभाव को लेकर क्लिनिकल स्टडी भी बहुत हुई है। आयुर्वेद तो भरा पड़ा है। एलोपैथी में भी हुआ है काफी कुछ।
बबूल और नीम की दातून को लेकर एक क्लिनिकल स्टडी जर्नल ऑफ क्लिनिकल डायग्नोसिस एंड रिसर्च में छपी और बताया गया कि स्ट्रेप्टोकोकस म्यूटेंस की वृद्धि रोकने में ये दोनों जबर्दस्त तरीके से कारगर हैं। ये वही बैक्टिरिया है जो दांतों को सड़ाता है और कैविटी का कारण भी बनता है। वह सूक्ष्मजीव जो नाइट्रिक ऑक्साइड बनाते हैं जैसे एक्टिनोमायसिटीज़, निसेरिया, शालिया, वीलोनेला आदि दातून के शिकार नहीं होते क्योंकि इनमें वो हार्ड केमिकल कंपाउंड नहीं होते जो माउथवॉश और टूथपेस्ट में डाले जाते हैं।आप याद कर या कही गांवों में जाकर देखिएगा, इस प्रक्रिया में लोग दांतों पर दातून रगड़ने के बाद कई बार थूकते है, बाद में दांतों पर दातून की घिसाई तो करते हैं और लार को निगलते जाते हैं। इसी लार में असल विज्ञान है। मुद्दे की बात यह है कि वापसी कीजिए , बिल्कुल भी भटकिए मत, चले आइए दातून की तरफ।
सोचिए कि आपको कथित रूप से सभ्य बनाने के नाम पर आपको रोगी बना कर बहुराष्ट्रीय कमानियों का व्यवसाय कैसे फल फूल रहा है। अस्पतालों में कैसे भीड़ बढ़ रही है। कथित स्वास्थ्य योजनाओं का धन कैसे लूटा जा रहा है।
केवल एक बदलाव अपनी जीवन प्रक्रिया में कर के तो देखिए, शुगर, थायरॉइड, ब्लडप्रेशर आदि की दवाएं बंद होने में केवल 15 दिन लगेंगे।
हमारे लोक जीवन में स्वास्थ्य के लिए बहुत सरल भाषा में लिखा है :
बासी पानी जे पिये,
ते नित हर्रा खाय।
मोटी दतुअन जे करे,
ते घर बैद्य न जाय।।
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