आचार्य संजय तिवारी
माता के गर्भ में आते ही माता और पिता को कारावास। भादो की काली आधीरात में कारागार में ही जन्म। पिता ने शिशु की सुरक्षा के लिए बड़ी कठिनाई से बरसते मेघो और उफनाई यमुना को पार कर दूसरे के घर तक पहुँचाया। अपने माता पिता जेल में। दूसरे के घर पालन। उस घर के संस्कारों और आवश्यकताओं के अनुसार पालन पोषण। उस घर की व्यवस्थानुसार गोचर, गो सेवा के साथ जीवन का आरंभ। 12 वर्ष तक कोई शिक्षा नही। केवल गाय चराने और गोसेवकों की संगत में गोष्ठ व्यवस्था और गोष्ठ स्थल की गोष्ठी । इसी दौरान तत्कालीन ग्रामीण और सामाजिक जीवन की अनगिनत व्यवस्थाओं में क्रांतिकारी कार्य। गोवर्धन की महत्ता और गरिमा का प्रतिपादन। कई महत्वपूर्ण घटनाओं, नल कूवर की मुक्ति, पूतना की मुक्ति और रास, महारास। मथुरा की जेल से नंदगांव, वृंदावन और 12 वर्ष के बाद सांदीपनि के आश्रम में प्रवेश। इन 12 वर्षों के बाद जीवन मे फिर कभी मथुरा या नंदगांव, बरसाना या व्रज की यात्रा संभव न हो सकी। फिर तो हस्तिनापुर, खांडवप्रस्थ , कुरुक्षेत्र और आखिर में द्वारका की संघर्षगाथा ही जीवन के हिस्से में आती है। केवल संघर्ष, संघर्ष और संघर्ष में विकसित होती जीवन संस्कृति के वास्तविक संविधान के प्रतिपादन का भी समय निकाला तो कुरुक्षेत्र की रणभूमि में। केवल 45 मिनट का वह समय जब महाक्रांति के लिए महायुद्ध को तत्पर कौरव एवं पांडव पक्षो की सेनाएं शंखनाद कर चुकी थीं। इन्ही क्षणों में से केवल 45 मिनट के समय मे उन्होंने उस जीवन संविधान का प्रतिपादन किया जिसको श्रीमद्भागवत गीता के रूप में आज मनुष्य देख या जान पाया रहा है। ऐसे महानायक, महापुरुष की राजनैतिक सामाजिक दृष्टि को शब्दबद्ध करना कठिन ही नही असंभव है।
श्रीमद्भागवत या महाभारत महाकाव्य में महर्षि वेदव्यास जी ने हर जगह श्रीकृष्ण उवाच लिखा है लेकिन जब वह गीता के खंड को लिखते हैं तो उसमें भगवानुवाच लिखते हैं। यानी वेदव्यास ने भी महाभारत में इस महानायक का प्रतिपादन करते समय समाज, राष्ट्र, मनुष्य और मनुष्य धर्म को स्थापित करने की कोशिश की है। केवल कुरुक्षेत्र में युद्ध आरंभ होने से पूर्व के उस 45 मिनट के संवाद को प्रस्तुत करते समय उन्होंने भी श्रीकृष्ण को महामानव से बहुत ऊपर भगवान के रूप में देखा और तदनुसार स्थान दिया है। यही से श्रीकृष्ण के जीवन को और भी गहराई से समझने की आवश्यकता दिखाई पड़ती है। एक ऐसा युगपुरुष जो अपने समय की एक एक विसंगति से लड़ रहा होता है लेकिन किसी को आभास तक नही होने देता कि वह किसी युद्ध मे है। ऐसी घटनाओं और परिस्थितियों की कोई सीमा नही है। कोई गिनती नही। अपने जीवन के 128 वर्षों में उन्होंने शायद प्रत्येक सांस के साथ संघर्ष का इतिहास प्रतिपादित किया है। जन्म से लेकर मानवीय काया की समाप्ति तक वह प्रतिपल स्थापनाएं ही तो देते हैं। उस युग, समय, समाज और राजनीति की प्रत्येक स्थापना को तोड़ कर नई स्थापनाएं देना और उन्हें चिरजीवी बनाकर आगे यात्रा में निकल जाना कोई सामान्य कार्य नही।
