उत्तर प्रदेश के बलिया का नाम आपने काफी सुना होगा। लेकिन बलिया की बहुत सारी खासियत है। वहां की कई परंपराएं हैं जो कि वास्तव में जानने लायक हैं और समझने लायक है। वहां का खानपान बिल्कुल ही अलग है।बिहारी कवि का दोहा है कि ‘देखन में छोटन लगे, घाव करे गंभीर’।बलिया के बड़की पुड़ी के बारे में कहा जा सकता है कि ‘देखन में बड़ लगे सवाद मारे गंभीर।’ दरअसल बलिया की पुड़ी को बनाने की स्टाइल ही अलग है।
बलिया वाली पूड़ी को बड़की पुड़ी कहा जाता है। कुछ हद तक गाजीपुर व मऊ जिले में भी इसका चलन है। लेकिन गंगा-सरजू पार करते करते कहा जाता है कि इसका रूप पता नहीं क्यों छोटा हो जाता है व स्वाद भी थोड़ा बेदम हो जाता है। वैसे मैं गाजीपुर व मऊ के पुड़ी की बुराई नहीं कर रहा। वैसे बलिया के लोग बताते हैं कि लोग पहले के जमाने में अठारह कोस तक बड़की पुड़ी को बुनिया के साथ खाने के लिए लाठी लिए व धोती पहने निकल जाते थे। वैसे बलिया की बड़की पुड़ी में भी आधुनिकता की छाप नजर आती है। लोग कहते हैं कि इसका आकार अब पहले जैसा नहीं रहा। खैर आते हैं प्रमुख मुद्दे पर। साप्ताहिक अवकाश का दिन था और हमारे पड़ोसी व छोटे भाई की तरह रहने वाले अमित ग्वाला भाई का फोन आ गया। वह भी बलिया के हैं। उन्होंने बताया कि भगवान विश्वकर्मा पूजा के मौके पर प्रसाद ग्रहण का कार्यक्रम है। अब भला ब्राह्मण को और क्या चाहिए। वैसे इससे एक दिन पहले शाम को गुड्डू भाई का भी फोन आ चुका था डानकुनी में छोला भटूरा ग्रहण करने का। एक दिन में दो भोज का आमंत्रण थोड़ा चुनौतीपूर्ण हो गया। खैर दोपहर को अमित भाई के आमंत्रण पर हावड़ा पहुंचे। बहुत ही नेक व्यक्ति से मुलाकात हुई। चंदन कुमार यादव से। वैसे तो उनसे पहली मुलाकात थी लेकिन काफी अपनापन सा लगा। काफी देर तक विभिन्न मुद्दों पर चर्चा हुई। फिर बारी आई प्रसाद ग्रहण करने की। यकीन मानिए मुझे पता नहीं था कि यहां बलिया की बड़की पुड़ी के दर्शन होंगे। जब प्लेट में पुड़ी आई तो मानो धम्म से पड़ी हो जिसे देखकर कुछ समय के लिए मैं भारी आदमी थोड़ा सहम सा गया पर साथ में अमित और चंदन जी भी बैठे तो हौसला बढ़ा और जुबान पर जाते ही लाज़वाब स्वाद ने काफी सुकून दिया। लंबे समय बाद ऐसा प्रसाद ग्रहण किया गया। थाली में जबरदस्त अचार, आलू परवल की सब्जी और बुनिया के साथ बड़की पुड़ी। बेजोड़ स्वाद का आनंद लिया गया। चंदन जी ने जब बताया कि इस व्यंजन को बनाने के लिए 3 महीने पहले ही कारीगरों (हलवाई) का टिकट खासकर बलिया से आने के लिए कटवा दिया गया था ताकि वहां का स्वाद यहां के लोगों को मिल सके। बलिया से पहुंचे हलवाई मित्रों ने बताया कि पहले यह पुड़ी हाथी के कान से भी बड़ी होती थी। अब आकार में थोड़ी छोटी करनी पड़ी है ताकि न्यू जनरेशन इसे देखकर डरे नहीं बल्कि सेवन करे। वैसे इसके बाद शाम को डानकुनी में छोला भटूरा का स्वाद भी चखा गया लेकिन पेट का ख्याल रखते हुए। वैसे इन सब व्यंजनों का स्वाद निराला है लेकिन अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखते हुए सालों बाद ही इन्हें चखा गया। स्कूली मित्र पवन कुमार साव से डानकुनी में भेंट नहीं हो सकी। उनसे फिर कभी मिलने का वादा किया है। वैसे इस बीच हावड़ा नगर निगम की ओर से डुमरजुला स्टेडियम में लगे शारद मेले में भी पहुंचा । इसके और प्रचार प्रसार की आवश्यकता महसूस हुई। वैसे काफी कुछ खास यहां आपको मिल सकता है।
(इसके लेखक संदीप त्रिपाठी हैं, कुछ जानकारी इंटरनेट से भी संग्रहित)
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