14 जनवरी 2025 से प्रारंभ हो रहे महाकुंभ को लेकर सनातनियों में व्यापक उत्साह है। वहां लगने वाले गणेशानंद कैप को लेकर सिलीगुड़ी में भक्तों का जन ज्वार है। लेकिन आपको महाकुंभ को लेकर अनजानी बातों से अवगत करा रहे है। देश पर 200 साल तक राज करने वाले ब्रिटिश भी महाकुंभ से भयभीत थे।
अंग्रेजी हुकूमत के दौरान एक ऐसा मंच बन गया था, जहां धर्म और स्वतंत्रता की चेतना का संगम देखने को मिला था। प्रयागराज का कुंभ मेला, भारत की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक धरोहर का प्रतीक, न केवल धार्मिकता का उत्सव है बल्कि यह सदियों से समाज की सामूहिक चेतना और स्वतंत्रता की भावना का परिचायक भी रहा है। यह मेला, जहां अनगिनत श्रद्धालु और संत अपनी आस्था की डुबकी लगाने संगम पहुंचते हैं, अंग्रेजी हुकूमत के दौरान एक ऐसा मंच बन गया था, जहां धर्म और स्वतंत्रता की चेतना का संगम देखने को मिला। अंग्रेज कुंभ को राजनीतिक खतरे के रूप में देखते थे: अंग्रेजों के लिए कुंभ केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं था। इसे उन्होंने राजनीतिक और सामाजिक खतरे के रूप में देखा। उनके लिए यह भीड़ केवल तीर्थयात्रियों का जमावड़ा नहीं, बल्कि भारतीयों के सामूहिक मनोबल का प्रतीक था। कुंभ के माध्यम से लोगों का एक साथ जुटना और विचारों का आदान-प्रदान हुकूमत के लिए चुनौतीपूर्ण था। इसी कारण अंग्रेज सरकार ने कुंभ मेले के दौरान भीड़ को रोकने के लिए कठोर कदम उठाए। सबसे उल्लेखनीय कदम था रेलवे टिकट की बिक्री पर प्रतिबंध। रेलगाड़ी, जो उस समय लंबी दूरी के यात्रियों के लिए मुख्य साधन थी, को बंद कर दिया गया।सरकार के फैसले से तीर्थयात्रियों में था गहरा आक्रोश: 1918 के कुंभ मेले में यह प्रतिबंध और भी स्पष्ट हुआ। तत्कालीन रेलवे बोर्ड के अध्यक्ष आर.डब्ल्यू. गिलन ने संयुक्त प्रांत के उप राज्यपाल जेम्स मेस्टन को पत्र लिखकर इस बात पर जोर दिया कि कुंभ मेले के लिए जाने वाली ट्रेनों की संख्या कम की जाए और टिकट की बिक्री बंद कर दी जाए। उद्देश्य यह था कि लोग प्रयागराज तक पहुंच ही न सकें। इस निर्णय ने न केवल तीर्थयात्रियों की आस्था पर चोट पहुंचाई बल्कि लोगों के बीच आक्रोश भी पैदा किया। इस ऐतिहासिक मेले का हिस्सा बने महात्मा गांधी ने 1918 के कुंभ में पहुंचकर संगम में डुबकी लगाई। यह डुबकी केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं थी; यह उनके भीतर ऊर्जा और प्रेरणा का संचार करने का माध्यम थी। कुंभ में उनके आगमन का उल्लेख सीआईडी की उस समय की खुफिया रिपोर्ट में दर्ज है। इस रिपोर्ट के अनुसार, बापू ने यहां न केवल स्नान किया, बल्कि मेले में उपस्थित लोगों से मुलाकात कर उन्हें स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भागीदारी के लिए प्रेरित भी किया।