हिन्दी की सारी लेखक लॉबी उतर गई है आतंकियों को भोला और मासूम सिद्ध करने के लिए। अस्सी-नब्बे साल के वे बुड्ढे भी, जिन्होंने दशकों पहले अपना घुंघरू टांग दिया था। सब उछल रहे हैं, नाच रहे हैं। नाचते नाचते वस्त्र खुल गए हैं, विचार नंगा हो गया है, पर उन्हें कोई लज्जा नहीं... माल मोटा मिला है शायद! दारू और बिरयानी के ऑफर कई अड्डों से मिले हैं शायद... सम्भव है कि चार दिन बाद किसी साहित्यिक कार्यक्रम के बाद "तू लगावेलू जब लिपिस्टिक" जैसे गानों पर मादक नृत्य की वीडियो आ जाये...
इनकी पोस्ट पढिये, ऐसा लगेगा जैसे देश के सारे हिन्दू तलवार लेकर सड़कों पर उतर गए हैं और ये किसी भी तरह अल्पसंख्यकों की जान बचाने के लिए लड़ रहे हैं। हर बार की तरह बिल्कुल फर्जी नैरेटिव... न कश्मीर में मरने वालों के लिए कोई संवेदना है, न ही मारने वालों के प्रति कोई क्रोध! किसी भी मूल्य पर आतंकियों को बचा ले जाने की कवायद चल रही है। जो पीड़ित हैं उन्ही पर प्रश्न उठाया जा रहा है, उन्हें ही नफरती बताया जा रहा है। यही इन धूर्तों का एजेंडा है।
"सारे कश्मीरी दूध के धुले हैं। उन्हें पता ही नहीं होता कि उनके बीच कोई आतंकी भी है। वे जानते ही नहीं कि अत्याधुनिक हथियार लेकर घुस रहे आतंकी कहाँ रहते हैं, कहाँ खाते हैं, कहाँ सोते हैं... वे तो पाकिस्तान से आते हैं, मारते हैं और फुर्र से उड़ कर पाकिस्तान चले जाते हैं। लोकल सपोर्ट तो बिल्कुल ही नहीं होता..." इस देश में इससे बड़ा झूठ और क्या ही बोला जा सकता है?
इनका तर्क सुनिये तो सुनने वालों को लज्जा आएगी कि कैसे गद्दारों के बीच जी रहे हैं हम। कह रहे हैं कि दो हजार की भीड़ थी तो मिलिट्री फोर्स की सुरक्षा क्यों नहीं थी? जैसे इस देश में दो हजार लोगों का इकट्ठा होना अपराध हो। बिना मिलिट्री के इकट्ठा होइये तो आतंकियों को हत्या का अधिकार मिल जाता है। दोष आपका है, आप इकट्ठा हुए ही क्यों...
सुरक्षा मुद्दा है, इसके लिए सरकार से प्रश्न भी जरूरी है, पर इसके बहाने आतंकियों को क्लीन चिट देना निर्लज्जता है। आप देखिये, सभी यही कर रहे हैं।
जो जीवन भर राष्ट्रीय भावना का विरोध करते रहे हैं, उन्हें आज राष्ट्र की चिंता हुई है। कह रहे हैं कि मत बोलिये, वरना राष्ट्र खंडित हो जाएगा। सत्ताईस हत्याओं पर उफ तक मत कीजिये, वरना नफरत फैल जाएगी। चुपचाप देखते रहिये, दुबके रहिये...
जिनकी किताबों की कुल 50 प्रतियां नहीं बिकतीं, उनका अहंकार देखिये। वे जो कह रहे हैं, उसके अतिरिक्त हर बात झूठ है। अपने बन्द कमरे में बैठ कर जो उगल दिया, वही सत्य है।
सरकार से प्रश्न किया जाय। सुरक्षा की जिम्मेवारी उसी की है। उन राज्य को हर साल अरबों रुपये का अनुदान सरकार ही देती है। हजार प्रश्न बनते हैं। कार्यवाही का दबाव बनाया जाना चाहिये। लेकिन आतंकियों को क्लीन चिट दे कर नहीं।
दुनियाभर के घुमक्कड़ पत्रकारों का एक मंच है,आप विश्व की तमाम घटनाओं को कवरेज करने वाले खबरनवीसों के अनुभव को पढ़ सकेंगे
https://www.roamingjournalist.com/