बात 2006 की है। अक्टूबर का महीना था। अमर उजाला वाराणसी में जम्मू-कश्मीर का तबादला का मौखिक आदेश मिलने के बाद वहां के लिए चल दिया। काशी से कश्मीर की विदाई एक दिन पहले आफिस में मीटिंग के दौरान तत्कालीन स्थानीय संपादक अकु श्रीवास्तव ने शाल पहनाकर की, कैंट रेलवे स्टेशन पर जब जम्मू के लिए ट्रेन पकडऩे गया तो एचआर वाले फूलों का गुलदस्ता लेकर आए। फूल देने का अंदाजा ऐसे था, जैसे किसी ताबूत पर पुष्पचक्र भेंट करने आए हों। आधा दर्जन से ज्यादा दोस्त भी थे, जो वाकई में गमगीन थे। इनको सांत्वना देने के लिए अपने मुंह मियां मिठ्ïठु बनने में जुटा था। उनका दर्द था.. सर आप तो धरती के स्वर्ग कश्मीर में जा रहे हैं, लेकिन हम लोग की जिंदगी नरक हो जाएगी। जवाब था-बाबा विश्वनाथ का तुम्हारे सिर पर हाथ है, मस्त होकर काम करो। मैं उनको निराश नहीं देख सकता था,इसलिए शेखी बघारते हुए कहा काशी से कश्मीर कोई पत्रकारिता करने गया है? बाबू विष्णुराव पराडक़र से लेकर आज तक किसी का नाम जानते हो बतावो? इस सवाल पर सब चुप हो गए, दो मिनट की खामोशी के बाद बोले सर आपके साथ काम करने का आनंद अलग है। ढांढ़स और सांत्वना के बीच तबादले के पीछे आफिस की राजनीति के त्रिकोण के चौथे कोण की भी खोजबीन होती रही। इसी बीच जम्मू तवी एक्सप्रेस ने सीटी दे दी। सबसे गले लगने के बाद ट्रेन के दरवाजे पर खड़े होकर हाथ हिलाकर सबको विदा किया और जिंदगी की गाड़ी काशी से कश्मीर की ओर चल पड़ी।
सेना के जवान और माता रानी को दर्शन को जाने वाले श्रद्घालुओं से ट्रेन भरी थी। लोअर बर्थ होने के कारण खिडक़ी के किनारे बैठकर नई मंजिल,नई चुनौती,नई दिक्कतों के साथ दिमाग में इतने विचार आ रहे थे कि समझ में नहीं आ रहा था, क्या करें? क्या न करें? अखबार की नौकरी की भागदौड़ में मां का उचित इलाज न करा पाने के कारण खो देने के साथ ही मणिकर्णिका घाट पर अंतिम संस्कार तक का मंजर दु:स्वपन की सुनामी बनकर दिमाग में तबाही मचा रहा था। वैचारिक मंथन के बीच पिता जी का वह डायलाग भी याद आ रहा था,जब उनसे मिलने बस्ती स्थित घर गया, तो उन्होंने कहा कि नौकरी छोड़ दो, घर में खेती-बाड़ी कराना तो अखबार की नौकरी से ज्यादा ही तुम कमाओगे। जम्मू-कश्मीर में आतंकवादी घटनाओं की आए दिन अखबार और टीवी में आने वाली खबरों के कारण पापा के प्यार को दिल की गहराई से महसूस कर रहा था। रुआंसे हो गए पापा को मनाने के लिए एक झूठ बोला। ..अमर उजाला सभी इलाके से एक-एक रिपोर्टर को आतंकवाद प्रभावित क्षेत्र में रिर्पोटिंग का अनुभव लेने के लिए भेज रहा है। आपके इस बेटे का चयन शशिशेखर(उस समय अमरउजाला के समूह संपादक) ने खुद पूर्वांचल से किया है। छह माह से एक साल के भीतर कोर्स कम्पलीट करके लौट आना है। बेटे के झूठ को बाप को पकड़ते देर नहीं लगी होगी,लेकिन वह मन मसोस कर अपना ध्यान देना, आंतकवाद वाले इलाकों में मत जाना, रोजाना फोन करते रहना, खाने-पीने में लापरवाही मत करना सहित ढेरों सीख
जेहन में तेज गति से दौड़ रहे थे। सवालों के साहिल में खुद को मंझधार में पा रहा था। ट्रेन तेज गति से पटरियों पर दौड़ रही थी,कब जौनपुर और सुलतानपुर निकल गया, पता ही नहीं चला। सूरज अस्ताचल की ओर चल दिए थे, ट्रेन लखनऊ के नजदीक आ गई थी। वहीं उलझन,वहीं सवाल के बीच जम्मू-कश्मीर में क्या करेंगे? क्या खबर हो सकती है? लखनऊ पहुंचते ही दिमाग में चकराने लगा था, एक चाय पीने के बाद फिर सीट पर आ गया। सोच-विचार में रात हो गयी थी। पत्नी ने रास्ते के लिए टिफिन रखा था। पूड़ी-सब्जी के साथ अपनी पसंदीदा स्वीट डिश लौंगलत्ता को देखकर जीभ में पानी आ गया। चार-पांच पूड़ी खाने के साथ पूरा लौंगलत्ता साफ करने के बाद फिर सोच के समंदर में डूब गया। मौसम ठंड का था लेकिन दिमाग गर्म हो गया था। कंबल ओढक़र सोचते-सोचते कब नींद आ गई पता ही नहीं चला। जब नींद खुली तो ट्रेन पंजाब में दाखिल हो चुकी थी। पंजाब और जम्मू-कश्मीर के बार्डर लखनपुर ट्रेन रुकी थी, पता किया तो जम्मू एक-दो घंटे में आने की जानकारी मिली। रात आठ बजे जम्मू स्टेशन पर ट्रेन रुकने के बाद दिल में बाबा विश्वनाथ के साथ माता रानी का नाम लिया। स्टेशन से जम्मू के संपादक प्रमोद भारद्वाज को फोन लगाया। .. कडक़दार आवाज में हैलो सुनाई पड़ा.. प्रणाम सर, मैं दिनेश चंद्र मिश्र बोल रहा हूं, काशी से जम्मू-कश्मीर तबादला हुआ है। .. यह सुनकर उधर से जवाब मिला ..अरे तुम काशी से कश्मीर आ गए। कल सबेरे साढ़े दस बजे मीटिंग में आओ फिर बात होती है। साढ़े दस का मतलब साढ़े दस बजे याद रखना..ओके। ..ओके..गुडनाइट सर।
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awara mijazi ne phaila diya aanchal ko , aakaash ki chadar hai dharti ka bichhouna hai .
जवाब देंहटाएंThx
हटाएंlove it..............:-)
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