महात्मा गांधी ने कुंभ मेले को केवल धार्मिक उत्सव के रूप में नहीं देखा, उन्होंने इसे एक ऐसा अवसर माना, जहां लोगों की भावनाओं को समझा और उनके साथ अपने विचार साझा किए जा सकते थे। उस समय असहयोग और खिलाफत आंदोलन चरम पर थे। गांधीजी ने इस धार्मिक अवसर का उपयोग देश की आजादी के लिए समर्थन जुटाने और आम जनता को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक करने के लिए किया। ऐसे समय में जब अंग्रेज सरकार ने कुंभ में लोगों के जुटने को रोकने के लिए रेलवे टिकट पर प्रतिबंध लगाया, क्रांतिकारियों ने इसे अपनी रणनीति का हिस्सा बना लिया। कुंभ मेला न केवल एक धार्मिक स्थल था, बल्कि यह स्वतंत्रता आंदोलन के लिए नई ऊर्जा और दिशा प्राप्त करने का स्थान भी बन गया। क्रांतिकारी यहां गुप्त रूप से पहुंचते, संगम में स्नान करते और फिर अपने कार्यों को अंजाम देने के लिए लौट जाते। यह स्नान उनके लिए केवल आध्यात्मिक शुद्धिकरण नहीं था, बल्कि यह संघर्ष में नई शक्ति और आत्मविश्वास भरने का प्रतीक था। कुंभ मेले में महात्मा गांधी की उपस्थिति ने इस आयोजन को और भी ऐतिहासिक बना दिया। उनके आगमन ने न केवल मेले की महत्ता को बढ़ाया, बल्कि इसे स्वतंत्रता आंदोलन का एक महत्वपूर्ण अध्याय भी बना दिया। उनके विचार और प्रेरणा ने लोगों को इस बात का एहसास कराया कि धार्मिकता और राष्ट्रवाद एक-दूसरे के पूरक हो सकते हैं।अंग्रेजों की तमाम कोशिशों के बावजूद कुंभ मेला हमेशा भारतीयों की आस्था और सामूहिक चेतना का प्रतीक बना रहा। यह मेला न केवल धर्म, बल्कि समाज की एकता, संघर्ष और स्वतंत्रता की भावना को भी दर्शाता है। 1918 का कुंभ और महात्मा गांधी की उपस्थिति इस बात का प्रमाण है कि जब भी लोगों को रोकने की कोशिश की जाती है, उनकी सामूहिक शक्ति और बढ़ जाती है। कुंभ मेला तब भी और आज भी, भारत के अदम्य साहस और आध्यात्मिकता का प्रतीक बना हुआ है।महाकुंभ में अखाड़ों और उनके साधु-संतों की उपस्थिति श्रद्धालुओं के लिए विशेष आकर्षण का केंद्र होती है। करोड़ों लोगों की भीड़ के बीच ये दिव्य व्यक्तित्व मानो आध्यात्मिक ऊर्जा का संचार करते हैं। 2025 का प्रयागराज महाकुंभ अखाड़ों और उनके साधु-संतों की उपस्थिति के बिना अधूरा है। ये अखाड़े न केवल भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म के प्रतीक हैं, बल्कि समाज में नैतिकता और धर्म का प्रचार-प्रसार करने वाले मुख्य स्तंभ भी हैं। कुंभ मेले में अखाड़ों की परंपरा, उनके उद्देश्य और अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद की भूमिका को समझना इस भव्य आयोजन की गहराई में जाने का एक महत्वपूर्ण कदम है। अखाड़ा शब्द शाब्दिक अर्थ और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: ‘अखाड़ा’ शब्द का शाब्दिक अर्थ कुश्ती का मैदान है, लेकिन इसका सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्व इससे कहीं अधिक है। माना जाता है कि अखाड़ा प्रणाली की शुरुआत 8वीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य ने की थी। इस प्रणाली का उद्देश्य हिंदू धर्म की रक्षा के लिए शस्त्र और शास्त्र में निपुण साधुओं का एक ऐसा संगठन बनाना था, जो किसी भी बाहरी आक्रमण से धर्म और संस्कृति की रक्षा कर सके। इन साधुओं का अपना कोई पारिवारिक बंधन नहीं होता था, जिससे वे भौतिक इच्छाओं से दूर रहकर अपने धर्म के लिए समर्पित रहते थे।अखाड़ा शब्द के प्रचलन की शुरुआत मुगलकाल में हुई। कुछ विद्वानों का मानना है कि यह ‘अलख’ शब्द से आया है, जबकि अन्य इसे साधुओं के अक्खड़ स्वभाव से जोड़ते हैं। पहले इन्हें साधुओं का जत्था या बेड़ा कहा जाता था।