श्रीकृष्ण की राजनैतिक दृष्टि को ठीक से समझना होगा। वह अपने युग की सबसे शक्तिशाली राजनीतिक व्यवस्था को बदलने को तत्पर हैं। हस्तिनापुर की राजनैतिक सत्ता उन्हें बार बार उद्वेलित करती है। राजनीति की विकृति को वह कूटनीति से तोड़ने में जुटे हैं। राजनैतिक सिद्धांतो में वह संबंध को समाधिस्थ करते हैं। एक उदाहरण ही पर्याप्त है, जब दुर्योधन पांडवों को अज्ञातवास के बाद भी उनका हिस्सा नही देने का ऐलान करता है। श्रीकृष्ण स्वयं को पांडवों का दूत घोषित करते है। इसके लिए कोई मंत्रणा नही। स्वयं की घोषणा और पहुच जाते है संधि प्रस्ताव लेकर। केवल पांच गांव का प्रस्ताव भी कर देते है। एक विशाल साम्राज्य के आधे के हिस्सेदारों के लिए केवल पांच गांव ? यह प्रस्ताव विचित्र है। श्रीकृष्ण भी जानते है कि यह प्रस्ताव उचित नही। लेकिन वह यह भी जानते हैं कि दुर्योधन की जिद और उसका मनोविज्ञान क्या है। वह इस प्रस्ताव को स्वीकार नही करेगा। इसीलिए खुद को दूत घोषित कर खुद ही प्रस्ताव प्रस्तुत कर देना उनकी कूटनीति का हिस्सा है। न तो पांडवों ने उन्हें अपना दूत बनाया था और न ही ऐसे किसी प्रस्ताव की सहमति हुई थी।
वस्तुतः, श्रीकृष्ण अपने समय की सभ्यता और राजनीति को ठीक से पढ़ चुके हैं। वह दुर्योधन की सत्ता से परिचित हैं। उन्हें पता है कि एक सम्राट के रूप में दुर्योधन से प्रजा को कोई शिकायत नही। सभ्यता ऐसे दौर में है जिसमे मनुष्य, मनुष्य से बहुत दूर हो चुका है। प्रजा खुद में संतुष्ट है। प्रजा को इससे कोई मतलब नही कि राजपरिवार में क्या हो रहा और विवाद की नैतिक, अनैतिक वजह क्या है। राजा प्रजा को हर प्रकार से संतुष्ट कर चुका है और सभ्यता उस दौर में है जिसमे हर आदमी खुद की संतुष्टि और भोग में जी रहा है। इसीलिए जब राजपरिवार की बहू के शरीर से वस्त्र उतारा जाता है तो कोई उसे बचाने नही आता। प्रजा के लिए यह राजपरिवार का अंदरूनी मामला है, राजपरिवार के सदस्यों के लिए यह केवल सम्राट की इच्छा। सभी तमाशबीन बने चुप्पी साधे बैठे हैं। श्रीकृष्ण इस परिस्थिति को समझ चुके हैं। उन्हें क्रोध तो बहुत आता है लेकिन प्रदर्शित नही करते। यदि वह द्रौपदी की साड़ी उतारने से बचाने की क्षमता रखते थे तो उनमें यह भी क्षमता थी कि उसी समय सभी तमाशबीनों को जवाब दे देते। उन्होंने ऐसा नही किया। उनके भीतर इस व्यवस्था के स्थाई समाधान की योजना पर मंथन चल रहा था। उस स्त्री की लाज बचाने के साथ ही वह उस रणनीति पर सक्रिय हो गए जिससे ऐसी व्यवस्था वाली सभ्यता को बदला जाय और मानवीय नीति स्थापित की जा सके।
