माँ ब्रह्मचारिणी अपने भक्तों को ज्ञान, वैराग्य और आध्यात्मिक शक्ति प्रदान करती हैं। आइए, जानते हैं माँ ब्रह्मचारिणी की पौराणिक कथा, उनके धार्मिक महत्व के बारे में...
माँ ब्रह्मचारिणी कौन हैं?
माँ ब्रह्मचारिणी, माँ दुर्गा का दूसरा स्वरूप हैं। 'ब्रह्मचारिणी' शब्द का अर्थ है 'ब्रह्म' यानी तप और 'चारिणी' यानी आचरण करने वाली। इस रूप में माँ तपस्विनी और साधना की प्रतीक हैं। उनकी कृपा से भक्तों को जीवन में संयम, धैर्य और आध्यात्मिक उन्नति प्राप्त होती है। माँ ब्रह्मचारिणी का स्वरूप अत्यंत शांत और सौम्य है।पुराणों के अनुसार, माँ ब्रह्मचारिणी का यह रूप तब प्रकट हुआ, जब माँ पार्वती ने भगवान शिव को अपने पति के रूप में प्राप्त करने के लिए कठोर तप किया था। इस तप के दौरान उन्होंने केवल बेलपत्र और जल पर जीवन व्यतीत किया, जिसके कारण उनका नाम 'ब्रह्मचारिणी' पड़ा। यह स्वरूप भक्तों को कठिन परिस्थितियों में भी धैर्य और दृढ़ता के साथ लक्ष्य प्राप्ति का मार्ग दिखाता है।कथाओं के अनुसार, माता पार्वती ने भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिए वर्षों तक कठोर तप किया। इस तपस्या के बल पर उन्हें 'ब्रह्मचारिणी' कहा गया। उनके तप से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें पत्नी के रूप में स्वीकार किया। इसीलिए नवरात्रि के दूसरे दिन मां ब्रह्मचारिणी की पूजा करने से भक्त को इच्छित वरदान की प्राप्ति होती है और कठिन परिस्थितियों का सामना करने की शक्ति मिलती है।नवरात्रि का यह दिन केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि आत्मचिंतन और आत्मशुद्धि का अवसर भी है। मां ब्रह्मचारिणी की कृपा से व्यक्ति अपने जीवन में अनुशासन, त्याग और साधना को स्थान देता है, जो कि आध्यात्मिक विकास की नींव हैं। पौराणिक कथा: पौराणिक कथाओं के अनुसार, माँ पार्वती ने हिमालय के घर जन्म लिया था। बचपन से ही उनका मन भगवान शिव की भक्ति में रम गया था। जब नारद मुनि ने उनके माता-पिता को बताया कि पार्वती का विवाह शिव से होगा, लेकिन इसके लिए उन्हें कठोर तप करना होगा, तब पार्वती ने बिना किसी संकोच के तप का मार्ग चुना।पार्वती ने कई वर्षों तक कठिन तपस्या की। उन्होंने पहले केवल फल-फूल खाए, फिर बेलपत्र और अंत में निर्जल उपवास शुरू किया। उनकी तपस्या इतनी कठोर थी कि देवता और ऋषि-मुनि भी उनके समर्पण को देखकर चकित थे। उनकी इस तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार किया। इस तप के दौरान माँ पार्वती का जो स्वरूप था, वही माँ ब्रह्मचारिणी के रूप में पूजा जाता है।
अखंड ज्योत के साथ जौ उगाने का महत्व: नवरात्र के दिनों में लोग अपने घर में अखंड ज्योत जलाते हैं और मां जगदंबे या मां दुर्गा की पूजा आराधना करते हैं। नवरात्र में पूजा और व्रत के अलावा कलश स्थापना और जवारे या जौ का बहुत अधिक महत्व होता है. नवरात्र के पहले दिन घट स्थापना यानी कलश स्थापना की जाती है और जौ बोए जाते हैं नवरात्र में मिट्टी के बर्तन में जौ बोने की परंपरा सदियों से चली आ रही है. मान्यता है कि इसके बिना मां दुर्गा की पूजा अधूरी रह जाती है. तो चलिए जानते हैं कि नवरात्र में जौ उगाने का महत्व है और किस विधि से उगाई जाती है जौ।नवरात्र में क्या है जौ उगाने का महत्व? शारदीय नवरात्र के दौरान जौ बोना बहुत शुभ और फायदेमंद माना जाता है. ये ना सिर्फ आपके घर में खुशहाली और समृद्धि बढ़ाता है बल्कि मां दुर्गा की विशेष कृपा भी आपके ऊपर बनी रहती है. इसे हम 'जौ जयंती के नाम से भी जाना जाता है.पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, जौ को दुनिया का पहला अनाज माना जाता है, इसे ब्रह्मा का स्वरूप भी कहा जाता है. ऐसा माना जाता है कि इसी जौ से बाकी सभी अनाजों की उत्पत्ति हुई है. जैसे ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की, वैसे ही जौ को ब्रह्मा का रूप माना गया है. जौ लगाने में ध्यान देना बहुत जरूरी होता है. सही तरीके से लगाए बिना या ज्यादा पानी डालने से जौ नहीं उगता. जौ आमतौर पर 2 से 3 दिन में अंकुरित हो जाता है. अगर अंकुरित नहीं होता तो इसे अशुभ माना जाता है। कैसे उगाई जाती है जौ?नवरात्र के पहले दिन सबसे पहले आपको एक मिट्टी का बर्तन लेना है, जिसका मुंह खुला हो. उसमें साफ पवित्र मिट्टी डाल लें. अब इस मिट्टी में जौ के दाने डाल दीजिए. इसके बाद इसे हल्के हाथ से पानी से सींचें. ध्यान रखें कि पानी ज्यादा न हो, मिट्टी के हिसाब से थोड़ा-थोड़ा पानी दें ताकि मिट्टी गीली रहे, ना की बहुत भीगी हो. अब इस बर्तन को वहीं जगह रखिए, जहां आप मां दुर्गा की मूर्ति या तस्वीर रखी हो. रोजाना थोड़ा पानी डालकर बर्तन की मिट्टी को नम रखें और नौ दिनों तक इसका ध्यान रखें. आप देखेंगे कि जौ धीरे-धीरे अंकुरित होकर बढ़ने लगेंगे। जौ के हरे होने के संकेत: जौ का बढ़ना घर में खुशहाली, सुख-संपत्ति को बढ़ावा देता है. नवरात्र के इस पावन समय में ऐसा करने से मां दुर्गा की विशेष कृपा आप पर बनी रहती है. कई मंदिरों में भी यही परंपरा होती है, जहां जौ बोया जाता है. अगर आप खुद जौ की देखभाल नहीं कर पा रहे हैं तो अपने नजदीकी मंदिर में पंडित जी से कहकर लगा सकते हैं और उनको थोड़ी सी दक्षिणा देकर उनकी देखभाल भी करवाएं। ( अशोक झा की रिपोर्ट )
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