क्यों की गई अखाड़ों की स्थापना और क्या था इनका उद्देश्य?आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित यह परंपरा समय के साथ विस्तारित होती गई। शुरुआत में चार अखाड़े थे, जो अब बढ़कर 13 हो गए हैं। इनका उद्देश्य न केवल धर्म की रक्षा करना था, बल्कि समाज में नैतिक मूल्यों को बनाए रखना और लोगों को अध्यात्म की ओर प्रेरित करना भी है। अखाड़ों के साधु-संत धार्मिक ज्ञान, योग, ध्यान, और शस्त्र विद्या में निपुण होते हैं।
अखाड़ों का प्रमुख उद्देश्य समाज को धर्म और संस्कृति की गहराई से जोड़ना और समाज में समरसता बनाए रखना है। कुंभ मेले में इनकी उपस्थिति श्रद्धालुओं को भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म की दिव्यता का अनुभव कराती है।
वर्तमान समय में कितने प्रकार के अखाड़े हैं और उनकी संरचना क्या है?: 13 प्रमुख अखाड़े तीन संप्रदायों में विभाजित हैं:-
संन्यासी संप्रदाय: इसमें सात अखाड़े आते हैं – जूना, आह्वान, अग्नि, निरंजनी, आनंद, निर्वाणी और अटल अखाड़ा।
वैष्णव संप्रदाय: इसमें निर्मोही, दिगंबर, और निर्वाणी अनी अखाड़े शामिल हैं। उदासीन संप्रदाय: इसमें बड़ा उदासीन, नया उदासीन और निर्मल अखाड़ा आते हैं।
प्रत्येक अखाड़े का अपना एक अध्यक्ष होता है, जिसे साधुओं की योग्यता के आधार पर चुना जाता है। अखाड़ों के प्रमुख का कार्यकाल तीन से छह साल का होता है। अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद का गठन और भूमिका: 1954 में कुंभ मेले के सुचारू संचालन के उद्देश्य से अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद (ABAP) की स्थापना की गई। यह परिषद अखाड़ों के बीच समन्वय स्थापित करने और उनके विवादों को सुलझाने का कार्य करती है। इसके अलावा, परिषद अखाड़ों की प्रतिष्ठा को बनाए रखने और उनकी परंपराओं को संरक्षित रखने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष का चुनाव सभी 13 अखाड़ों के प्रतिनिधियों द्वारा होता है। इस प्रक्रिया में रोटेशन सिस्टम का पालन किया जाता है, जिससे सभी अखाड़ों को प्रतिनिधित्व मिलता है। अखाड़े केवल धार्मिक संगठन नहीं हैं, बल्कि समाज में नैतिकता और अनुशासन के संवाहक भी हैं। इनका समाज पर गहरा प्रभाव है, क्योंकि वे न केवल आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करते हैं, बल्कि समाज के ज्वलंत मुद्दों पर भी मुखर होते हैं। अखाड़ों का यह पक्ष महाकुंभ जैसे आयोजनों में विशेष रूप से देखने को मिलता है, जहां साधु-संत लोगों को धर्म और आध्यात्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं।कुंभ मेले में अखाड़ों का क्या है महत्व?: कुंभ मेले में अखाड़ों की पेशवाई (शोभायात्रा) एक भव्य आयोजन होता है। यह आयोजन उनकी आस्था और शक्ति का प्रतीक है। लाखों श्रद्धालु इन शोभायात्राओं में भाग लेकर संतों का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। महाकुंभ में अखाड़ों का योगदान न केवल धार्मिक आयोजन को दिव्यता प्रदान करता है, बल्कि लाखों श्रद्धालुओं के लिए यह एक आध्यात्मिक अनुभव का माध्यम बनता है। ( अशोक झा की कलम से)
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