वास्तविकता यह है कि श्रीकृष्ण अपने समय, उसकी गति, उसकी धारा और उस समय की सभ्यता को बहुत गंभीरता से मथ रहे थे। वह बहुत पीछे से काल को समझ रहे थे। उनको सभ्यता के साथ पनप चुकी विकृतियों की चिंता थी। बचपन से ही जिन घटनाओं के वह साक्षी हो रहे थे या जो कथानक घटित होते देख रहे थे उससे वे क्षुब्ध थे। इसको एक अन्य उदाहरण से समझ सकते है। गंगापुत्र भीष्म का सभी आदर करते थे लेकिन गंगापुत्र की परिस्थितियों पर किसी ने शायद उस दृष्टि से नही देखने की कोशिश ही नही की जिसको कृष्ण देख भी रहे थे और उस स्थिति से दुखी भी हो रहे थे। एक ऐसा पुत्र जो अपने पिता की भोगवृत्ति पूरी करने के लिए स्वयं को आजीवन अविवाहित रहने का व्रत लेकर जीवन जीने लगता है। जो अपनी समग्र भोग इच्छाओं की बलि देकर भी हस्तिनापुर के सम्राट की सेवा में लगा है, भले ही सम्राट किसी भी तरह से विधि विरुद्ध या अयोग्य ही क्यो न हो। कृष्ण को ऐसे राज्य की व्यवस्था, परिपाटी और राजसत्ता के प्रति अनैतिक बंधन बहुत ही विचलित करता है। अपने जन्म से लेकर हस्तिनापुर के राजपरिवार का रिश्ता जुड़ने तक वह जो कुछ भी देखते हैं उसमें उनको कहीं भी न्याय होता दिखता नही है, और तत्कालीन समाज ऐसी गतिविधियों पर कोई प्रतिक्रिया भी नही करता प्रतीत होता। सत्ता और प्रजा के बीच की यह सन्नाटे वाली खाई बहुत ही दुखी करती है। राम के समय मे ऐसा नही था। उस समय प्रजा का बेहद महत्व था। आसुरी शक्तियों से लड़ने में सभी की सहभागिता होती थी। सम्राट को जितनी चिंता अपने साम्राज्य की थी उससे अधिक प्रजा के विचारों और प्रजा की भावनाओ की चिंता थी लेकिन कृष्ण अपने समय मे वैसा कुछ नही पाते। यहां वे सभी को अपनी अपनी जगह निरंकुश पाते हैं। नैतिक, अनैतिक, आचरण, अनाचारण, चरित्र, अचरित्र आदि में यहां न भेद मिल रहा न ही कोई प्रतिक्रिया। यह कैसी सभ्यता विकसित हुई है। कृष्ण अपने समय की सभ्यता में जब जब मनुष्यता की तलाश करने की कोशिश करते हैं, और भी उलझते ही जाते हैं। नीति और राजधर्म पर तो यहां जिद और स्वार्थ इतने भारी हैं कि नर नारी , ज्ञानी अज्ञानी, बड़े छोटे, रिश्ते नाते, विचार अथवा विमर्श के सारे अवयव निष्प्राण हैं। प्रजा ऐसी कि राजपरिवार से उसका कोई संबंध ही नही। राजपरिवार की किसी घटना या किसी गतिविधि में प्रजा की न तो कोई भागीदारी है न कोई प्रतिक्रिया। राज्य सत्ता ऐसी है जिसको इस बात कोई चिंता ही नही कि उसके किसी कार्य या निर्णय से प्रजा अथवा समाज गलत दिशा में जा सकता है। समय के इस खंड में यह ऐसी सभ्यता स्थापित हो चुकी है जिसके केंद्र में संस्कृति, संस्कार और संवेदना को कोई स्थान ही दिखाई नही पड़ता।
कृष्ण के लिए उनका समय किसी संत्रास जैसा है। सभ्यता की असंगति और संस्कृति का क्षरण उनकी सबसे बड़ी चिंता है। समय , संबंध और संवेदना को संस्कृति के पूर्ण स्वरूप के साथ स्थापित करने के लिए उस समूचे तंत्र को शोधित या परिवर्तित करना ही उस समय की सबसे बड़ी आवश्यकता लगने लगती है। इसी लिए कृष्ण इसी दिशा में कार्य करने को ज्यादा महत्व देते है।
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